GMCH STORIES

“हमारा सर्वव्यापक ईश्वर परम दयालु एवं परोपकारी सत्ता है”

( Read 6595 Times)

30 Nov 20
Share |
Print This Page
“हमारा सर्वव्यापक ईश्वर परम दयालु एवं परोपकारी सत्ता है”

ओ३म्

अधिकांश लोग ईश्वर की सत्ता को तो मानते हैं परन्तु उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा उसके गुण, कर्म व स्वभाव का पर्याप्त ज्ञान नहीं है। ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान वेद और वेदों पर आधारित ऋषियों के ग्रन्थ उपनिषद एवं दर्शन सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों से भी प्राप्त होता है। वैदिक विद्वानों ने विगत लगभग 150 वर्षों में वेदों पर अनेक उत्तम ग्रन्थ लिखे हैं, इनसे भी ईश्वर का सत्यस्वरूप एवं गुण, कर्म तथा स्वभाव का ज्ञान होता है। वेदाध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर एक महान सत्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, प्रवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर ही असंख्य व अनन्त जीवों के जीवन का आधार है। वह जीवों को उनके जन्म जन्मान्तर के भोग करने से बचे हुए कर्मों का फल देने के लिए ही सृष्टि की उत्पत्ति कर उन्हें कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म देते हंै। हमें जो सुख मिलता है वह हमारे धर्म के कार्यों के कारण तथा जो दुःख मिलता है वह अज्ञानतायुक्त अधर्म व पाप आदि कर्मों के कारण से मिलता है। कर्म फल व्यवस्था पूर्णतया ईश्वर के अधीन है। ईश्वर की व्यवस्था ऐसी है कि हम अपने प्रत्येक कर्म का फल भोगते हैं। हमारा कोई कर्म बिना उसका फल होगे क्षीण व नष्ट नहीं होता है। अतः हमें बहुत ही सोच व समझ कर अपना समय व्यतीत करना चाहिये और कर्मों को करना चाहिये। ऋषि दयानन्द वेदों के उच्च कोटि के विद्वान व ऋषि थे। उनका वेदों के आधार पर दिया हुआ नियम है कि मनुष्य को अपना प्रत्येक कार्य सत्य व असत्य का विचार कर करना चाहिये। यदि कार्य सत्य के अनुरूप हो तो करणीय होता है और यदि हमारी इच्छा में सत्य के स्थान पर असत्यता हो तो उसका न करना ही उचित होता है अन्यथा हमें उस कर्म के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से दुःख रूपी फल भोगना पड़ता है। इसी कारण हम वेद के विद्वानों को सत्कर्मों को ही करते हुए देखते हैं। वह प्रतिदिन लम्बी अवधि तक ईश्वर उपासना सहित यज्ञ आदि कार्यों को भी करते हैं। वह पुरुषार्थी होते हैं। उनके जीवन में परोपकार के कार्योे की मात्रा अन्य मनुष्यों से अधिक होती है। यदि किसी मनुष्य के जीवन में श्रेष्ठकर्म और परहित के कार्य न हों तो वह वेदानुयायी व विद्वान नहीं कहा जा सकता। वेद मनुष्य को सत्य बोलने तथा सत्य कर्म अर्थात् धर्म का आचरण करने की ही शिक्षा देते हैं। ऐसा करने से ही मनुष्य जीवन की उन्नति और इसके विपरीत आचरण करने से अवनति व दुःखों की प्राप्ति होती है।

