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संसद में तकरार नहीं, संवाद होना चाहिए

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09 Feb 18
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संसद में तकरार नहीं, संवाद होना चाहिए ललित गर्ग
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक राष्ट्रीय यौद्धा का आक्रामक स्वरूप राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन पर संसद में हुई चर्चा के दौरान देखने को मिला। अक्सर उनके इस तरह के आक्रामक एवं जोशीले स्वर चुनावी सभाओं में होने वाले भाषणों में सुनते और देखते मिलते रहे हैं, पहली बार उनका संसद के पटल पर ऐसा संवेदनशील एवं जीवंत स्वरूप देखने को मिला, जिसमें उन्होंने विपक्ष विशेषतः कांग्रेस के आरोपों का तथ्यपरक जबाव दिया। शायद यह भारत के संसदीय इतिहास का पहला अवसर है जब कांग्रेस को न केवल नेहरु-गांधी परिवार को लेकर तीखे प्रहार झेलने पडे बल्कि कांग्रेस के़ शासन की विफलताओं के इतिहास से भी रू-ब-रू होना पड़ा। उसने जिस तरह की अलोकतांत्रिक स्थिति खड़ी की और इस स्थिति को भारतीय लोकतंत्र के लिये किसी भी कोण से उचित नहीं कहा जा सकता। संसद में तकरार नहीं,संवाद होना चाहिए।
सिर्फ विरोध के लिये विरोध करना लोकतंत्र के लिये युक्तिसंगत नहीं है। संसद भारत के सवा सौ करोड़ लोगों की आवाज को स्वर देने का मंच है, जहां का प्रतिक्षण न केवल मूल्यवान है बल्कि इस मूल्यवान समय को अपनी प्रतिभा से चुने हुए प्रतिनिधि नया आयाम देते हैं, भारत के विकास का आगे बढ़ाते हैं। जब-जब इस सर्वोच्च मंच पर राजनीति करने के प्रयास हुए, तब-तब भारतीय लोकतंत्र न केवल शर्मसार हुआ बल्कि उसके उज्ज्वल अस्तित्व पर दाग भी लगे हैं। इसलिये संसद के पटल पर बहस को शालीन एवं संयमित किये जाने की अपेक्षा की जाती है। अक्सर ऐसा होता रहा है जब यहां होने वाली कार्रवाई एवं बहस में राजनीति कहीं दूर पीछे छूट जाती है और दोनों ही सदनों में सिर्फ मजबूत और पुख्ता तथ्यों के आधार पर शालीन तरीकों से सत्ता और विपक्ष एक-दूसरे को घेरते हैं, स्वस्थ चर्चा करते हैं और देश के विकास के मुद्दों को जगह देते हैं। संसद में इस तरह का सकारात्मक वातावरण बनने की जगह यदि किसी चुनावी सभा का वातावरण बन जाता है तो हमें सोचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा कि हम उस लोकतन्त्र को लज्जित कर रहे हैं जिसने हमें इन महान सदनों में बैठने के काबिल बनाया है। बुधवार को जैसे असंसदीय माहौल में प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन देने को विवश होना पड़ा, वैसा अवसर दुबारा संसद के इतिहास में न आये, इस पर चिन्तन जरूरी है।
आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह- ऐसे लोग गिनती के मिलेंगे जो इन तीनों स्थितियांे से बाहर निकलकर जी रहे हैं। पर जब हम आज राष्ट्र की राजनीति संचालन में लगे अगुओं को देखते हैं तो किसी को इनसे मुक्त नहीं पाते। कोई गांधी, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, मौलाना आज़ाद, विधानचन्द राय, राधाकृष्णन नहीं है। तब ऐसे लोगों की एक लंबी पंक्ति थी। आजादी के बाद सात दशक बीत चुके हैं, पर साफ चरित्र जन्म नहीं ले सका, लोकतंत्र को हांकने के लिये हम प्रशिक्षित नहीं हो पाये हैं। उसका बीजवपन नहीं हुआ या खाद-पानी का सिंचन नहीं हुआ। आज आग्रह पल रहे हैं-पूर्वाग्रहित के बिना कोई विचार अभिव्यक्ति नहीं और कभी निजी और कभी दल स्वार्थ के लिए दुराग्रही हो जाते हैं। कल्पना सभी रामराज्य की करते हैं पर रचा रहे हैं महाभारत। महाभारत भी ऐसा जहां न श्रीकृष्ण है, न युधिष्ठिर और न अर्जुन। न भीष्म पितामह हैं, न कर्ण। सब धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि बने हुए हैं। न गीता सुनाने वाला है, न सुनने वाला।
विपक्ष और खासकर कांग्रेस के प्रति प्रधानमंत्री के तीखे तेवरों से यह भी साफ हो गया कि अगर विपक्षी दल अनावश्यक आक्रामकता का परिचय देंगे तो सरकार उन्हें उसी की भाषा में जवाब देगी। इसके चलते अब संसद के शेष सत्र के दौरान कहीं अधिक शोर-शराबा होने और साथ ही आगामी सत्रों में भी हंगामा होते रहने की संभावनाएं प्रबल हैं। ऐसा होने का सीधा मतलब है कि संसद में विधायी कामकाज कम, हल्ला-गुल्ला ज्यादा होगा। कायदे से इस अप्रिय स्थिति से बचा जाना चाहिए, लेकिन ताली तो दोनों हाथ से बजती है। यह सत्तापक्ष की जिम्मेदारी है कि संसद चले, लेकिन अगर विपक्ष उसे न चलने देने पर अड़ जाए तो फिर कोई कुछ नहीं कर