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“ऋतुराज वसन्त के आगमन के स्वागत का पर्व वसन्त-पंचमी”

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26 Nov 21
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“ऋतुराज वसन्त के आगमन के स्वागत का पर्व वसन्त-पंचमी”

 माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसन्त पंचमी का वैदिक पर्व मनाया जाता है। आगामी 5 फरवरी, 2022 को वसन्त पंचमी है, उस दिन यह पर्व मनाया जायेगा। इस पर्व से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों को हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। इस दिन शीत के आतंक का समापन हो चला होता है, जराजीर्ण गंजे व लाठीधारी मनुष्य की तरह शिशिर का बहिष्कार करते हुए सरस वसन्त ने वन और उपवन में ही नहीं, किन्तु वसुधा भर में सर्वत्र अपने आगमन की घोषणा कर दी है। सारी प्रकृति ने वसन्ती बाना पहन लिया होता है। खेतों में संरसों के फूल दृष्टिगोचर होते हैं। जहां तक दृष्टि दौड़ाइये, मानो पीतता सरिता की तरंगावली नेत्रों का आतिथ्य करती है। वनों में टेसू (पलाश-पुष्पों) की सर्वत्र व्यापिनी रक्ताभा दर्शनीय होती है। उपवन गेंदे और गुलदाऊदी की पुष्पावली के पीत-परिधान धारण किये हुए होते हैं। नगर और ग्राम में बाल-बच्चे वसन्ती वस्त्रों से सजे होते हैं। मन्द सुगन्ध मलय समीर (मलय पर्वत की चन्दन की सुगन्ध से युक्त पवन) सर्वत्र बह रहा होता है। ऋतुराज वसन्त के इस उदार अवसर पर इतने पुष्प खिलते हैं, कि वायुदेव को उन की गन्ध के भार से शनैः शनैः सरकना पड़ता है। इस समय उपवनों में चारों ओर पुष्पों ही पुष्पों की शोभा नेत्रों को आनन्द देती है। जिधर देखिये उधर ही रंग-बिरंगे फूल खिल रहे होते हैं। कहीं गुलाब अपनी बहार दिखा रहा है, तो कहीं गुले-अब्बास (एक फूल का नाम) के पंचरंगे फूल आंखों को लुभा रहे हैं। कहीं सूर्यप्रिया सूर्यमुखी सूर्य को निहार रही है, कहीं श्वेत कुन्द (फूल) की कलियां दांत दिखला कर हंस रही हैं। गुले-लाल अपने गुलाबी पुष्पों के आठों से मुस्करा रहा है। कमल अपने पुष्प-नेत्रों से प्रकृति-सौंदर्य को निहार रहा है। आम्र पुष्पों (बौरों) की छटा ही कुछ निराली है। उन पर भौंरों की गूंज और शाखाओं पर बैठी कोयल की कूक उस की शोभा को द्विगुणित कर देती है। आम के बौरों में कुछ ऐसी मदमाती सुगन्ध होती है कि वह मन को बलात् अपनी ओर खींच कर मोद (प्रसन्नता व आनन्द) से भर देती है। आयुर्वेद के सिद्धान्तानुसार इस ऋतु में स्थावरों (वनस्पतियों) में नवीन रस का संचार ऊपर की ओर हो होता है। प्राणियों के शरीरों में भी नवीन रुधिर का प्रादुर्भाव होता है, जो उन में उमंग और उल्लास को बढ़ाता है। वसन्त ऋतु तो चैत्र और वैशाख में होती है। ‘‘माधुमाघवौ वसन्तः स्यात्” यह वचन इसका पोषक प्रमाण है। किन्तु प्रकृति देवी का यह सारा समारोह ऋतुराज वसन्त के लिए 40 दिन पूर्व से ही प्रारम्भ हो जाता है। जब प्रकृति देवी ही सर्वतोभावेन ऋतुनायक के स्वागत के तन्मय है, तो उसी के पंचभूतों से बना हुआ रसिक शिरोमणि मनुष्य रसवन्त वसन्त के शुभागमन से किस प्रकार बहिर्मुख रह सकता है। फिर वनोपवन-विहारी भारतवासी तो प्राकृतिक-शोभा निरीक्षण तथा प्रकृति के स्वर में स्वर मिलाने में और भी प्राचीन काल से प्रवीण रहे हैं। वे इस अवसर पर आनन्दानुभव से कैसे वंचित रह सकते थे। प्राचीन भारतीयों ने इस उदार ऋतु का आनन्द  मनाने के लिए वसन्त पंचमी के पर्व की रचना की। 

