हवामहल, जंतर मंतर , बिड़ला मंदिर, मोती डूंगरी का गणेश मंदिर

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Published on : 19 Aug, 25 09:08

हवामहल, जंतर मंतर , बिड़ला मंदिर, मोती डूंगरी का गणेश मंदिर

निजी एवं सरकारी कार्य होने के लिए चार दिन के लिए जयपुर जाना हुआ। वसुंधरा कॉलोनी में मेरी छोटी बहन प्रभा रहती थी अतः मैं वहीं ठहर गया।  रविवार दिन था बहन के बेटियों मेघा, ऋतु और वर्षा ने कहां मामा जी आज तो कहीं घूमा कर लाओ। मैंने कहा कहाँ चलना है? ऋतु जो बड़ी और समझदार थी बोली मामा जी आप तो पर्यटन पर इतना लिखते हैं आप ही बताएं कहाँ चलें ?

     कुछ सोच कर मैंने कहा कि जयपुर का हवामहल बहुत ही खूबसूरत है और दुनिया में प्रसिद्ध है चलों इसे ही दिखा कर लाता हूं। इतना कहना था कि ऋतु ने खुश हो कर कहा हमने हवामहल देखा भी नहीं है केवल सुना है, मजा आ जाएगा। मैंने बहन से कहा तुम भी चलों तो कहने लगी मैं तो सहेलियों के साथ कुछ दिन पहले ही हो कर आई हूं, आप बच्चों को घुमा लाओ, मैं जल्दी से नाश्ता बना देती हूँ। अब क्या था बच्चों को तो जैसे पर लग गए, वे झटपट तैयार होने लगे। मैने टैक्सी बुक करवाई और नाश्ता किया, जितने में टैक्सी भी आ गई। तीनों बच्चें और मैं टैक्सी की गोद में समा गए और टैक्सी हवामहल के लिए रवाना हो गई।

   कुछ दूर ही चले थे कि ऋतु ने कहा मामा जी हमें हवामहल के बारे में कुछ बताओ तो देखने में और भी मजा आएगा। मैं कुछ बोलता उस से पहले टैक्सी ड्राइवर एक दम बोल उठा मामा जी से बाद में सुनना ,मेरा तो रोज का काम है पर्यटकों को घुमाने का पहले मैं बताता हूं। बच्चों के साथ - साथ मेरी भी उत्सुकता बढ़ी आखिर यह क्या बताएगा ?

   ड्राइवर ने कहा बच्चों जयपुर के हवामहल जैसा खूबसूरत भवन  कहीं दूसरी जगह देखने को नहीं मिलता। हजारों पर्यटक हर साल इसे देखने आते हैं। गुलाबी रंग का महल बाहर से ऐसा दिखता है जैसे राजमुकुट हो, इसे कृष्ण का मुकुट भी कहा जाता है। इस महल के अंदर सैकड़ों खिड़कियों से ठंडी हवा आने से इसे हवामहल कहते हैं। खास बात इसमें ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां नहीं बनाई गई हैं। ऋतु ने उत्सुकता से पूछा फिर लोग ऊपर कैसे जाते हैं? वह बोला ऊपर जाने के लिए चढ़ाई वाला घुमावदार रास्ता है जैसे रैंप होता है। अच्छा है सीढ़ियां नहीं चढ़नी पढ़ेंगी बच्चें एक साथ बोले, छोटी वर्षा ने कहा फिर तो उस पर रिपस भी सकते हैं , उसके भोलेपन पर सभी की हंसी का फव्वारा छूट पड़ा।  ऋतु ने पूछा यह किसने बनाया था ? यह तुम्हारे मामा बताएंगे, कहते हुए उसने कहा पास ही पीछे की तरफ जंतर मंतर है उसे भी जरूर देखना। सूरज घड़ी देख कर तुम आश्चर्य  में पड़ जाओगे।

       ड्राइवर की जानकारी से मैं भी प्रभावित हुआ कि उसने बच्चों को रोचक जानकारी दे कर उनके हवामहल देखने का उत्साह और बढ़ा दिया था। ड्राइवर से बातें करते-करते आधा रास्ता पार हो चुका था।

