GMCH STORIES

“अपने देश व देशवासियों से प्रेम न करने वाला व्यक्ति सच्चा धार्मिक नहीं होता”

( Read 3024 Times)

03 Mar 21
Share |
Print This Page

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“अपने देश व देशवासियों से प्रेम न करने वाला व्यक्ति सच्चा धार्मिक नहीं होता”

ओ३म्

संसार में जितने मनुष्य हैं व अतीत में हुए हैं वह सब किसी देश विशेष में जन्में थे। उनसे पूर्व उनके माता-पिता व पूर्वज वहां रहते थे। जन्म लेने वाली सन्तान का कर्तव्य होता है कि वह अपने जन्म देने वाले माता-पिता का आदर व सत्कार करे। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव एवं आचार्य देवो भव, यह शब्द व वाक्य वैदिक विचारधारा की उच्चता व महत्ता को प्रदर्शित करते हैं। मनुष्य को जन्म देने वाली माता, उसके पिता और आचार्य देव वा देवता होते हैं। हर सन्तान व मनुष्य को इन देवों की पूजा करनी चाहिये। जो करता है वह साधु व श्रेष्ठ होता है तथा जो नहीं करता वह दुर्बुद्धि व मनुष्यता से गिरा हुआ मनुष्य कहा जा सकता है। माता-पिता तथा आचार्य का आधार हमारी जन्मभूमि व स्वदेश हुआ करता है। अतः सभी मनुष्यों को अपने माता-पिता तथा आचार्यों के मान-सम्मान सहित अपने देश व जन्मभूमि की पूजा भी करनी चाहिये। देश की पूजा से तात्पर्य देश की उन्नति व देश के अन्दर व बाहर के शत्रुओं का पराभव करने वाले सभी कार्यों को करना होता है। यदि देश का एक भी व्यक्ति देश के हितों के विरुद्ध कार्य करता है तो उसके इस पाप में देश के सज्जन पुरुष भी भागीदार होते हैं यदि वह उसका विरोध व दमन नहीं करते। देश के लोगों को दुष्ट प्रकृति के मनुष्यों का सुधार करने का कार्य करना चाहिये। यह उनका दायित्व व कर्तव्य होता है। दुष्टता व देश विरोधी कार्य करने वाले लोग अपने कृत्यों से अपने माता-पिता व आचार्यों को भी अपमानित करते हैं। वह स्वतः अपमान के योग्य हो जाते हैं। सन्तान को अच्छी शिक्षा व संस्कार देना माता-पिता व आचार्यों का काम होता है। यदि कोई व्यक्ति देश व समाज विरोधी निकृष्ट कार्यों को करता है, अपने देश के प्रति कम तथा अन्य देश वा देशों के हितों के पक्ष में काम करता है, ऐसे काम करता है जिससे अपने देश के हितों को हानि पहुंचती है, तो वह व्यक्ति निन्दनीय होता है। अपने देश के महापुरुषों को सम्मान न देना तथा विदेशी लोगों व महापुरुषों को सम्मान देना भी उचित नहीं होता। सरकार को ऐसी देश विरोधी विचारधाराओं एवं कार्यों का दमन करने के साथ उनके सुधार व दण्ड का उचित प्रबन्ध करना चाहिये। जिन देशों में देश विरोधी कार्यों के लिये कठोर दण्ड होता है वह देश उन्नति करते हैं और जहां देश विरोधी कार्य करने वाले लोगों को फलने फूलने का अवसर दिया जाता है, उस देश का पराभव होता जाता है और अन्त में वहां से सज्जन पुरुषों, सत्य विचारधारा व सनातन धर्म जैसे सिद्धान्तों व विचारों का पराभव होने की पूरी सम्भावना रहती है।