    यह समय ही कुछ ऐसा मोदप्रद ओर मादक होता है कि वायुमण्डल मद और मोद से भर जाता है, दिशाएं कलकण्ठा कोकिला आदि विविध विहंगमों के मधुर आलाप से प्रतिध्वनित हो उठती हैं। क्या पशु, क्या पक्षी और क्या मनुज सब का हृदय आह्लाद से उद्वेलित होने लगता है, मनों में नयी नयी उमंगें उठने लगती हैं। भारत के अन्नदाता किसान अपने अहर्निश के परिश्रम को आसन्न आषाढ़ी (साढ़ी) उपज सस्य के रूप में सफल देख कर फूले अंग नहीं समाते। उन के गेहूं और जौ के खेतों की नवाविर्भूत बालों से युक्त लहलहाती हरियाली उन की आंखों को तरावट और चित्त को अपूर्व आनन्द देती है, कृषि के सब कार्य इस समय समाप्त हो जाते हैं। अतः कृषि-प्रधान भारत को इस समय आमोद-प्रमोद और राग-रंग की सूझती है। माघ सुदि वसन्त पंचमी के दिन से उस का प्रारम्भ होता है। भारत के ऐश्वर्य-शिखर पर आरूढ़ता और विलास-सम्पन्नता के समय पौराणिक काल में इस अवसर परमदन-महोत्सव मनाया जाता था। संस्कृत साहित्यज्ञ जानते हैं कि भारतवासी सदा से कविता के वातावरण में विहार करते रहे हैं और कविता प्रति क्षण कल्पना के वाहन पर विचरती रहती है। इस लिये शायद ही कोई भाव बचा हो, जिसका काल्पनिक चित्र भारतीय कवियों ने रचा हो। 

    आर्य पुरुषों को उचित है कि वे कामदाहक महापुरुषों के उत्तम उदाहरण को सदा अपने सामने रखते हुए मर्यादा-अतिक्रमणकारी कामादि विकारों को किसी ऋतु में भी अपने पास तक न फटकने दें ओर ऋतराज वसन्त की शोभा को शुद्धभाव से निरखते हुए और परम प्रभु की रम्य रचना का गुणानुवाद करते हुए वसन्त पंचमी के ऋतुत्सव को पवित्र रूप में मनाकर उस का आनन्द उठायें। वसन्तोत्सव पर भारत में संगीत का विशेष समारोह होता है, किन्तु जनता में श्रृंगारिक गानों का ही अधिक प्रचार है। संगीत से बढ़कर मन और आत्मा का आह्लादक दूसरा पदार्थ नहीं है। सद्भाव समन्वित संगीत से आत्मा का अतीव उत्कर्ष होता है। आर्यसमाज ने भव्यभाव भरित गीतों व भजनों का प्रचार किया है। आर्य महाशयों को वसन्त आदि उत्सव के दिन संगीत और काव्यकला की उन्नति के लिए उपयुक्त और उत्तम अवसर हो सकते हैं। इन पर्वों पर आर्य जनता में कवितामय सुन्दर संगीत की परिपाटी प्रचलित करनी चाहिए। संगीत का सुधार व उन्नति भी सुधारक शिरोमणि आर्यसमाज से ही सम्भव है। इस दिन आर्यसमाजों में प्रातः अथवा सायं संगीत व भजनों का आयोजन कर सभी सदस्यों तथा धर्म प्रेमियों को उसमें उत्साह व श्रद्धा भावनाओं सहित सम्मिलित होना चाहिये। 