      बच्चें तो बच्चे ही होते हैं , वे पूरे उत्साहित थे , मामा जी को घेर लिया और बोले बताओ न मामा जी इसे किसने बनवाया ? मैंने उन्हें बताया जयपुर  एक राजा हुए थे जिनका नाम  महाराजा सवाई प्रताप सिंह था। उनके मन में इस भवन को बनाने का ख्याल आया। उन्होंने वास्तुकार लाल चंद उस्ताद से इसका नक्शा बनाने और स्वयं की देखरेख में भवन बनाने को कहा। ऋतु ने पूछा ये वास्तुकार क्या होता है ? मैंने समझाया वास्तुकार वह व्यक्ति होता है जो भवनों की डिजाइन और योजना बनाता है तथा अपनी देखरेख में निर्माण कार्य करवाता है। आगे की जानकारी देते हुए बताया मजे की बात यह है कि इस भवन को बिना नींव खोदे जमीन पर ही बनाया गया है। भवन की ऊंचाई जमीन से 87 फीट ( 26. 51 मीटर ) है। इसकी कारीगरी में उस समय की राजपूत कला और मुगल कला का खूबसूरत मेल दिखाई देता है। हवामहल इतना पुराना है कि इसका  निर्माण वर्ष 1799 में किया गया था। बातों में हम इतने खो गए कि पता ही नहीं चला कब हवामहल पहुँच गए। ड्राइवर ने अपनी टैक्सी बड़ी चौपड़ के पास स्थित हवामहल के सामने रोकते हुए कहा, बच्चों हवामहल आ गया है।

       हम सब टैक्सी से उतरे तो हवामहल आंखों के सामने था। बच्चें तो देखते ही आपस में बातें करने लगे, कितना खूबसूरत है यह। मेघा ने कहा कितनी  सारी छोटी - छोटी खिड़कियां बनाई हैं। ऋतु भी बोली इनकी कारीगरी भी कितनी सुंदर है , ऐसा लगता है जैसे नई - नई अभी बनी हो। इनकी संख्या तो बहुत होगी मामा जी ? मैंने कहा हाँ ! ये लगभग 953 हैं और  इनसे ही इस भवन की सुंदरता है। हर छोटी खिड़की पर आकर्षक और खूबसूरत नक्काशीदार जालियाँ, कंगूरे बने हैं और भवन के ऊपर कई गुम्बद बने हुए हैं, इशारा करते हुए बताया। इसमें कई आधे अष्टभुजाकार झरोखें हैं जो इसे दुनिया भर में बेमिसाल बनाते हैं। मेरी बात सुन कर बच्चें ऐसे देख रहे थे जैसे सारी सुंदरता को समेट लेना चाहते हैं। अपनी मम्मी से लाए मोबाइल से चित्र और सेल्फी लेने लगे, हवामहल के साथ मैंने उनके चित्र लिए । उनके खिले हुए चेहरे उनकी खुशी को बता रहे थे कि उन्हें कितना मज़ा आ रहा है।

   मैंने कहा अंदर चलें। बच्चें बोले थोड़ा और देखलें । जब उनका मन भर गया तो उन्होंने अन्दर चलने के लिए कहा । हम पास वाले रास्ते से जो हवामहल के पीछे की और ले जाता था चल पड़े और पहुँच गए प्रवेश द्वार पर। यहां टिकट ले कर अंदर गए। एक बड़ा सा चौंक दिखाई दिया, यहां एक फव्वारा भी लगा था, जो उस समय बंद था ।  चौंक के एक तरफ छोटे से चढ़ाईदार रास्ते से ऊपर चढ़ने लगे। वर्षा जो सबसे छोटी थी रास्ते को देख कर  भोलेपन से बोली इतना छोटा सा रास्ता। रास्ते में बने झरोखों से अच्छी खासी रोशनी आ रही थी। 

