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बायोडायवर्सिटी एंड सस्टेनेबल प्रैक्टिस विषयक: एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का हुआ आयोजन

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26 Jun 25
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बायोडायवर्सिटी एंड सस्टेनेबल प्रैक्टिस विषयक: एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का हुआ आयोजन


उदयपुर  भारत विश्व गुरू था, यह हमने नहीं कहा - यह दुनिया ने कहा। भारत विश्व के कल्याण की बात करता है जिसमें पृथ्वी रहने वाली सभी प्राणी आ गये।  भारत के विश्वगुरुत्व के पीछे भारत की ज्ञान-ऋषि परंपरा, संस्कार, संस्कृति उसका आधार रहा जिसमे वसुधैव कुटुम्बकम , प्राणी-प्रकृति सद्भाव की भावना निहित थी। आज पुनः इन सभी की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। प्रकृति हो या संस्कृति दोनों ही स्तरों पर भोगवादी विचारों का जो प्रभाव आया है उसके दुष्परिणाम सभी के सामने है। प्रकृति का संयमित और संतुलित उपभोग करके और विश्वकल्याण के भावों को जागृत करके भू-जैविक और मानवीय सम्याओं का समाधान किया जा सकता है।
उक्त विचार बुधवार को प्रतापनगर स्थित आईटी सभागार में राजस्थान सरकार के जनजाति क्षेत्रीय विकास और गृह रक्षा मंत्री बाबूलाल खराड़ी ने राजस्थान विद्यापीठ के संघटक विज्ञान संकाय के बोटनी विभाग की ओर से  बायोडायवर्सिटी एंड सस्टेनेबल प्रैक्टिस विषय पर आयोजित  एक दिवसीय सेमिनार में मुख्य अतिथि के रूप में व्यक्त किये। उन्होंने युवाओ का आह्वान किया कि परंपरागत स्थानीय ज्ञान में जैवविविधता  और सतत विकास के कई प्रकार व तरीके उपलब्ध है जिन्हें अपना कर पर्यावरण संरक्षण में अपनी सकारात्मक भूमिका निभा सकते है। खराडी ने युवाओं से अधिक से अधिक शोध करने पर जोर दिया और कहा कि ये भारत का आने वाला भविष्य है।
 कुलपति प्रो. एस. एस. सारंगदेवोत ने कहा कि प्रकृति हमें सब कुछ देने को तैयार है लेकिन लालची बन कर नहीं, लालच को वह कभी पूरा नहीं कर सकती। हम प्रकृति से उतना ही ले जितनी हमारी आवश्यकता है और हम पुनः उसे देने का प्रयास भी करे। प्रकृति हमारी धरोहर है इसे आने वाली पीढी के लिए भी संरक्षित करने की जरूरत है। प्रो. सारंगदेवोत ने संगोष्ठी में गीता और ऋग्वेद को रेखांकित करते हुए परम्परागत - आदि ज्ञान में पारिस्थितिकी, जैवविविधता और सतत विकास के अंतरसंबंध को बताया। तीज त्यौहारों में निहित सहअस्तित्व, प्रकृति प्रेम व संरक्षण की अत्यंत साधारण किंतु प्रभावशाली आदतों को बताते हुए उन्हें अपनाने का आह्वान किया। विकास की गहराई को समझते हुए जल, जंगल जमीन, जौविक खेती, सतत जल प्रबंधन जैसे क्षेत्रों पर कार्य करके जैव विविधता और सतत विकास में सामंजस्य स्थापित करने वाले तरीकों का अपनाये जाने की बात कही।
विशिष्ट अतिथि प्रताप गौरव केंद्र के निदेशक अनुराग सक्सेना ने कहा कि मेवाड़ हमेशा से ही प्रकृति संरक्षण की अवधारणा को पोषित करता रहा है। उन्होंने महाराणा प्रताप के भू परिस्तिथिकी के अनुरूप कृषि के तरीकों अन्न-फल की किस्मों, जैविक खाद, मृदा-जल संरक्षण द्वारा सहजीवन और प्रकृति-मानव के सामंजस्य पर प्रकाश डाला। उन्होंने मेवाड़ में परिस्तिथिकी प्रथाओं के दस्तावेजीकरण , आवल बवाल संधि के द्वारा जैवविविधता और विकास के प्रयासों के बारे में भी चर्चा की।


अध्यक्षीय उद्बोधन में कुलाधिपति और कुल प्रमुख भंवरलाल गुर्जर ने पर्यावरण, जैव विविधता और परम्परागत ग्रामीण अंचल के प्रचलित आदतों को आधुनिक ज्ञान के साथ जोड़ कर नई पीढ़ी तक पहुंचाने की बात कही। उन्हांेने पर्यावरण संबंधी समस्याओं के समाधान के लिए पुन प्रकृति की ओर लौटने वाली जीवन शैली अपनाने पर जोर दिया।
तकनीकी सत्र में राजस्थान सरकार के वनविभाग के पूर्व एसीएफ डाॅ सतीश कुमार शर्मा ने राजस्थान की जनजाति और ग्रामीण क्षेत्रों की जैव विविधता से जुड़े मुद्दों  और इंसटीट्यूट आॅफ इकोलोजी और लाइवलीहुड एक्शन के डाॅ सुनील दुबे ने प्रजेन्टेशन के माध्यम से विचार व्यक्त किए।
प्रारंभ में आयोजन सचिव डाॅ. सपना श्रीमाली ने अतिथियों का स्वागत करते हुए बताया कि एक दिवसीय संगोष्ठी में 150 से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया। तकनीकी सत्रों में संगोष्ठी विषय पर पेपर और पोस्टर प्रजेंटेशन किये गए।
सेमीनार में रजिस्ट्रार डाॅ. तरूण श्रीमाली, डाॅ. सुनील दुबे, कुल सचिव भैरूलाल लौहार, डाॅ. अवनीश नागर,   प्रो. गजेन्द्र माथुर, प्रो. आईजे माथुर, डाॅ. नीरू राठौड,  डाॅ. सपना श्रीमाली, डाॅ. उत्तम शर्मा, डाॅ. जयसिंह जोधा सहित विद्यापीठ के डीन, डायरेक्ट, विद्यार्थी एवं स्कोलर्स उपस्थित थे।
संचालन सिद्धिका शर्मा ने किया जबकि आभार डाॅ. उत्तम शर्मा ने जताया।


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