    वसन्त पंचमी का दिवस धर्मवीर 14 वर्षीय बालक हकीकतराय के बलिदान से भी जुड़ा हुआ है। इसी दिन स्यालकोट में सन् 1728 में जन्में बालक हकीकतराय जी का धर्म की वेदि पर लाहौर में सन् 1742 में बलिदान हुआ था। यह स्थान अब पाकिस्तान में है। हकीकत राय जी की माता का नाम कौरां तथा पिता का नाम बागमल था। पिता व्यवसाय से व्यापारी थे। इस बालक पर मिथ्या आरोप लगाकर उसका धर्म परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया था। उसे प्रलोभन देने सहित जान से मारने का भय दिखाया गया। बालक के परिवार में माता पिता सहित कम आयु की पत्नी और सगे संबंधी थे। माता-पिता का मोह भी इस बालक को अपने धर्म को छुड़ा न पाया। इस बालक ने भय और सभी प्रलोभनों का दृणता से त्याग कर धर्म के लिए बलिदान होना श्रेयस्कर समझा था। उन्होंने विधर्मियों से जो प्रश्नोत्तर किये, वह भी हमें जानने चाहिये। इस बालक से सभी सनातन धर्मी बन्धुओं को प्रेरणा लेनी चाहिये और धर्म की रक्षा के लिए उसी के समान बलिदान की भावनाओं से भरा हुआ होना चाहिये। इस दिन हमें बालक वीर हकीकतराय जी के जीवन को स्मरण करना चाहिये वा सुनना चाहिये। इस घटना को अपने बच्चों व पारिवारिक जनों को सुना कर धर्म पालन में सावधान करना चाहिये और बताना चाहिये कि किसी भी स्थिति में सद्धर्म ‘सनातन वेद’ का त्याग करना किसी भी मनुष्य के लिए उचित नहीं होता है। वीर बालक हकीकत राय जैसे उदाहरण विश्व के इतिहास में बहुत कम मिलते हैं। हमें गुरु गोविन्द सिंह जी के बच्चों के बलिदान व उसकी पृष्ठभूमि को भी स्मरण करना चाहिये और उन्हें भी अपनी श्रद्धांजलि देनी चाहिये। यह बलिदान भी सनातन वैदिक रक्षा के लिए ही हुआ था। देश और धर्म के लिए जो प्रमुख बलिदान हुए हैं, इस दिन उन सब बलिदानियों के जीवन व कार्यों को भी स्मरण करना व विद्वानों से सुनना चाहिये। 

    वैदिक परम्परा में सभी शुभ कार्य व पर्व आदि के अवसरों पर घर में अग्निहोत्र यज्ञ करने का विधान है। वसन्त पंचमी के दिन भी सभी आर्य हिन्दु बन्धुओं के गृहों पर यज्ञ होना चाहिये जिसमें परिवार के सभी छोटे बड़े सदस्यों को सब कामों को छोड़ कर यज्ञ में सम्मिलित होना चाहिये। यज्ञ के बाद एक दो भजन तथा उसके बाद वैदिक धर्म एवं संस्कृति की प्रमुख मान्यताओं व सिद्धान्तों पर एक रोमांचक व प्रभावशाली व्याख्यान होना चाहिये। सबको यह स्मरण करना चाहिये कि महाभारत काल तक विश्व में वैदिक धर्म ही प्रचलित था। हमारे विद्वानों के आलस्य-प्रमाद तथा धर्म प्रचार में शिथिलता के कारण ही अज्ञानरूपी मध्यकाल आया और हमारा पतन हुआ। हम विधर्मियों के दास बने और हमारे पूर्वजों पर भीषण अमानवीय अत्याचार हुए। हमें अपने सभी अन्धविश्वासों एवं मिथ्या परम्पराओं का त्याग करना है, इसका सम्पर्क हमें समय समय पर लेना चाहिये। यदि हमारे सभी बच्चों में यज्ञ एवं वैदिकधर्म की श्रेष्ठता के संस्कार पड़ेंगे तभी हमारा समाज सुधर सकता है और हमारी जाति का भविष्य संवर सकता है। सभी पर्वों पर यज्ञ किये जाने सहित वैदिक धर्म एवं संस्कृति की सर्वोच्चता पर उपदेश होना ही चाहिये जिससे सभी लोग परिचित होकर धर्म एवं संस्कृति को जाने व उसके अनुसार आचरण करें। हमने इस लेख की सामग्री आर्य वैदिक विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी की पुस्तक आर्य पर्व पद्धति से ली है। उनका सादर नमन एवं धन्यवाद करते है। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121
 


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