    हवामहल की पहली मंजिल देखने के बाद दूसरी मंजिल पर पहुँचे। यहां तो जैसे हवा का ही राज्य था। हल्की गर्मी में इतनी ठंडी हवा ने सभी को बड़ी राहत पहुंचाई। बच्चें खिड़कियों के पास हवा का मजा लेने लगे। कभी इस खिड़की पर तो कभी दूसरी खिड़की पर। ऋतु ने कहा देखो इन खिड़कियों से सड़क का सीन कितना लुभा रहा है। अचानक वहां एक गाइड के साथ कुछ भारतीय पर्यटक आए। गाइड उन्हें बताने लगा तो बच्चें भी उसकी बात सुनने लगे। उसने बताया कि राजाओं के जमाने में रानियां पर्दे में रहती थी और किसी के सामने नहीं जाती थी। महल से बाहर जाना पड़े तो पालकियों में जाती थी। यह महल सिटी महल के महिला महलों से जुड़ा है। जब रानियां हवामहल में आती थी तो पालकियों में आती थी। वे हवामहल की खिड़कियों से सड़क पर होने निकलने राजसी जुलूस  और अन्य कार्यक्रमों को देखा करती थी। उनके लिए ही छोटी - छोटी जालीदार खिड़कियां बनवाई गई जिस से वे बाहर के दृश्य का आनंद ले सकें और बाहर से उन्हें कोई नहीं देख सके। बीच की मेघा ने गाइड से पूछ लिया ये पर्दा क्या होता था ? गाइड ने समझाया पुराने जमाने में चेहरे को सिर के ऊपर से साड़ी के पल्ले से ढकने को घूंघट निकालना कहते थे, इसे ही पर्दा कहा जाता था। ऋतु ने यह कह कर सब को आश्चर्य में डाल दिया अगर पर्दा नहीं होता तो यह महल भी नहीं बनता ! उसकी बात पर सभी मुस्करा दिए। गाइड बोला पहली बार एक लड़की ने ऐसा सवाल पूछा जिसका कोई जवाब नहीं है, आज तक यह किसी ने नहीं पूछा, बीस साल से गाइड का काम कर रहा हूँ।

     बच्चें हवामहल को देखने और उसके बारे में कई बातें जान कर बहुत खुश थे। हम सब खिड़कियों से ठंडी - ठंडी हवा का मजा लेकर हवामहल के बाहर आ गए और जिस रस्ते से आए थे वापस उसी रस्ते से टैक्सी वाले के पास पहुँच गए। हवामहल के सामने खूब रौनक थी। कई प्रकार के हस्तशिल्प अर्थात हाथ से बनी कारीगरी की वस्तुओं की दुकानें सजी थी। बच्चों को कारीगरी की जूतियां बेचने वाले की दुकान पर ले गया। इन्हें वहाँ की बोली में " मोज़डी" कहा जाता है। इन पर हाथों से खूबसूरत डिजाइन बनाई जाती हैं। ऋतु ने अपने लिए और दोनों बहिनों के लिए पसंद की जूतियां खरीद ली। दुकान से बाहर आए तो एक  छोले कुलछे वाला दिखाई दिया। हल्की - हल्की भूख भी लग आई थी , सबने छोले कुलछे का भरपूर लुफ्त उठाया और टैक्सी की ओर चल दिए। 

     हमें टैक्सी के पास देख ड्राइवर ने पूछा साहब बच्चों को जंतरमंतर नहीं दिखाएंगे क्या?  मैंने घड़ी देखी अभी 12.30 बजे थे, खूब समय था । बच्चों से पूछा बताओ जंतरमंतर देखना है या घर चलें ? ऋतु ने अपनी बहनों से बात कर कहा पास ही है तो जंतरमंतर भी देख लेते हैं मामा जी। मैंने टैक्सी ड्राइवर को कहा बच्चों का मन है तो चलो चलते हैं जंतरमंतर भी देख लेते हैं।

         उत्सुकता दिखाते हुए ऋतु ने पूछा यह जंतरमंतर क्या होता है मामा जी। मैंने उन्हें बताया बच्चों यहां ज्योतिष के आधार पर चुना मिट्टी और पत्थरों से बनाए मॉडल हैं जिन्हें सामूहिक रूप से जंतरमंतर कहा जाता है। हमारे नो गृह  और कई उपग्रह हैं जो आकाश में चक्कर लगाते रहते हैं। ऐसे ही बारह राशियां हैं, हमारा नाम भी किसी न किसी राशि से जुड़े होता है। पंडित हमारे नाम की राशि देख कर हमारा भाग्य फल बताते हैं। इसीलिए तुमने अक्सर  किसी समस्या के होने पर सुना होगा चलो ज्योतिषी के पास चलते हैं। सूरज ,चाँद, तारों और पृथ्वी को तो तुम जानते ही हो ,यह भी हमारे ग्रह हैं जो एक दूसरे की ओर चक्कर लगाते रहते हैं। ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों के विज्ञान को खगोल  अर्थात ज्योतिष विज्ञान कहते हैं।  

     चर्चा के दौरान ही पहुँच गए जंतरमंतर के सामने। टिकट खिड़की से टिकट ले कर अंदर परिसर में चले गए। बच्चें इसे अच्छी तरह समझ सकें इस लिए हमने एक गाइड कर लिया। गाइड ने सबसे पहले हमें जगह खड़े कर जंतरमंतर को बनाने के बारे में बताया। 