                हम कुछ लोगों को महापुरुष घोषित कर देते हैं परन्तु उनके व्यक्तित्व व कार्यों की समीक्षा नहीं करते। महापुरुष वह होता है जिसके सभी कार्यों से देश को लाभ होते हैं तथा हानि उसके किसी कार्य से नहीं होती। जिन लोगों ने सामाजिक जीवन जीया और देश विषयक बड़े बड़े निर्णय लिये, वह सब यदि पक्षपात रहित होकर लिये गये और उससे प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से लाभ मिला तो हो, वह प्रशंसनीय होते हैं। ऐसे भी लोग महापुरुष मान लिये जाते व प्रचारित किये जाते हैं जिनके अनेक निर्णयों से देश की सत्य सनातन धर्म, संस्कृति तथा उसे मानने वालों को अत्यन्त हानि होती है। हमारी दृष्टि में यदि कोई ऐसा व्यक्ति होता है तो वह कुछ अच्छे कार्यों को करने के लिये तो प्रशंसनीय हो सकता है परन्तु उसके देशवासियों के लिये जो हानिकारक निर्णय होते हैं, उस कारण से वह सब मनुष्यों व देशवासियों से सर्वांगीण रूप से प्रशंसनीय नहीं होता अतः ऐसा व्यक्तित्व महापुरुष नहीं हो सकता। हम ऋषि दयानन्द के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि हमारे देश के सभी राजनीतिक लोगों ने उनके साथ न्याय नहीं अन्याय किया है। ऋषि दयानन्द ने देश, सत्य विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों सहित सच्चे वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना व देश की उन्नति के अनेकानेक काम किये। उन्होंने किसी मनुष्य के लिये हानिकारक कोई काम नहीं किया तथापि हमारे देश के प्रमुख लोगों ने उनके योगदान का सही मूल्यांकन न करके उनका अवमूल्यन ही किया है। हमारी दृष्टि में ऋषि दयानन्द से अधिक योग्य, ज्ञानी, देश व समाज का हितकारी, देश से अन्धविश्वास, अज्ञानता तथा कुपरम्पराओं को दूर करने वाला उनके समान दूसरा कोई व्यक्ति नहीं हुआ। इतना ही नहीं उन्होंने शिक्षा, सामाजिक समानता की उन्नति पर भी ध्यान दिया। बाल विवाह, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, छुआछूत तथा ऊंच-नीच के विचारों को तर्क एवं युक्ति के आधार पर मानव मात्र के लिये उपयोगी एवं हितकारी बनाया तथा इन सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिये शास्त्रार्थ, प्रवचन, लेखन द्वारा देश इनका देश में प्रचार व प्रसार किया। उनके समय में स्त्रियों व शूद्रों को वेद पढ़ने, सुनने व बोलने का अधिकार नहीं था, वह अधिकार भी उन्होंने ही दिलाया। ऋषि दयानन्द से इतर कुछ लोगों को उनसे अधिक महत्व दिया गया जबकि उनका योगदान ऋषि से न केवल कम था अपितु ज्ञान व कर्म दोनों ही दृष्टि से वह ऋषि दयानन्द से बहुत पीछे थे। गहन चिन्तन एवं विचार कर इस विषय में सत्यासत्य का निर्णय किया जा सकता है।

                हमारी प्रचलित शिक्षा भी अनेक दृष्टियों से अपूर्ण एवं दोषपूर्ण है। इस शिक्षा से हमारे बच्चों व युवाओं का चरित्र निर्माण नहीं होता। भ्रष्टाचार करने वाले व दूसरों को सताने वाले लोग हमें मिलते हैं। शायद ही देश में कोई एक विभाग हो जहां भ्रष्टाचार व कामचोरी की शिकायतें न मिलें। ऐसी स्थिति में हमारे देश की अनेक व्यवस्थाओं में सुधार व परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव होती है। अभी तक इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। व्यवस्था परिवर्तन की बात तो यदाकदा स्वामी रामदेव व कुछ सामाजिक नेताओं के वचनों में सुनाई देती है, परन्तु हम उसी व्यवस्था में जी रहे हैं जिसमें शायद सभी दुःखी व असन्तुष्ट हैं। अपने सत्य वैदिक सिद्धान्तों को जानने का प्रयत्न ही नहीं किया है। हमारे देश के 99 प्रतिशत लोग ईश्वर व अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप से भी परिचित नहीं है। सभी भौतिकवादी जीवन व्यतीत करते हैं। सब मनुष्य अपनी मृत्यु का भी विचार नहीं करते। मृत्यु के बाद उनका क्या बनेगा, क्या वह मनुष्य बन सकेंगे या नीच योनियों में जन्म होगा, इसका विचार भी किसी समाज व समूह में होता दिखाई नहीं देता। यदा-कदा आर्यसमाज के सत्संगों व ऋषि दयानन्द एवं आर्य विद्वानों के ग्रन्थों में ही इन विषयों पर तर्क एवं युक्ति संगत विचार पढ़ने को मिलते हैं। इसी कारण देश में अनेक बुराईयां घर कर गई हैं। इनका समाधान वेद व वैदिक विचारधारा के प्रचार व आचरण से ही हो सकता है परन्तु देश इस विषय में विचार करना उचित नहीं समझता। यह आज के समय का सबसे बड़ा आश्चर्य है।

