गोपेन्द्र नाथ भट्ट
नवरात्रि के नौ दिनों में गरबे की गूंज और नृत्य की धमाल बुधवार देर रात्रि को थम जायेगी। इसी प्रकार दुर्गा पूजा भी दशहरा दो अक्टूबर को सम्पन्न हो जाएगी। वैसे भी गरबे और गुजरात एक दूसरे के पूरक माने जाते लेकिन गुजरात के गरबों की गूंज पिछले कुछ वर्षों में देश के कोने कोने में आग की तरह फैल गई है। भारत विविधताओं का देश है। हर राज्य, हर क्षेत्र अपनी अनूठी सांस्कृतिक धरोहर और परंपरा के लिए जाना जाता है। गुजरात की पहचान यदि किसी उत्सव और नृत्य से जुड़ी है तो वह है गरबा। नवरात्रि के नौ दिनों में गरबे की गूंज केवल गुजरात तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि पूरे देश और विदेशों में फैल जाती है। यही कारण है कि गरबा आज गुजरात की आत्मा और भारत की सांस्कृतिक धड़कन के रूप में प्रसिद्ध हो चुका है।
गरबों की गूंज से गुजरात का पड़ोसी राजस्थान भी अछूता है। विशेष कर गुजरात से सटे वागड़ और मेवाड़ में गरबा की प्रथा अवार्चीन काल से हो रही है।
उदयपुर और डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा प्राचीन काल से संस्कृति एवं साहित्य की नगर है। यहां अनेक समाज के लोग चैत्र एवं आश्विन नवरात्र में माता की आराधना के लिए गरबें लेते हैं। पड़ोसी राज्य गुजरात का प्रसिद्ध गरबा गायन एवं रम्मत अर्थात नाचना विश्व प्रसिद्ध हैं। जब मेवाड़ के उदयपुर नगर की बसावट हूई तब तत्कालीन राजा महाराजाओं द्वारा गुजरात से भट्टमेवाड़ा ब्राह्मण को यहां लाया गया और उदयपुर के ह्रदय स्थल जगदीश चौक के पास बसाया गया। सब ब्राह्मण प्रकांड पंडित और मूर्धन्य थे। तब से उस मोहल्ले का नाम भट्टियानी चोहट्टा पड़ा, जो आज भी जाना जाता है। भट्टमेवाड़ा समाज के लोग अपने साथ गुजरात की गरबा गायन संस्कृति को यहां लेकर आए। अपने घर में ही वे लोग मिट्टी से बने सहस्त्र छिद्रों वाले कलश में दीपक रखकर पूजन करते थे। कलश दो होते थे,एक छोटा एक बड़ा। छोटे कलश पर बड़े दीपक में चार बातियां लगाकर घर के आंगन या चोक के बीच रंगोली बनाकर पधराया जाता था। सन्ध्या समय पूजन आरती प्रसाद भोग के बाद गरबे लिए जाते थे।सब बुजुर्ग महिला पुरुषों सहित छोटे छोटे बाल वृन्द भी ताली और चुटकी बजाकर एक साथ गरबें के इर्द-गिर्द नाचते थे। स्वरचित गरबियां कोई एक भक्त गाता और दुसरी बार सभी मिलकर एक साथ झेलकर गाते थे। बैठें गरबों में सब एक साथ बैठकर स्वरचित गरबियां गाते थे। आज भी भट्टयानी चोहट्टा के घरों में पारम्परिक गरबें आयोजित होते हैं। कोई साउंड सिस्टम या लाउडस्पीकर नहीं होता। समाज को लोग स्वरचित गरबियां गाते हैं साथ में हारमोनियम, ढोलक, तबला, मटकी आदि वाद्य बजाएं जाते हैं। कुछ घरों में स्थाई रुप से गरबे लिए जाते हैं ,और कुछ अपनी मनौतियां पूर्ण होने पर या कभी कभी स्वेच्छा से भक्तिमय हो कर गरबे लेते हैं। मिट्टी के गरबों के अलावा आजकल चांदी के गरबें भी लिए जाते हैं। सभी