जयपुर में एक महाराजा सवाई जयसिंह हुए थे जिनके नाम पर जयपुर शहर का नाम रखा गया। वे ज्योतिष विद्या से बहुत प्रेम करते थे

 इसलिए उन्होंने जयपुर में वर्ष 1734  में एक वेधशाला का निर्माण करवाया जिसे जंतर मंतर कहा जाता है। यह कई खगोलीय यंत्रों का एक समूह हैं, जिसे चुने और पत्थरों से बनवाया गया है। ये रचनाएं इतनी मजबूत और नई  लगती हैं जैसे कि  अभी-अभी बनी हो। उहोंने एसी वेधशालाएं जयपुर के अलावा चार और जगह दिल्ली, मथुरा, बनारस एवं उज्जैन में भी बन वाई। इनमें सबसे बड़ा जयपुर का जंतर मंतर है। इसे देखने के लिए पूरी दुनिया के पर्यटक आते हैं। 

  इतना बता कर वह हमें ले गया एक यंत्र के पास जिसमें बीच में छोटी सी सीढ़ी बनी थी और आसपास आधे चंद्रमा की तरह  ऊपर की ओर निकलती हुए रचनाएं थी। वह बताने लगा इसे सूर्य यंत्र कहते हैं जिस से समय का पता लगाया जा सकता है। एक ओर उंगली से इशारा कर बताया, वह जो बड़ी सी रचना देख रहे हैं " सम्राट यंत्र " है जो इसी का बड़ा रूप है। अब गाइड ने इस यंत्र पर जिस जगह सूर्य की परछाई थी के आधार पर गणना कर उसमें स्थानीय समय जोड़ कर जब समय बताया और कहा अपनी घड़ी से मिलान करें। जब मामा जी ने घड़ी देखी तो सभी आश्चर्य में पड़ गए, एक दम सही समय बताया था। मेघा ने ऋतु से कहा दीदी यह तो गजब हो गया इस यंत्र से इतना सही समय एक मिनट का भी अंतर नहीं। गाइड ने जब हमें विशाल सम्राट यंत्र दिखाया तो ऋतु बोल उठी, "वाह ! इतना बड़ा।

   गाइड ने हमें यहां बने अन्य यंत्र भी दिखाए और उनकी विशेषताएं भी बताई। राम यंत्र भी दो भागों में बटा है जो एक - एक घंटे के अंतर से कार्य करता है। यंत्रराज से जयपुर की आकाशीय स्थिति, सप्तऋषि मंडल, ध्रुव तारे और 27 नक्षत्रों की स्थित का पता लगाया जा सकता है। इनके अलावा दक्षिणोदक भित्ति यंत्र, राशिवल्य यंत्र, कपाली यंत्र, चक्र यंत्र आदि कुल 16 यंत्र बनाए गए हैं।

      यहां के यंत्रों से हवा के बहने की दिशा का पता कर अनुमान लगाते हैं कि इस बार बरसात कैसी होगी, गृह -नक्षत्रों की गति की जानकारी और मौसम का अनुमान  का पता किया जा सकता है। विभिन्न राशियों पर सूर्य की गति का भी पता लगाया जा सकता है।

इसके ज्योतिषीय महत्व की वजह से इसे यूनेस्को ने वर्ष 2010 में इसे अपनी विश्व विरासत सूची में शामिल किया है, जिस से इसका महत्व पूरी दुनिया में हो गया है। निश्चित ही यहां के यंत्र  बच्चों के खगोल ज्ञान में रुचि बढ़ाते हैं। इसे देखने का समय प्रातः 10 बजे से सांय 5 बजे तक है। बच्चों के लिए जंतर मंतर देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं था, वे आश्चर्चकित थे, नई -  नई  जानकारी पा कर।

करीब एक घंटा समय लगा देखने में  और हम बाहर आ गए। नींबू पानी के ठेले को देख कर उसके पास जा कर नींबू पानी का जायका लिया। करीब दो बज गए थे, घर जाने का समय भी हो गया था, टैक्सी में सवार होकर घर की राह पकड़ ली। रास्ते भर हवामहल और जंतरमंतर पर ही बच्चों की चर्चा होती रही, मैं भी रुचि ले कर सुनता रहा मुस्कुराता रहा और घर आ गया। टैक्सी वाले को किराया भुगतान कर उसका धन्यवाद अदा किया। दोपहर का भोजन कर , बहन के सुझाव पर शाम को बिड़ला मंदिर जाने का प्रोग्राम बना कर सभी सो गए।

