इतिहास और सत्य में कहीं कोई मिलावट नहीं होती। ये जैसे होते हैं वैसे ही समुदाय के सामने परोसना चाहिए ताकि वर्तमान को हमेशा पुराने अनुभवों का लाभ मिले।
इंसान की कुल औसत आयु का अधिकांश समय पढ़ाई-लिखाई और घर-गृहस्थी या सांसारिक प्रपंचों में गुजर जाता है। उसे ज्ञान और अनुभव पाने के लिए बहुत सारा समय चाहिए लेकिन मिलना संभव नहीं है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य के लिए श्रेयस्कर यही रहता है कि पुरानी पीढ़ी के अनुभवों और ज्ञानराशि की जानकारी मिले ताकि वह सीख और सबक के साथ अपना जीवन सँवार सके।
इस दृष्टि से इतिहास, पुराने समय की हलचलों, लोगों के व्यक्तित्व और प्रभावों से भिज्ञ होना नितान्त जरूरी है। लेकिन हमारा समुदाय, परिवेश, ज्ञानवान विद्वान एवं अनुभवी लोगों के लोक व्यवहार की थाह पाना एक सीमा तक ही संभव है क्योंकि अधिकांश लोग भूत को भुलाते हुए वर्तमान में जीना अधिक पसन्द करते हैं। हममें से कुछ फीसदी को छोड़ दें तो तकरीबन सारे ही इस स्थिति में दिन काट रहे हैं।
हमारा, समाज और देश का दुर्भाग्य है कि हमें यही सिखाया गया है कि पुरानी बातों को याद न करें और आगे बढ़ते रहें। यही वह बहुत बड़ी वजह है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के ज्ञान और अनुभवों से रूबरू नहीं हो पा रही है। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह कि हमें आलोचना और निन्दा के बीच के फर्क को कभी समझाया नहीं गया।
देश के धूर्त्त, ढोंगी और मक्कार बुद्धिजीवियों की यह चालाकी रही है कि उन्होंने बुरे और वर्जित कर्मों, कटु अनुभवों, अनाचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, पैशाचिकता और अमानवीयता से लेकर उन सभी दुर्गुणों को निन्दा की श्रेणी में डालकर इन पर चर्चाएं करने पर पाबन्दी ही लगा दी है।
इस वजह से समाज और देश में दुष्ट बुद्धि के आसुरी लोगों के कुकर्मों पर हमेशा परदा ढका रहता है। कोई इनका जिक्र कर वर्तमान पीढ़ी को आगाह भी करना चाहे तो साफ-साफ कह दिया जाता है कि किसी की भी निन्दा न करें, इससे महापाप का भागी होना पड़ता है।
यहां तक कि समाज और देश की दुर्दशा करने वाले, महाभ्रष्ट, राक्षसी स्वभाव वाले, अनाचार, अत्याचार और लूट-खसोट जैसी आदत वालों की मौत के बाद कोई इनकी असलियत सभी के सामने रखना चाहे तो उसे भी यह कहकर रोक दिया जाता है कि मरने वाले के बारे में कोई जिक्र या निन्दा नहीं करनी चाहिए।
वर्तमान पीढ़ी अपने व्यक्तित्व विकास और समाज तथा देश के उत्थान के लिए समर्पित होकर काम करना चाहती है। और वह यह भी चाहती है कि हमसे पहले के लोगों ने जो कुछ खोटे करम किए हैं, उनकी जानकारी पाकर इनसे सबक लेकर तथा उनके अच्छे कामों से सीख लेकर आगे से आगे बढ़ा जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।
इसका मूल कारण यह है कि समाज में सज्जनों को संरक्षण देने की बजाय दुर्जनों की गलतियों, कुकर्मों और पाखण्ड पर हमेशा परदा डाले रखने की मंशा से सत्याभिव्यक्ति को निन्दा की श्रेणी में डाल दिया गया है।
