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‘पांच मिनट की सन्ध्या पर प्रवर आर्य विद्वान पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का उपदेश’

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19 Feb 18
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
ऋषि दयानन्द ने मनुष्य के प्रमुख कर्तव्य के रूप में प्रातः व सायं सन्ध्या का विधान किया है और इसकी विधि भी ‘पंचमहायज्ञ विधि’ एवं ‘संस्कारविधि’ में दी है। ऋषि दयानन्द कृत सन्ध्या में 21 मन्त्र व शास्त्रीय वचन बोले जाते हैं। ऋषि ने इनके अर्थ भी पंचमहायज्ञ विधि में दिये हैं। सन्ध्या को प्रातः व सायं न्यूनतम् एक घंटा करने का विधान है। सन्ध्या का तात्पर्य प्रातः व सायं शौच आदि से निवृत वा बाह्य शुद्धि करके होकर मन को ईश्वर में स्थिर करना व उसके गुण, कर्म व स्वभाव का ध्यान व चिन्तन करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना है। अधिकांश लोग सन्ध्या में केवल मन्त्र पाठ ही करते हैं। सन्ध्या करने वाले अधिकांश बन्धुओं को सन्ध्या के मन्त्रों के पूरे अर्थ भी विदित नहीं होते। उनका मन भी सन्ध्या में भली प्रकार से लगता नहीं है फिर भी वह मन्त्रों का पाठ कर एक प्रकार की खाना पूर्ति करते हैं। आर्यसमाज के प्रवर विद्वान पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ने सन्ध्या से जुड़ी साधकों की समस्याओं पर विचार किया और अपनी पुस्तक सन्ध्योपासना विधि की भूमिका में पांच मिनट में सम्पन्न की जाने वाली सन्ध्या के मन्त्रों के अति संक्षिप्त अर्थों को प्रस्तुत किया है। उनका यह लेख ही हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे ऋषि भक्त विद्वान एवं धर्म प्रेमी बन्धु इस पर एक दृष्टि डाल सकें।
पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ‘‘पांच मिनट में सन्ध्या के अर्थ” शीर्षक से सन्ध्योपासना विधि की भूमिका में लिखते हैं कि ‘मन्त्रों के अर्थ समझे बिना सन्ध्या करने से वह लाभ और आनन्द कभी प्राप्त नहीं हो सकता, जो होना चाहिये। वेदमन्त्रों का अर्थ समझना सरल काम नहीं। सन्ध्या-भक्ति-भजन उपासना का अर्थ है--अपनी भूलों कमियों का अनुभव करना, और उन्हें दूर करने का उपाय करना। जब समझा ही नहीं कि हम प्रभु से क्या कह रहे हैं, तब मिले भी क्या? इसके लिए हम 5 मिनट में समझने योग्य सन्ध्या के अर्थ यहां लिख रहे हैं। सरल ढंग यह है कि उन-उन मन्त्रों के मन में उच्चारण के पश्चात् मन में ही इन अर्थों को बोल लेना चाहिये। जब अभ्यास हो जाये तो बोलना बन्द करके मन्त्र के अर्थ को मन में ही विचारते चलना चाहिये। एक-एक मन्त्र के अर्थ को विचारने में यदि अधिक समय चाहें तो लगा सकते हैं। यह व्यक्तिगत सन्ध्या का स्वरूप वा प्रकार है। सामूहिक सन्ध्या में तो केवल मन्त्र ही बोले जा सकते हैं।
सो हम यहां सन्ध्या के अर्थ इस प्रकार लिखते हैं, जो बिना किसी विशेष कठिनाई के समझ में आ जाते हैं, और मन में बैठ जाते हैं। जिन पर विचार करना भी आसान है, और जिन पर विचार करने से आत्मा में ऊंची प्रेरणा भी साथ-साथ मिलती जाती है। वे अर्थ इस प्रकार हैं--
1- हे प्रभो ! हमारी बुद्धि अच्छे मार्ग में चले (धियो यो नः प्रयोदयात्)। (गायत्री मन्त्र)

2- हे प्रभो ! हमारा वातावरण प्वित्र हो (हम ऐसे वातावरण में रहें, जो पवित्र हो)। यदि वह अपवित्र हो तो हम उसे पवित्र बनावें। यदि ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो, तो हम ऐसे वातावरण को छोड़ दें। (शंयोरभि स्रवन्तु०)

3- हमारी इन्द्रियां बलवान् हों। (अपवित्र विषयों में न जावें, हमारे वश में रहें)। (वाक् वाक् चक्षुः चक्षु०)

4- हमारी इन्द्रियां पवित्र हों। (भूः पुनातु शिरसि०)

5- प्रभु आप महान् हो। (ओं भूः ओं भुवः०)

6-7-9 हे प्रभु ! हम आपकी व्यवस्था (सृष्टि-नियम) के विरुद्ध न चलें। सृष्टि के ये अद्भुत नियम आपने ही बनाये हैं। (अघमर्षण के तीनों मन्त्र)

9-14 अरे मूर्ख मन ! व्यर्थ में पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण ऊपर नीचे क्यों भटकता फिरता है। प्रभु तो तेरे भीतर हैं। (मनसा परिक्रमा के 6 मन्त्र)

15-17 बच्चा माता की गोद में निर्भय रहता है। हे प्रभो ! हम तेरी गोद (आश्रय) में अपने को निर्भय अनुभव करें। (उपस्थान के तीन मन्त्र)