लोग अपने-अपने मनोभावों के अनुसार इच्छा पुर्ति हेतु गरबे लेते हैं। उत्तम संतान, नव गृह, बेहतरीन रोजगार, व्यवसाय तथा श्रेष्ठ विवाह संस्कार जैसी इच्छाएं माताजी को समर्पित की जाती हैं। माताजी सभी के मनोरथ पूर्ण करते हैं। पूर्ण श्रृद्धा और भक्ति में लीन भक्तों का मां दर्शन भी देती हैं। ऐसा माना गया है कि समाज के एक श्रेष्ठ रचनाकार और गायक गरबें कर रहे थे , तभी उनको माता जी के दर्शन हूए और उन्होंने उसी समय नयी गरबी को रचना की- *मैं तो ओरखी लिधा छी अम्बे मात ने सुरंगी ओढ्यू फागणियू*....आप इन दिनों भट्टयानी चोहट्टा स्थित आशापालव की गली में जाएंगे तो आपको ऐसी अनेक गरबियों के स्वर सुनाई देंगे। पवित्र वातावरण शुद्ध शास्त्रिय राग में निबद्ध माताजी की स्तुतियां सुनकर एक अलौकिक अनुभूति होती हैं। यही परम्पराएं हमारे जीवन को सुसभ्य संस्कारों से सिंचित रखती है। पुरुष और महिलाएं स्वरचित गरबियां गाते हैं तब नन्हें बच्चे भी खुद ब खुद लेखन और गायन सीख जाते हैं। समाज के अक्षय कीर्ति जी व्यास और सुप्रसिद्ध फिल्मी गीतकार विश्वेश्वर शर्मा, रामेश्वर दयाल जी , सुदामा जी, जाने माने बांसुरी वादक कुसुमाकर आदि द्वारा लिखी गरबिया आज भी गाई जाती है।
नवरात्रि के नौ दिन गरबे के उत्सव की आत्मा हैं।
धार्मिक दृष्टि से यह माता अम्बा की आराधना का समय है। लोग उपवास रखते हैं और गरबा के माध्यम से देवी के सामने भक्ति प्रकट करते हैं।
सांस्कृतिक दृष्टि से रातभर चलने वाले गरबा महोत्सव सामाजिक मेल-जोल और आनंद का अवसर प्रदान करते हैं।सामाजिक दृष्टि से सभी वर्गों और समुदायों के लोग गरबे में एक साथ थिरकते हैं, जिससे सामाजिक एकता का संदेश मिलता है।
गरबे की उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
गरबा शब्द संस्कृत के “गर्भ” और “दीप” से बना माना जाता है। परंपरागत रूप से नवरात्रि के दौरान मिट्टी के घड़े (गरबा/गर्भदीप) में दीपक जलाकर उसे बीच में रखा जाता था और उसके चारों ओर स्त्रियाँ गीत गाती हुई नृत्य करती थीं। यह प्रतीक था अंधकार में प्रकाश और जीवन में ऊर्जा का संचार।धीरे-धीरे यह लोकनृत्य सामूहिक उत्सव का रूप लेने लगा और आज यह विश्व स्तर पर लोकप्रिय है।गरबे की शैली और स्वरूप कई रूपों में प्रचलित है। पारंपरिक गरबा में महिलाएँ गोल घेरे में दीपक या गरबा (घड़े) के चारों ओर नृत्य करती हैं। गीत प्रायः देवी की स्तुति पर आधारित होते हैं। दूसरी ओर डांडिया रास में लकड़ी की छड़ियों के साथ किया जाने वाला यह नृत्य अब गरबा का अभिन्न हिस्सा है। इसे “डांडिया नाइट” भी कहा जाता है। आधुनिक गरबा के तहत बदलते समय में डीजे, फिल्मी धुनें और पॉप संगीत पर भी गरबा होने लगा है, जिससे युवा वर्ग की भागीदारी बढ़ी है।
गरबे की वेशभूषा और संगीत उसकी रंगीन वेशभूषा और मधुर संगीत से और बढ़ जाती है।
महिलाएँ चणिया-चोली और भारी कढ़ाईदार ओढ़नी पहनती हैं।पुरुष पारंपरिक कुर्ता, काठीअवाड़ी पगड़ी और केडिया पहनते हैं।