  शाम हो गई हम सोए पड़े थे। बहन प्रभा ने सबको जागते हुए कहा कब तक सोते रहोगे उठो, बिड़ला मंदिर नहीं चलना क्या ? सब नींद से जागे और उठ बैठे। चाय पी कर तैयार हुए।बिड़ला मंदिर जाने के लिए ऑटोरिक्शा में सवार हो कर सांय 6 बजे बिड़ला मंदिर पहुंच गए। दिन का हल्का हल्का उजाला था, पर  रंगबिरंगी रोशनी से जगमगा रहा था। बच्चें भी इसकी सुंदरता को देख कर खुश हो रहे थे। खाने पीने के चटपटे व्यंजनों के ठेले लगे थे।  रंगबिरंगे गुब्बारे बेचने वालों के पास छोटे - छोटे बच्चे गुब्बारा लेने को मचल रहे थे।

      टिकट ले कर हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया। बच्चें ही क्या हम बड़े भी खूबसूरत हरेभरे लॉन, विभिन्न प्रकार के फूल, रंगबिरंगे  फव्वारे, लॉन में लगी धार्मिक और महापुरुषों की प्रतिमाएं देख कर खुशी का अनुभव कर रहे थे।  जब मंदिर के समीप गए तो ऋतु ने बच्चों से कहा  देखो-देखो कैसा दूध जैसा सफेद लग रहा है मंदिर और कितना ऊंचा है मंदिर का शिखर, लगता है आसमान को छू रहा हो। मंदिर के सामने की तोरण वाली कारीगरी देख अरे वाह ! यह तो वास्तव में बहुत ही खूबसूरत और लुभावनी जगह है, ऋतु ने दोनों बहनों की ओर इशारा करते हुए कहा। इन तोरण द्वारों की सुंदर कारीगरी देखते ही बनती है। 

  मंदिर के प्रवेश द्वार के दरवाजों पर बेल्जियम के काँच  पर हिन्दू देवी-देवताओं के सुन्दर चित्र दिखाई देते हैं। काँच पर बने इन चित्रों की खासियत यह है कि इन्हें अन्दर और बाहर दोनों तरफ से देखा जा सकता है। बिना स्तम्भों वाला सुंदर विशाल सभा मण्डप शांति प्रदान करता है। गर्भगृह में स्थापित मानव के आकर से भी बड़ी और खड़ी मुद्रा में भगवान विष्णु व लक्ष्मी की प्रतिमाएँ एक ही संगमरमर के पत्थर से तराशी गई हैं, आकर्षित हैं और देखने वालों में श्रद्धा और  धार्मिक भाव  भर देती हैं।मन्दिर की आन्तरिक सज्जा हिन्दू देवी-देवताओं के पौराणिक चित्रों से की गई है। चित्रांकन श्री राम के साथ रामायण के बारे में जानकारी देते  हैं। मंदिर एक दम साफ सुथरा और धार्मिक वातावरण लिए है। सौभाग्य से हमें आरती के दर्शन भी हो गए। मंदिर के बाहर चारों और परिक्रमा मार्ग में दीवारों पर सजी असंख्य कारीगरी वाली मूर्तियों  जो दक्षिण भारत की कला शैली की  लगती हैं की सुंदरता का तो कहना ही क्या। सेठ बिड़ला द्वारा बनाए जाने पर इसे बिड़ला मंदिर कहा जाता है और लक्ष्मी नारायण भगवान का मंदिर होने से लक्ष्मीनारायण मंदिर भी कहा जाता है। खास बात रही कि विदेशी सैलानी भी इसे देखने आए थे।

  इस मंदिर में प्रवेश के दो मार्ग हैं । एक मार्ग मोती डूंगरी गणेश मन्दिर की ओर से तथा दूसरा मार्ग जवाहर लाल नेहरू मार्ग की तरफ से जाता है।  मंदिर देख कर बाहर आ रहे थे तभी बहन ने कहा सामने ही जयपुर के प्रसिद्ध मोती डूंगरी मंदिर के गणेश जी के दर्शन भी कर लेते हैं। 

