मानव, प्राकृति, और अध्यात्म के परिवेश और संदर्भों के साथ उदयपुर की रचनाकार सुलेखा श्रीवास्तव का काव्य संग्रह "रंग बदलती धारा " एक ऐसी कृति है जिसमें जीवन के रंगों और भावों के स्पंदन का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। प्रकृति का लावण्य है तो पर्यावरण असंतुलन और प्रकृति के विनाश का रुदन भी है। पीड़ित मानवता का दर्द भी सृजन में बोलता है। प्राकृतिक प्रकोप चाहे वह केदारनाथ की दुखांतिका हो या हो बाढ़ पीड़ित सबकी व्यथा उजागर होती दिखाई देती है।
इनका सृजन छंद मुक्त और भाषा शैली साहित्यिक है। मन के भावों को बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति दी हैं। लगता है लेखिका ने गहराई से विषय के मर्म को छुआ है। बात को सीधे रूप में न कह कर प्रतीकों का उपयोग इनकी अपनी विशिष्टता हैं। रचनाओं की भावपूर्णता, संदेश और प्रस्तुतीकरण लेखिका को उच्च साहित्यकार की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। इसमें तनिक संदेह नहीं लेखिका एक कुशल और प्रभावी सृजनकार है। सात खंडों में किया गया सृजन लेखिका के बहुआयामी लेखन को परिलक्षित करता है ।
दीवाली की रात, परिवर्तन , विवश खोज, खामोश पल, विरक्ति, खामोश पल विरक्ति और तूफान तट कविताएं माँ को श्रृद्धा सुमन के रूप में समर्पित हैं। परिवर्तन द्विजनकर भाव देखिए ( पृष्ठ 23)...........
गीत ना हों संगीत ना हों टूटे साज़ो ने पुकारा है / गुलशन न खिले कोई यहां हमको वीराना प्यारा है / रहो आबाद ऐ खुशियों, महलों में किस्मत वालों के ,/ हमको क्या अभिप्राय खिले हों, फूल हजारों डालों पे / एकाएक हे देव ये तूने निर्णय कैसे लिया होगा/ हंसते फूल तोड़ डाले ये कैसे तुझे भाया होगा / मुस्काती अब भोर न आए / उदास अंधेरा भाता है/ कोई विहंसता स्वर न उभरे /सूनापन प्रिय लगता है / ममता भरे स्पर्श को तरसा दिल तो कौन संभालेगा / तन्हाई में रोती आंखें आंचल कौन मनाएगा ।।
ऊषा लौट आ, जलधार, रात्रि फिर दिवस, प्रकृति में खो जाएं पाठक को प्रकृति के उपहारों से परिचय कराती रचनाएं हैं। प्रकृति से पराजित रचना के भाव देखिए ( पृष्ठ 35)...
पूनम का लिए धवल प्रकाश,/ शांत विधु की परछाईं। / निस्तब्ध आज अवनी अंबर,/ निःशब्द दिशाएं सारी।/ हिली डाल जब चली हवा,/ धीमी सी स्वर लहरी गूंजी। / नर्तन दिखलाती तरु शिखा,/ उसकी उदासी है पूंजी। / शोर पवन के झोंके में है, / थकित चरण तरु शिखा। / कैसा असफल प्रयास है,/ मानव को बहलाने का। / करने की वश प्रकृति को,/ मानव की आशाएं टूटी। / गई थी प्रकृति विजय को,/ किंतु हार मानवता लौटी।
कहां से कहां, पर्यावरण में फर्क, हर पतंग,
जीवन, विजयी मुस्कान, जागरण, मृषा कहानी, राह नई. मात्रा या गुणवत्ता. रंगों का जादू...
उपहार में जिंदगी, जीना सीखें.बस यही तो चाहिए, भटकी नैया के सवार ,शेष है श्वांस.,
परख ,कर्तव्य, आत्मबल, प्रेरणा, मुस्कुरा तो लो, चलते-चलते बिछड़ गए. काश लौट आयें और आज के युवा भूल गए कविताओं के भाव पाठक को प्रेरणात्मक संदेश देती हैं। रंगों का जादू कविता में लेखिका लिखती है...( पृष्ठ 52)
रंग से नहीं रंग बदलने से डरो / जो बदल रहे हैं ऐसे गिरगिटों से डरो / जरूरी नहीं कि तुम गलत ही करो / गलत करने वाली संगतों से डरो / ये पर्व ही तो ज़िंदगी को रंग देते हैं/ पर्व के पलों को मुस्कान से भरो / रंग से नहीं रंग बदलने से डरो / आस्तीन में पलने वाले सांपों से डरो/ मंझधार में ही छोड़ जाने वालों से डरो / धुंध या प्रकाश का दोराहा आने पर / चुनाव में गलती कर जाने से डरो/ रंग से नहीं रंग बदलने से डरो / दीवाली है भवन पे रंग तो करो / श्रद्धादीप में भाव भक्ति का भरो/
अपना पराया रंग लो होली आई है/ गुलाल संग सद्भाव छिड़क दिया करो/ रंग से नहीं रंग बदलने से डरो ।।
केदारनाथ दुखान्तिका, तमाशबीन बालक,
कृषक और बादल, मजदूर और जमींदार