सकता। जब विपक्ष संसद की कार्यवाही बाधित करने पर आमादा हो तो फिर हंगामा करने वाले सांसदों के खिलाफ सख्ती भी काम नहीं आती, क्योंकि तब वे खुद को सताए जाने का रोना रोने लगते हैं। विचार और मत अभिव्यक्ति के लिए देश का सर्वाेच्च मंच भारतीय संसद में भी आग्रह-दुराग्रह से ग्रसित होकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की ही बातें होती रहे तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही हैं। दायित्व की गरिमा और गंभीरता समाप्त हो गई है। राष्ट्रीय समस्याएं और विकास के लिए खुले दिमाग से सोच की परम्परा बन ही नहीं रही है। निःसंदेह कम ही होता है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा का जवाब देने के लिए खड़े हों तो विपक्ष नारेबाजी पर उतर आए। दुर्भाग्य से गत बुधवार को ऐसा ही हुआ और वह भी दोनों सदनों में। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि विपक्षी दल पहले से इस तैयारी में थे कि बजट के बाद संसद को न चलने देने के जतन करना है। जब मानसिकता दुराग्रहित है तो ”दुष्प्रचार“ ही होता है। कोई आदर्श संदेश राष्ट्र को नहीं दिया जा सकता।
राफेल विमान सौदे को लेकर कांग्रेस की आपत्ति यही बता रही है कि वह महज सवाल करने के लिए सवाल कर रही है। मंशा यह भी सामने आ रही है कि संसद की कार्रवाई को येन-केन-प्रकारेण बाधित करना। अगर कांग्रेस को लगता है कि लड़ाकू विमानों के इस सौदे में कोई गड़बड़ी हुई है तो फिर वह इसके कुछ प्रमाण क्यों नहीं सार्वजनिक करती? कांग्रेस को सरकार की घेरेबंदी करने के लिए ऐसे सवाल करने से बचना चाहिए जिनके लिए वह खुद भी जवाबदेह है। आखिर सत्ता में रहते समय चुनिंदा उद्यमियों को बैंकों से बड़े-बड़े लोन दिलाने वाली कांग्रेस एनपीए पर मोदी सरकार को घेरने का काम कैसे कर सकती है? जिनके घर शीशे के बने होते हैं वे दूसरों पर पत्थर नहीं फैंका करते।
संसद के पटल पर कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा और कभी अन्य दल की सरकारें काबिज हो सकती है। मगर इससे लोकतन्त्र के मूल स्वभाव और चरित्र पर कोई अन्तर नहीं पड़ना चाहिए, अतः विपक्षी पार्टी कांग्रेस को पूरा अधिकार है कि वह सरकार से बुनियादी स्थितियों के बारे में पूछ, सरकार के किये वायदों के अधूरे रहने पर भी प्रश्न करें, भ्रष्टाचार समाप्त करने और शासन में पारदर्शिता लाने से जुड़े सवाल हो, कश्मीर समस्या की चर्चा हो और पाकिस्तान को सबक सिखाने के मुद्दे हो, देशभर में सामाजिक समरसता बढ़ाने की बात हो - यह सब सार्थक चर्चाएं होनी चाहिए, लेकिन इन चर्चाओं की जगह देश में हो रहे बुनियादी कामों की टांग खींचाई कैसे लोकतंत्र को सुदृढ़ कर पायेंगी। जब नया भारत निर्मित करने की बात हो रही है, जब सबका साथ-सबका विकास की बात हो रही है, तो उनमें खोट तलाशने की मानसिकता कैसे जायज हो सकती है?
विपक्ष की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन लगता है कि आज वह जीवन नहीं, मजबूरियां जी रहा है। अपने होने की सार्थकता को वह सिद्ध नहीं कर पा रहा है। अच्छे-बुरे, उपयोगी-अनुपयोगी का फर्क नहीं कर पा रहा है। मार्गदर्शक यानि विपक्ष शब्द कितना पवित्र व अर्थपूर्ण था पर वह अब कोरा विवाद खड़े करने का सबब बन गया है। विपक्ष तो पिता का पर्याय था। उसे पिता का किरदार निभाना चाहिए था। पिता केवल वही नहीं होता जो जन्म का हेतु बनता है अपितु वह भी होता है, जो अनुशासन सिखाता है, विकास की राह दिखाता है। आगे बढ़ने का मार्गदर्शक बनता है। अब यह केवल तथाकथित नेताओं के बलबूते की बात नहीं रही कि वे गिरते मानवीय मूल्यों को थाम सकें, समस्याओं से ग्रस्त सामाजिक व राष्ट्रीय ढांचे को सुधार सकें, तोड़कर नया बना सकें। सही वक्त में सही बात कह सके।
विपक्ष यदि बुनियादी मुद्दों पर सरकार से सबूतों के साथ पुख्ता सबूत संसद के भीतर मांगता है तो सरकार को इनका जवाब देना ही चाहिए और इस तरह देना चाहिए कि विपक्ष निस्तेज हो जाये। ऐसा ही प्रधानमंत्री ने करके दिखाया है, उन्होंने यही भूमिका बहुत दमदारी के साथ निभायी है। उनकी चेतावनियां लोकतंत्रिय चेतना को जगाने वाली है। ऐसे सद्प्रयासों के खिलाफ बवेला मचाने वाले, इनकी जड़ों में मट्ठा डालने वाले हर कदम पर मिलेंगे। मोदी जैसी जागृत चेतना ही इनके प्रहार झेलने की ढाल बन सकती है। संसद के दोनों पटलों पर जैसे आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह दिखाई दिये, वे राष्ट्रीय जीवन के शुभ को आहत करने वाले हैं।
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