  हमने प्रथम पूज्य गणेश मंदिर की राह पकड़ी। बाहर का माहौल बड़ा ही धार्मिक था। बेसन  और मोतीचूर के लड्डुओं के प्रसाद , फूलमालाएं, अगरबती, नारियल आदि पूजा सामग्री की दुकानें सजी थी। रविवार होने पर भी काफी भगतगण दिखाई दे रहे थे। प्रसाद और पूजा सामग्री ले कर कुछ सीढ़ियां पार कर गणेश जी के सामने थे। सिंदूरी रंग की गणेश जी की भव्य मूर्ति थी। गणेश जी की सूण्ड दाईं ओर है जिस पर सिन्दूर का चोला चढ़ाकर भव्य श्रृंगार किया जाता है। गणेश जी के मस्तक पर चाँदी का मुकुट और छत्र लगा था। प्रसाद चढ़ा कर मन भर कर दर्शन किए। 

    पुजारी जी से ऋतु ने पूछ लिया, आप हमें मंदिर के बारे में कुछ बताओ ! पुजारी जी ने बताया यहां गणेश जी की का बड़ा विश्वास है, लोग विवाह के समय प्रथम निमंत्रण पत्र के कर आते हैं और कामना करते हैं विवाह बिना किसी बाधा के सफलता से सामान हो जाए। जब भी कोई नई कार या स्कूटर खरीदता है पूजा करवाने गणेश जी के पास आता है। नवरात्र, रामनवमी, धनतेरस, दशहरा और दीपावली जैसे खास मुहूर्त पर वाहनों की पूजा के लिए यहीं लम्बी कतारें लग जाती हैं। यहां पांच बार आरती की जाती है। आगे उन्होंने बताया मन्दिर में होली पर फागोत्सव का आयोजन देखते ही बनता है। यहाँ हर वर्ष अन्नकूट एवं पौषवड़ा के आयोजन भी उत्सव के रूप में मनाये जाते हैं। वैसे तो बुधवार को तो भक्तों का मेला लग जाता है परंतु गणेश चतुर्थी के अवसर पर यहाँ विशेष रूप से मेले का आयोजन किया जाता है।

   पंडित जी यह मंदिर कैसे और कब बना आपको पता हो तो हमें बताएं। पंडित जी ने बताया कि गणेश जी की प्रतिमा को जयपुर नरेश माधोसिंह प्रथम की पटरानी के पीहर से लाया गया था। सेठ पालीवाल यह मूर्ति उदयपुर के मावली क्षेत्र से लाए थे और राजा ने उनको ही मन्दिर का निर्माण कराने की जिम्मेदारी सौंप दी थी। उनके द्वारा मन्दिर का निर्माण  कार्य प्रारम्भ किया गया जो वर्ष 1761 में बनकर तैयार हुआ। मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा  वैदिक रीति रिवाज के साथ की गई। आज यह मन्दिर राजस्थान के प्रमुख आस्था केन्द्रों में अपना विशिष्ट पहचान रखता है।

     सभी में पुजारी जी के चरण स्पर्श किए और उन्होंने आशीर्वाद स्वरूप सब को गणेश जी का प्रसाद और माला देते हुए कहा हजार में से कोई एक आता है जो मंदिर के बारे में जानकारी लेता है। मुझे लगा कि पुजारी जी भी हमें जानकारी दे कर खुशी महसूस कर रहे थे।

  गणेश जी के दर्शन कर और पुजारी जी से मंदिर के बारे में जान कर मंदिर से बाहर आ गए। मंदिर के बारे में इतनी जानकारी पा कर बच्चें ही नहीं हम भी बहुत आनंदित थे। ऋतु ने कहा किसी जगह जाएं और वहां की जानकारी भी न लें तो जाने का लाभ भी क्या है । 

 मैंने पूछा अब घर चले ? बहन ने कहा यहीं बाजार में कुछ खा लेते हैं पिकनिक ही हो जाएगी। रामबाग की चौपाटी पास ही हैं वहां चलते हैं। ऑटोरिक्शा कर चौपाटी पहुंच गए। सबने अपनी - अपनी पसंद से किसी ने मसाला दौसा, किसी ने इडली तो किसी ने पनीर परांठे का लुफ्त लिया। बाद में सबने पानी पूरी खा कर इस अचानक हुई पिकनिक का भरपूर मज़ा लिया। यहां से ऑटोरिक्शा कर घर पहुंच गए।  बच्चें बोले मामाजी आज मजा ही आ गया घूमने का घूमना और साथ में पिकनिक । 


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