                परमात्मा का सत्यस्वरूप जानकर हमें उसके उपकारों का भी चिन्तन करना चाहिये। परमात्मा ने हम जैसे असंख्य जीवों के लिए ही इस सृष्टि को बनाया है जिससे हम अपने कर्मों के अनुसार सुख आदि का भोग कर सकें। अनादि काल से यह व्यवस्था चल रही है जिसका पालन व पोषण अथवा क्रियान्वयन परमात्मा द्वारा किया जा रहा है। परमात्मा यह श्रम व तप अपने किसी निजी प्रयोजन जीवों द्वारा प्रशंसा, भक्ति व उपासना के लिये नहीं करते अपितु सत्य-चित्त, अल्पज्ञ, एकदेशी, अनादि, नित्य व नाशरहित जीवों के हित व उपकार सहित सुखादि के लिए करते हैं। अनादि काल से वह ऐसा कर रहे हैं। हमें जीवन में जो सुख प्राप्त हुआ है, पूर्वजन्मों तथा परजन्मों सहित वह सब सुख हमें ईश्वर के द्वारा व उसकी व्यवस्था से ही प्राप्त होते हैं। हमारा एक के बाद दूसरा जन्म होता जाता है। हमारी आत्मा को शरीर से संयुक्त करना व अवधि पूरी होने पर शरीर से निकालना तथा फिर हमें नया शरीर प्रदान करना ईश्वर का एक महान कार्य है जिसे अन्य कोई भी नहीं कर सकता। यह उपकार ऐसा है कि जो हमारे शारीरिक संबंध के माता-पिताओं के त्याग व तप की दृष्टि से भी अधिक व महत्वपूर्ण है। माता पिता में सन्तान के प्रति जो आकर्षण, प्रेम, स्नेह, ममता तथा त्याग आदि की भावनायें होती हैं वह भी परमात्मा ने ही अपनी व्यवस्था व नियमों से प्रदान की हुई हैं। अतः परमात्मा के इन महान कार्यों वा जीवों को सुख प्रदान करने की भावना व उसे क्रियान्वित रूप देने के लिये हम सबको उसका कृतज्ञ होना चाहिये। हमारे लिए उसने इस विशाल ब्रह्माण्ड को बनाया व इसका संचालन कर रहा है। हमें कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म देता व हमारा पालन करते हुए हमें शैशव से बाल, युवा व वृद्धावस्था प्रदान करना और शरीर के जर्जरित होने पर मृत्यु के द्वारा कर्मानुसार उत्तम व श्रेष्ठ जिसके भी हम पात्र होते है, उस प्राणी योनि में जन्म देने से वह महान दयालु व परोपकारी सिद्ध होता है। हमें भी उसके गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप का चिन्तन कर स्वयं को भी उसके अनुरूप बनाना चाहिये। इसी से हमारा कल्याण हो सकता है।

                मनुष्य का मुख्य कर्तव्य ही ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर अपने जीवन को भी उसके अनुरूप बनाने का प्रयत्न करना होता है। सत्य का पालन व धारण करना ही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म होता है। परमात्मा ने सृष्टि की आदि में सृष्टि को उत्पन्न कर अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को वेदों का ज्ञान दिया था। इस ज्ञान के आधार पर ही हमें जीवनयापन करना होता है। हमारे प्राचीन पूर्वज व सभी ऋषि मुनि भी ऐसा ही करते थे और वेदों का ही प्रचार कर सभी मनुष्यों से वैदिक धर्म का पालन कराते थे जिससे सभी को सुख प्राप्त होता था। आज भी सुखी जीवन का आधार सत्य कर्म व सत्याचरण ही है। परमात्मा की व्यवस्था ही ऐसी है कि सत्याचरण करने वालों को सुख तथा इसके विपरीत आचरण करने वालों को दुःख प्राप्त होता है। सत्याचरण को करते हुए सभी मनुष्यों को ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा उसके उपकारों को जानकर उसकी उपासना भी करनी चाहिये। उपासना करना ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना होता है। इस कर्तव्य की पूर्ति के साथ उपासना से अन्य अनेक लाभ भी होते हैं।