दहेज की बलिवेदी पर, गुदड़ी के लाल, बाढ़ पीड़ित, बाल विधवा की वेदना, भिक्षुक बालक की मनः स्थिति, मानव और मूर्ति दंगों के कारण काव्य सृजन में पीड़ित मानवता की चीख सुनाई देती हैं। देखिए किस प्रकार बाल विधवा की वेदना को साहित्यिक शब्दों के ताने बाने में बुना है इन्होंने.......( पृष्ठ 79 )
वेदना का भार लेकर, बिखर रहा हर स्वर तेरा / वीणा के तारों पर क्यों कर, कांप रहा है कर तेरा / हंसने की अभिलाषा में क्यों / छुपकर रो दी आंख तेरी / सात जनम के भ्रम में क्यों / सिसकी कोमल श्वांस तेरी / नव कुसुमों से खेल रही थी/ कैसे बिंध गया आज ये शर / मीठी वाणी बोल रही थी;/ रो-रो उठा है तेरा उर / अंधी बनकर दौड़ रही है / दुनिया लापरवाही में ;/ जाने किसकी आह छुपी है / किस की वाहे वाही में ।
आखिर क्यों, सदियों का कैदी, आज का मानव., उन्नति और असंतोष , बदल गया है, कुछ लोग, अस्तित्व का एहसास, नई संस्था का गठन, दौड़ रहे हैं, आरम्भ और अंत तथा विज्ञान और अध्यात्म रचनाओं में पाठक के सामने समाज के स्वरूप के संदर्भ उभर कर सामने आते हैं। विज्ञान और आध्यात्म सृजन में सामाजिक संदर्भों को यूं अभिव्यक्ति प्रदान की गई है.........( पृष्ठ 97 )
पाकर विज्ञान की उष्णता/ द्रवित हुआ जग बिखर चला/ मोम का यह पुतला लोप / कर गया अस्तित्व पूरा ।। स्वर संगीत, भरपूर रोशनी,/ विज्ञान चल रहा तीव्र पद गति, / दे रही क्या क्या प्रशंसनीय, / चमत्कारिक मानव बुद्धि।। अतिशय प्रकाश कैसे हो गति, / भ्रमित हो रही मानव मति, / बढ़ते विज्ञान चरण कर रहे, / मानव आत्मा की दुर्गति ।।/ संपन्न हृदय प्यासी आत्मा, / सत्य का जैसे हुआ खात्मा,/ अब पश्चिम भी शांति पाने, / ढूंढ रहा परमात्मा ।।
सांसों का कर्ज, दरकार है, जिंदगी का सफर, मन कहां होना चाहिए, आध्यात्मिक विकास की यात्रा, दिव्य जागरण , समझना होगा,पाती प्रभु के नाम, महसूस करो, देखो तो संभालो आदि कविताएं आध्यात्म भाव से आप्लावित हैं। दिव्य जागरण सृजन के भाव कहते हैं ( पृष्ठ 122).........
जब हृदय बेचैन हो, /लगन में कुछ जान हो।/
कोई सिरा हाथ आ जाए,/ मन ध्यान में उतर जाए।/ प्रभु की पागल प्रीत के,/ बंधन में प्रतिक्षण मुस्काये।/ हृदय उल्लसित हो जाए,/ नयन धार बहती जाए। / तब समझ लेना उसका, / आशीर्वाद है मिल गया। / पल पल कुम्हला रहा, /जीवन पुष्प खिल गया। / उसकी इनायत बढ़ चली, / आँख भीतर खुल चली। / बातें माया के जादू की,/ आज दिल से टल चली। / यही लगन बढ़ती जाए, / खोई खुशी मिलती जाए। / ये जीवन थोड़ा सरल बने, /श्वांस हर इक सफल बने।
आमुख में लेखिका लिखती हैं," रंग बदलती धारा में मर्मस्पर्शी विषयों का चयन कर समाज के हर वर्ग के स्वरूप, भीतरी दर्द, समस्याओं, प्रकृति, प्रेरणात्मक व आध्यात्म सम्बन्धी मन की भावनाओं की विभिन्न गहराइयों को, काव्य के विविध रसों व अलंकारों से सज्जित करते हुए सरल शब्दों की माला में पिरो कर काव्यांजली देने का एक सराहनीय प्रयास किया है। कविताएं मूलतः वस्तुस्थिति जन्य साक्ष्य का चित्रण प्रस्तुत करतीं हैं। काव्य के अलंकरण का प्रयास भी कुछ ऐसा सार्थक बन पड़ा है कि पढ़ते हुए आपका सौंदर्य बोध आपको भावों के सागर में हिचकोले खाती काव्य लहरों की नैया में बिठाकर दूर बहा ले जाएगा।"
संग्रह की सभी एक सौ कविताएं साहित्यिक रुचि के पाठकों के लिए उम्दा सृजन हैं। नवोदित साहित्यकार जो साहित्यिक कविताएं लिखना चाहते हैं उनके लिए किसी मार्गदर्शक से कम नहीं हैं इनकी कविताएं। ऐसे नवोदित रचनाकारों को यह कृति अवश्य ही पढ़नी चाहिए। आवरण पृष्ठ कृति शीर्षक के अनुरूप आकर्षक है।
पुस्तक : रंग बदलती धारा
लेखिका : सुलेखा श्रीवास्तव, उदयपुर
प्रकाशक : हिमांशु , जयपुर - दिल्ली
मूल्य : 195 रुपए
प्रकाशन : 2023
पेपर बैक पृष्ठ : 133
ISBN : 978- 93- 94954 - 85 - 4
समीक्षक
डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा
साभार :
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