18- हे प्रभो ! हम अपना समय नष्ट न करें, उसका मूल्य समझें। (तच्चक्षु ........ पश्येम शरदः शतं०)

19- हमारी बुद्धियों को सुमार्ग में चलने की प्रेरणा दो। (गायत्री मन्त्र)

20- हे प्रभो ! हमारे नित्यकर्मादि आपके अर्पण हैं। इनसे हममें अभिमान पैदा न हो। (समर्पणम्)

21- हे प्रभो ! आपको हमारा बारम्बार नमस्कार हो। (नमस्कार मन्त्र)

आरम्भ में सन्ध्या करते समय हर एक मन्त्र से आगे उसका अर्थ भी मन में धीरे-धीरे बोल लेना चाहिये। मास दो मास में जब अभ्यास हो जावे, तो फिर मन्त्र बोलते-बोलते उनका भावार्थ भी विचारते चलना चाहिये। इससे सन्ध्या करते समय मन में प्रेरणा उत्पन्न होने लगेगी। यही सन्ध्या का प्रयोजन है।

छः मास या एक वर्ष में ऐसा अभ्यास हो जावेगा। ऋषि दयानन्दकृत ‘सन्ध्योपासनाविधि’ में एक-एक शब्द के पृथक्-पृथक अर्थ (जो ‘पंचमहायज्ञविधि’ के आरम्भ में छपे हैं) उन पर अभ्यास करना चाहिये, और इस ‘सन्ध्योपासनविधि’ पर पूरा-पूरा अभ्यास कर लेना चाहिये। इसमें अभ्यास हो जाने पर सन्ध्या करते समय ही किसी-किसी मन्त्र पर तो योगाभ्यास की रीति से चिन्तन किया जा सकता है। इसमें घण्टों भी लग सकते हैं।’
इसके बाद पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ने सन्ध्या का सार भी दिया है। इसे हम पृथक से प्रस्तुत करेंगे।
यहां यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द जी के बाद पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी (जन्म 14 अक्तूबर 1892 ईसवी तथा मृत्यु 22 दिसम्बर, 1964 ईसवी) अष्टाध्यायी-महाभाष्य व्याकरण के उच्च कोटि के विद्वान एवं प्रचारक हुए हैं। आपने आर्यजगत् को उच्च कोटि के अनेक विद्वान दिये हैं। पं. युधिष्ठिर मीमांसक, आचार्य भद्रसेन, आचार्य सुद्युम्नाचार्य, आचार्या प्रज्ञा देवी, आचार्या मेधादेवी आदि आपके ही शिष्य शिष्यायें थीं। पंडित जी संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान के रूप में भारत के राष्ट्रपति जी से भी सम्मानित थे। आपने विपुल वैदिक साहित्य की रचना की है। यजुर्वेद भाष्य विवरण के अतिरिक्त इनके सभी ग्रन्थों को पंडित युधिष्ठिर मीमांसक जी ने ग्रन्थावली के रूप में ‘जिज्ञासु-रचना-मंजरी’ नाम से दो खण्डों में प्रकाशित किया है। यजुर्वेदभाष्य विवरण में आपने जो विस्तृत भूमिका दी है उसे ग्रन्थावली के प्रथम भाग में सम्मिलित किया गया है। यह विस्तृत भूमिका आर्यजगत् के प्रत्येक स्वाध्यायशील बन्धु के लिए पठनीय है। यह ग्रन्थावली जिज्ञासु जी के जन्म के एक सौ एक वर्ष पूरे होने पर सितम्बर, 1983 में प्रकाशित की गई थी। ग्रन्थावली रामलाल कपूर ट्रस्ट, रेवली से प्राप्त की जा सकती है। वैदिक साहित्य के सभी प्रेमियों को इस ग्रन्थावली का अध्ययन करना चाहिये। इससे उनके ज्ञान में पर्याप्त वृद्धि होगी, ऐसा हमारा अनुमान है। पंडित जी ने ग्रन्थावली के प्रथम खण्ड में आचार्य पाणिनी का महत्व नाम से एक निबन्ध भी प्रस्तुत किया है। पाणिनी के विषय में वह लिखते हैं ‘आचार्य पाणिनि केवल शब्दशास्त्र के ही ऋषि (साक्षात्कृतधर्मा) नहीं थे, अपितु सम्पूर्ण लौकिक वैदिक वांड्मय में अव्याहतगति थे, ऐसा सभी का मत है। वैदिक वांड्मय सम्बन्धी विद्वता का निर्देश तो उनकी बनाई अष्टाध्यायी के सूत्रों में जहां-तहां मिलता ही है, किन्तु ये भूगोल-इतिहास-मुद्राशास्त्र तथा लोकव्यवहार के भी महाविद्वान थे, ऐसा पाणिनि शास्त्र के अवगाहन से प्रतीत होता है। उनका शब्द-शास्त्र न केवल व्याकरण का ही प्रतिपादन करता है, अपितु भूगोल इतिहास आदि विषयों के ज्ञान के लिये भी इनके शास्त्र की अद्भुत महिमा एवं महान् उपयोगिता है, ऐसा विद्वान् लोग अनुभव करते हैं।’
हम आशा करते हैं पाठको को यह जानकारी लाभप्रद प्रतीत होगी। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
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