उदयपुर। अशोक नगर स्थित श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर में बिराजित आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने प्रात:कालीन धर्मसभा में कहा कि व्यक्ति अपने कर्मों से महान बनता है। महानता कोई वसीयत में नहीं मिलती है। ऐसे ही युग श्रेष्ठ महान तपस्वी सम्राट थे आचार्यश्री अदिसागर अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश तपस्वी सम्राट आचार्यश्री सन्मतिसागरजी महाराज। आप अपनी कठोर तपस्या के कारण महान कहलाये। पौष कृष्ण चौथ उनका तिथि अनुसार समाधि दिवस है। आज से आठ वर्ष पूर्व 24 दिसम्बर 2010 पौष कृष्णा चौथ को ही महाराष्ट्र के कोल्हापुर नगर में उन्होंने अपना देह विसर्जन किया। उनका पूरा जीवन ही त्याग और तपस्या से युक्त था।
आचार्यश्री ने कहा कि वो तपस्वी सम्राट के नाम से जाने जाते थे। आपने 18 वर्ष की आयु में ही ब्रह्मचर्य व्रत का ग्रहण किया। इसके तुरन्त बाद ही आजीवन नमक का त्याग का व्रत ले लिया। जीवन में 35 साल की उम्र में अन्न का भी त्याग कर दिया और अन्तिम 20 साल में तो केवल म_ा पानी ही लिया। इसके बावजूद भी वे लम्बे उपवास की साधना करते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में 10000 से भी अधिक निर्जल उपवास किये। वह कठोर तपस्वी के साथ ही महासानी भी थे। उन्होंने कभी चटाई आदि का घोर ठण्डी के मौसम में भी प्रयोग नहीं किया। अत्यन्त निष्परिग्रह व्रति के धारी थे वे। लोग कहते हैं कि उन्हें वचन की सिद्धि थी। एक बार किसी को कुछ कह दे या आशीर्वाद दे दे तो उसका काम होकर ही रहता था।
अध्यक्ष रोशन चित्तौड़ा एवं व्यवस्थापक अजीत मानावत ने बताया कि अशोक नगर में बुधवार को आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ससंघ (52 पिच्छी) के पावन सानिध्य में युग श्रेष्ठ महान तपस्वी सम्राट थे आचार्यश्री अदिसागर अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश तपस्वी सम्राट आचार्यश्री सन्मतिसागरजी महाराज का समाधि दिवस मनाया। समिति के अशोक गोधा गजेन्द्र मेहता ने बताया कि इसी के अन्तर्गत प्रात: 9 बजे से श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर में पंचामृत अभिषेक हुआ। उसके बाद सन्मति सागर मण्डल विधान हुआ। ऐसे धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होने के बाद विनयांजलि सभा हुई।
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