                धार्मिक उस मनुष्य को कहते हैं जो धर्म को जानता व उसका पालन करता है। अग्नि का धर्म गर्मी देना तथा पदार्थों को जलाना है। वह यही काम करती है और इससे लोगों को लाभ होता है। वायु का काम भी मनुष्य आदि प्राणियों को श्वसन क्रिया को जारी रखने में सहयोग करना तथा शरीर में प्रवाहित होने वाले रक्त को स्वच्छ व शुद्ध करना व रखना होता है। इसी प्रकार से पृथिवी भी अपने धर्म अर्थात् सत्य नियमों का पालन करती है। उसी से हमें अन्न, ओषधियां, फल, मेवे, वस्त्र बनाने की सामग्री सहित आवास एवं सुख की सभी सामग्री प्राप्त होती है। इसी प्रकार परमात्मा ने मनुष्य को सद्कर्म करने, ईश्वर व आत्मा को जानने तथा सत्य विधि जो कि वैदिक, दर्शन एवं उपनिषदों आदि के ज्ञान के अनुकूल हो उस विधि से उपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिये उत्पन्न किया है। मनुष्य यदि ज्ञान प्राप्ति व विवेक पूर्वक यह सब काम करता है तथा विद्वानों से चर्चा व शंका समाधान कर सर्वसम्मत हल निकाल कर उनका पालन करता है तब वह धार्मिक होता है। मत व धर्म में बहुत बड़ा अन्तर है। मत उसे कहते हैं जो कोई मनुष्य ने इतिहास के किसी काल खण्ड में आरम्भ किया होता है। इन मतों में अविद्या का समावेश होता है क्योंकि सभी मनुष्य, आचार्य व विद्वान भी अल्पज्ञ ही होते हैं। हमारे अनेक पुराने वैज्ञानिकों ने विज्ञान के अनेक सिद्धान्त दिये जिन्हें बाद के वैज्ञानिक ने सतत अनुसंधान कर संशोधित व अद्यतन किया। धर्म में भी ऐसा होना चाहिये परन्तु कोई ऐसा करता नहीं है। सब मतों के अपने-अपने गुप्त हित व स्वार्थ भी होते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने समय में इस ओर ध्यान दिलाया था और इस आशय की पूर्ति के लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रंथ लिखा था। इस ग्रन्थ का अध्ययन कर मनुष्य सत्य-मत व सत्य-धर्म को प्राप्त होकर स्वयं सुखी होता है तथा संसार में सभी प्राणियों को सुख प्राप्त कराता है। वैदिक काल में वेदों के प्रचार व ऋषियों की उपस्थिति में अज्ञान, अन्धविश्वास तथा कुरीतियांे आदि के प्रचलित न होने तथा विश्व में एक धर्म वा मत होने से सभी लोग वर्तमान की अधिकांश समस्याओं से मुक्त थे। मनुष्य के स्वभाव में लोभ व मोह भी विद्यमान होता है। सबसे अधिक पाप लोभ व मोह ही कराते हंै। यदि सत्यासत्य का विचार किये बिना लोभ की पूर्ति के लिये संगठित व सामूहिक रूप से प्रयत्न होता है तो इससे सामान्य लोगों को पीड़ा एवं दुःख पहुंचता है। अतः सभी मतों व विचारधाराओं की मान्यताओं से मनुष्यता विरोधी सभी बातों का सुधार किया जाना चाहिये। यदि किसी को कोई शिकायत हो तो उसे एकमात्र न्यायालय की शरण में ही जाना चाहिये। धरना, प्रदर्शन, आगजनी आदि की अनुमति नहीं होनी चाहिये। इससे अनुशासन प्रिय लोगों को असुविधा व कष्ट होता है जो कि उचित नहीं है। ऐसे लोगों के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये। संगठित होकर अन्य लोगों के लिये समस्यायें उत्पन्न करना धर्म नहीं होता। इस पर विचार किये जाते रहना आवश्यक है।

                हम विचार करते हैं तो यह निष्कर्ष निकलता है धर्म एवं देश दोनों एक दूसरे के पूरक है। जो व्यक्ति जिस देश में उत्पन्न होता है और उसका अन्न, जल, निवास, व्यवसाय आदि सुविधा को प्राप्त करता है उसे अपने देश, समाज तथा उसकी प्राचीन सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों सहित परम्पराओं का पालन करना ही चाहिये। जो नहीं करता उसके लिये सभ्य व विद्वतजनों को विचार कर नियम आदि बनाने चाहिये। देश की उन्नति तभी हो सकती है जब कि सभी लोग देश भक्त हों और देशभक्ति को सभी मतों व सम्प्रदायों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त हो। भारत को चाहिये कि वह रूस, चीन, अमेरिका, फ्रांस एवं इजराइल आदि देशों के इस विषयक नियमों का अध्ययन कर उनकी उचित बातों का अनुकरण व अनुसरण अपने यहां करे। ऐसा करने पर ही भारत इक्कीसवीं सदी का आधुनिक देश बन सकेगा जहां किसी से पक्षपात नहीं होगा और कोई हिंसा व अन्याय का शिकार नहीं होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 9412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like