उदयपुर “पारंपरिक/स्वदेशी ज्ञान और पारंपरिक खाद्य एवं औषधीय पौधों के सतत उपयोग: प्रसार, संरक्षण और सुरक्षा” विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी सह कार्यशाला का आयोजन 14 अक्टूबर, 2025 को विद्या भवन रूरल इंस्टीट्यूट (वी.बी.आर.आई.), उदयपुर परिसर में किया गया। कार्यशाला का उद्देश्य पारंपरिक खाद्य एवं औषधीय पौधों के प्रसार, संरक्षण और संवर्धन हेतु एक रणनीतिक रूपरेखा तैयार करना था, जिसमें प्रमुख विद्वानों, गैर-सरकारी संगठनों और प्रैक्टिशनरों की सक्रिय सहभागिता रही। इसने सामुदायिक ज्ञान प्रणालियों को सशक्त बनाने और आने वाली पीढ़ियों के हित में उनके सतत उपयोग को प्रोत्साहित करने पर भी विशेष ध्यान केंद्रित किया। कार्यक्रम संयोजक प्रो. कनिका शर्मा, निदेशक, वी.बी.आर.आई. ने बताया की उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता श्री राजेंद्र जी भट्ट, मुख्य संचालक, विद्या भवन सोसाइटी, उदयपुर द्वारा की गयी एवं कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो. अशोक कुमार जैन, पूर्व निदेशक, एस.के. इंस्टीट्यूट ऑफ एथनोबायोलॉजी, जीवाजी यूनिवर्सिटी, ग्वालियर थे । कार्यक्रम के आयोजन में सहयोग सेंटर फॉर माइक्रोफाइनेंस तथा फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ.ई.एस.) के द्वारा किया गया ।आयोजन सचिव डॉ. अनीता जैन ने बताया की कार्यक्रम चार सत्रों में आयोजित किया गया । सेमीनार के विभिन्न तकनीकी सत्रों की विषयवस्तु को बताते हुए उन्होंने कहा कि सेमीनार में 100 से प्रतिभागियों ने आनलाईन एवं आफलाईन भाग लिया।
कार्यशाला का उद्घाटन स्व. प्रो. एस.के. जैन को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए किया गया, जिन्हें भारत में एथनोबॉटनी का जनक माना जाता है। उनके द्वारा आदिवासी और पारंपरिक ज्ञान को मान्यता देने एवं संरक्षण के क्षेत्र में किए गए योगदान आज भी शोध और संरक्षण कार्यों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता प्रो. ए. के. जैन ने इस बात पर जोर दिया कि पारंपरिक खाद्य और औषधीय पौधों में स्वास्थ्य, पोषण और सतत आजीविका के लिए अपार संभावनाएँ निहित हैं, किंतु वे बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं। आईयूसीएन (IUCN) की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 21% औषधीय और सुगंधित पौधों की प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं, जो संरक्षण की तात्कालिक आवश्यकता को रेखांकित करती है। उन्होंने कहा की यदि हम प्रकृति के साथ नहीं रहे तो लोकवनस्पति विज्ञान का अध्ययन नहीं कर सकते ।
अध्यक्षीय सम्बोधन में श्री राजेन्द्र भट्ट ने कहा कि भोजन के रुप में काम आने वाले पौधो की प्रजातियों पर विशेष रुप से जोर देना होगा। कार्यक्रम संयोजक प्रो. कनिका शर्मा ने इस प्रकार के सेमीनार की आवश्कता पर जोर देते हुए कहा कि लोकवनस्पति विज्ञान को बढावा देना चाहिए।
बैंगलोर से जुड़े ऑनलाइन वक्ता, प्रो. अरविन्द सकलानी ने न्यूट्रास्यूटीकल पर प्रकाश डालते हुए अश्वगंधा, हल्दी, कोलियस आदि से बनाये जा रहे औषधीय व पोषक गुणों से भरपूर उत्पादों के बारे में बताया।
ऑफलाइन तकनीकी सत्र में प्रो. एस. एस. कटेवा ने राजस्थान में पाये जाने वाले विभिन्न लोकऔषधीय पौधो के बारे में बताते हुए कहा कि जनजाति समुदायों के पास जो अथाह ज्ञान सम्पदा है उसका दस्तावेजीकरण अत्यंत आवश्यक है। डा.सतीश कुमार शर्मा ने कहा कि राजस्थान कि जैव विविधता पर प्रकाश डालते हुए विभिन्न पौधो पर लोक सरंक्षण के तरीकों को बताया। साथ ही लघु वनोपज की उपयोगिता को जनजातियों के उत्थान हेतु विस्तार से बताया ।
डा.जी. पी. झाला ने गुणी जनो द्वारा उपयोग में लिये जा रहे अल्पज्ञात औषधीय पौधों जैसे आकड़ा, वायलकड़ी, खदूला, नामी इत्यादि के उपयोगों के बारे में बताया। डा.अनिल सरवसरण ने गैर लकड़ी वन उत्पादों के एकत्रीकरण और संरक्षण में नागरिकों की भूमिका पर प्रकाश डाला।
डा.वर्तिका जैन ने लोक वनस्पति विज्ञान के दस्तावेजीकरण की सही कार्यविधि को अपनाने पर जोर देते हुए कहां कि इसके अभाव में विषय की गुणवत्ता प्रभावित होती है। साथ ही बताया की प्रयोगशाला में लोकवनस्पति पौधो पर शोध प्रारम्भ करने से पूर्व भी कई सावधानियों का ध्यान रखना होगा।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. सबा खान द्वारा किया गया एवं कार्यक्रम का समापन डॉ. टी. पी. शर्मा के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