जबकि शाश्वत सत्य यह है कि किसी गलत को गलत कहा जाए, वह आलोचना की श्रेणी में आता है, इसका कोई पाप नहीं है बल्कि यह सभी का कर्तव्य है। जबकि अच्छे को गलत कहा जाए, उसे निन्दा माना जाता है। चतुर सुजान बुद्धिजीवियों ने स्वयं तथा पुरानी पीढ़ी के कुकर्मियों की गलतियों को ढके रखने की गरज से इसे निन्दा के पाले में डाल दिया है।
और तो और मौलिक सच्चाई को अभिव्यक्त करें तो इसे नकारात्मक मनोवृत्ति की संज्ञा दे डालने में भी लोग पीछे नहीं रहते। दुश्चरित्र नरपिशाच सच्चाई को न सुनना चाहते हैं, न देखना। इनका जीवन भर का एकसूत्री एजेण्डा यही रहता है कि वे चाहे जो खोटे कर्म, भ्रष्टाचार, पापाचार, कमीशनखोरी, अत्याचार, अनाचार, चोरी-डकैती, लूट-खसोट, अतिक्रमण, डयूटीचोरी आदि सभी संभव कुकर्म करते हुए धन-वैभव, भोग-विलासिता और मिथ्या प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहें, उन्हें कोई कुछ कहने वाला न हो।
वे नॉन स्टॉप मानवता की हत्या करते रहें। न उन्हें कोई कुछ कहे, न उनके संगी साथियों को। जैसा हो रहा है, होने दो, जैसा चल रहा है चलने दो। जरा कहीं कोई सच्चाई सामने रख दे तो भड़क जाते हैं, कुत्तों की तरह भौंकाल मचा देते हैं, और माहौल इतना अधिक बिगाड़ देंगे कि इनके जैसे सारे पाखण्डी और पापाचारी एक होकर पीछे पड़ जाएंगे। और उलाहना देते रहेंगे - जैसा हो रहा है होने दो, तुम्हारे बाप का क्या जाता है, नकारात्मकता और निन्दा अच्छी बात नहीं है।
कोई यह नहीं कहता कि सत्योद्घाटन होने के बाद उनमें अक्ल आ गई है और अब धूर्त्तता, मक्कारी और भ्रष्टाचार नहीं करेंगे। समाज, क्षेत्र और देश में हर कहीं जिन्दगी भर नकारात्मक काम, अपराध और पापाचार करते रहने वाले लुच्चे-लफंगे और टुच्चे लोग सत्य सामने आने पर इसी तरह प्रतिक्रियावादी हो उठते हैं।
उनसे कोई पूछे कि जो लिखा जा रहा है उसमें असत्य क्या है? तो वे उत्तर देने की बजाय यह नसीहत देते हैं कि नकारात्मकता और निन्दा से बचना चाहिए।
हमारी पुरानी पीढ़ियों में भी ऐसे तटस्थ और मूकद्रष्टाओं की कोई कमी नहीं थी जिन्होंने कभी भी सच को सामने नहीं आने दिया, कुकर्मियों के पाखण्ड पर परदा डालते रहे और इसी वजह से आज समुदाय, क्षेत्र और देश में कुप्रथाएं, अनाचार और व्यभिचार बढ़ता जा रहा है।
अपराधियों, दुराचारियों और स्वार्थों में जीने वाले इन्हीं बुद्धिबेचकों के कारण झूठे-मक्कार, बेईमानों और भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय भी मिलता रहा है और सम्मान-प्रतिष्ठा भी।
तटस्थ और मूकद्रष्टा होकर अनाचार और अत्याचार करने और चुपचाप देखते रहने वालों के कारण ही देश की दुर्गति हो रही है। जहां जो गलत, नीतिविरूद्ध, धर्म और शास्त्र विरूद्ध और मानवीय संस्कारों के विरूद्ध हो, उसे निर्भयतापूर्वक समाज के समक्ष रखना साहस और चिन्तन भरा कार्य है, और जो ऐसा कर पा रहे हैं वही वस्तुतः इंसान हैं। शेष या तो निर्वीर्य नपुंसक हैं, या वर्णसंकर, पशुबुद्धि श्वानवंशीय या किसी न किसी आका के पाले हुए पालतू।