संगीत में ढोल, ताशा, नगाड़ा, हारमोनियम और अब डीजे का भी प्रयोग होता है। गीतों में देवी की महिमा, लोककथाएँ, भक्ति रस और कभी-कभी हास्य–व्यंग्य भी शामिल होता है।
गरबा का आर्थिक और सामाजिक महत्व पर्यटन की दृष्टि नवरात्रि के दौरान गुजरात में देश–विदेश से लाखों पर्यटक आते हैं। अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत और राजकोट जैसे शहर गरबा पर्यटन के प्रमुख केंद्र बन गए हैं। व्यापार की दृष्टि से इस समय पारंपरिक वस्त्र, आभूषण, वाद्ययंत्र और सजावट की वस्तुओं की बिक्री में भारी बढ़ोतरी होती है। गरबे रोज़गार का साधन भी है। कारीगर, कलाकार, संगीतकार और आयोजक सभी को गरबा महोत्सव से रोज़गार मिलता है।
गरबे सामाजिक मेल-जोल का माध्यम है। गरबा लोगों को आपस में जोड़ता है। वर्ग, जाति और समुदाय की सीमाएँ टूट जाती हैं।
इन दिनों गरबा की वैश्विक पहचान बन गई है।
प्रवासी भारतीयों ने गरबा को दुनिया के हर कोने तक पहुँचा दिया है।अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, खाड़ी देशों आदि में बड़े पैमाने पर गरबा महोत्सव आयोजित होते हैं। न्यू जर्सी, लंदन और दुबई में आयोजित “डांडिया नाइट्स” में हज़ारों लोग शामिल होते हैं। वडोदरा (गुजरात) में आयोजित गरबा महोत्सव को गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया है, जब वहां सबसे बड़ी संख्या में लोग एक साथ गरबा करते दिखे।
समय के साथ गरबे का स्वरूप बदला है। गरबा आयोजन में भी परिवर्तन आए हैं। पहले यह केवल धार्मिक अनुष्ठान था, अब यह मनोरंजन और सांस्कृतिक उत्सव बन गया है। पारंपरिक संगीत की जगह डीजे और आधुनिक धुनों ने ले ली है।कॉर्पोरेट कंपनियाँ और बड़े आयोजनकर्ता इसे व्यावसायिक रूप देने लगे हैं। फिर भी, इसका मूल भाव — देवी की आराधना और सामूहिक नृत्य — आज भी जीवित है।
व्यावसायीकरण के कारण गरबे की पवित्रता कहीं-कहीं कम होती दिख रही है।भारी भीड़ और शोर से कभी-कभी धार्मिक भावनाओं पर असर पड़ता है।युवा पीढ़ी पारंपरिक गीतों की बजाय पॉप संगीत को ज़्यादा पसंद करने लगी है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक है कि पारंपरिक गरबे की मूल भावना को संरक्षित किया जाए और आधुनिक रूपों को संतुलित ढंग से अपनाया जाए।गुजरात का गरबा केवल नृत्य नहीं, बल्कि श्रद्धा, ऊर्जा, और सामूहिक आनंद का प्रतीक है। इसकी लय और ताल में भक्ति भी है, संस्कृति भी और जीवन का उत्साह भी। यही कारण है कि आज गरबा गुजरात की सीमाओं को पार कर भारत और दुनिया भर में प्रसिद्ध हो चुका है।
गरबे की यही विशिष्टता है कि वह सबको जोड़ता है, सबको उत्सव में सहभागी बनाता है। जब लाखों लोग गोल घेरे में एक साथ थिरकते हैं तो वह दृश्य केवल नृत्य नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव बन जाता है। और यही वजह है कि हम गर्व से कह सकते हैं “प्रसिद्ध है भारत के गरबे।”