                उपासना से मनुष्य का अहंकार दूर होता है तथा उसके गुण, कर्म व स्वभाव में सुधार होता है। ईश्वर के सत्यस्वरूप का चिन्तन कर मनुष्य को सत्य कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है और इसके साथ असत्य व पाप कर्मों का त्याग हो जाता है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य में ज्ञान की वृद्धि भी होती है। इसका कारण ईश्वर का ज्ञानस्वरूप होना है। जब हम उपासना करते हुए ज्ञानस्वरूप ईश्वर की संगति करते हैं तो इससे हमारे ज्ञान में स्वतः ही वृद्धि होती जाती है। उपासना करते हुए मनुष्य की आत्मा व मन में नये नये पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं। इन विचारों को ग्रहण व धारण करने की प्रेरणा व शक्ति भी उपासना से मिलती है। अतः उपासना करने से मनुष्य एक सात्विक प्रवृत्ति का साधु पुरुष बन जाता है। ऐसा मनुष्य जीवन में जो भी आध्यात्मिक व सांसारिक कार्य करता है, उसमें उसे सफलता प्राप्त होती है। स्वाध्याय व उपासना के मार्ग पर चलने से मनुष्य का जीवन व परजन्म भी उन्नत व सफल होता है। यदि हम इस जीवन में सत्य पर आधारित उत्तम कर्मों व व्यवहारों सहित वेद निर्दिष्ट पंच महायज्ञों को करेंगे तो निश्चय ही हमारा परजन्म व पुनर्जन्म उत्तम परिवेश जहां ज्ञान प्राप्ति व उत्तम कर्मों को करने की सुविधा होगी, प्राप्त होगा। हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि हम इस जीवन में कर्म के बन्धन में पड़े हैं और इससे हमें छूटना है। इसका उपाय वैदिक जीवन पद्धति को अपनाना व उसके अनुसार अपने कर्तव्य व कर्मों को करना है। ऐसा करते हुए ही हमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होगी। मोक्ष ईश्वर की उपासना करते हुए उसका साक्षात्कार होने पर होता है। ईश्वर साक्षात्कार का उपाय व साधन उपासना ही है। मोक्ष प्राप्ति होने पर ही आत्मा की जीवन यात्रा को विश्राम मिलता है। इसी लिये हमारे पूर्वज व सभी ऋषि मुनि प्रयासरत रहते थे। इसी के लिये वह धर्म पालन, उपासना व ईश्वर साक्षात्कार करते थे। बन्धन व मोक्ष विषय को विस्तार से जानने के लिये हमें सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम् समुल्लास का अध्ययन करना चाहिये जहां इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। सत्यार्थप्रकाश के इस अध्याय में मोक्ष की आवश्यकता तथा मोक्ष प्राप्ति से जीव को परमसुख की प्राप्ति का तर्क एवं युक्तिसंगत वैदिक मान्यताओं के अनुरूप वर्णन भी किया गया है।

                इस संसार का स्वामी ईश्वर है। उसने अपने किसी निजी प्रयोजन के लिये नहीं अपितु जीवों के हित व सुख के लिये ही इस संसार को बनाया है व इसे संचालित कर रहा है। जीवों को सुख देने और उसके लिये हर क्षण सृष्टि का संचालन करने की दृष्टि से वह परम दयालु सिद्ध होते हैं। हमारी यह सृष्टि 1 अरब 96 करोड़ वर्षों से अधिक समय पूर्व बनी थी। तब से अब तक व आगे भी ईश्वर बिना विश्राम किये इस सृष्टि के संचालन व पालन का कार्य कर रहे हैं व करेंगे। यह सब कार्य वह हमारे व हमारे समान अनन्त जीवों को सुख देने के लिये कर रहे हैं। इस कारण से वह परम दयालु व परम कृपालु सिद्ध होते हैं। उनका यह कार्य परोपकार का सर्वोत्तम उदाहरण हैं। परमात्मा हमारे माता, पिता, आचार्य, गुरु, उपास्य, साध्य व स्वामी भी हैं। जब वह परम परोपकारी हैं तो हमें भी उनके ही जैसा होना चाहिये। ऐसा होने पर ही हम अपने पिता व मित्र ईश्वर का यश बढ़ा सकते हैं। यदि हम उनकी गरिमा के विपरीत कोई बुरा काम करते हैं तो इससे हम ईश्वर को भी लांछित करते हैं। ऐसा हम इसलिये कह रहे हैं कि लोक में किसी व्यक्ति द्वारा बुरा काम करने पर उसके माता, पिता व स्वामी को भी बुरा कहा व माना जाता है। अतः हमें ईश्वर की महानता व दयालुता को ध्यान में रखते हुए सत्कर्मों को करते हुए उसके यश को स्थिर रखना चाहिये। यथासम्भव उसके गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार ही काम करने चाहियें। यह निश्चय है कि हमारा परमेश्वर परम दयालु है व परोपकार की अतुलनीय उपमा है। उसको सादर नमन है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like