पुस्तक समीक्षा मानस की गूंज ( काव्य संग्रह )

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Published on : 10 Jul, 25 01:07

जीवन आदर्शों की ओर प्रेरित करता सृजन

पुस्तक समीक्षा  मानस की गूंज ( काव्य संग्रह )

मानस की गूंज - काव्य संग्रह जयपुर की साहित्यकार अक्षयलता शर्मा का जीवन मूल्य काव्य श्रृंखला में तीसरी कृति है, जो हाल ही में प्रकाशित हुई है। कृति में विभिन्न विषयों और भावों पर स्वरचित 67 कविताएं संकलित हैं। इनकी कविताएं कृति शीर्षक मानस के अनुरूप आम आदमी के जीवन , संदर्भ और परिवेश से जुड़ी हैं। इनका काव्य सृजन  पाठकों को जीवन मूल्यों का महत्व समझा कर उनके लिए प्रेरित करता है।
  समाज में  अधिकारियों की मनमानी, दंभ, नैतिक मूल्यों की गिरावट, कर्मचारियों पर बढ़ते कार्य के बोझ से उत्पन्न तनाव और दबाव की बढ़ती प्रवृतियों पर चिंता झलकती है। देश भक्ति और राष्ट्र भक्ति के लिए प्रेरित करती कविताएं हैं। श्रम का महत्व प्रतिपादित करती हैं। गौरक्षा के  संदेश के साथ गौहत्या पर चिंता की गई है। औषधीय पौधों और वनस्पति का संरक्षण, पर्यावरण,  खेल भावना, प्रकृति, शिक्षा, मजबूत बुनियाद, अन्याय से मुक्ति, सद् व्यवहार, सच्चाई का महत्व, स्वदेश प्रेम, महिला - पुरुष समानता, हिन्दी का महत्व, समाज में व्याप्त विकृतियां, समाज में व्याप्त संक्रमण , मूल्यों का अवमूल्यन, साहित्य का आनंद एवं पुस्तक का महत्व जैसे विषयों पर किया गया काव्य सृजन चेतना जागृत करता हैं। भक्ति रस  पाठकों को भक्ति की धारा में बहा ले जाता है वहीं हास्य रस मनोरंजन की धारा में।
 विषय भले ही सामान्य और हमारे इर्दगिर्द के परिवेश और संदर्भों से जुड़े हैं परन्तु इनका काव्य सृजन पाठक के मानस पटल पर अपनी गहरी छाप छोड़ता है। कहीं - कहीं शब्दों की जटिलता आम पाठक के लिए प्रवाह में बाधक है, परंतु काव्य की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती है। अपनी भावनाओं को कवियित्री ने बहुत ही गहराई से डूब कर लिखा है। एक ही विषय को लेकर एक से अधिक सृजन हैं परन्तु भाव सब के अलग-अलग संदेश देते हैं, जो इनके सृजन कौशल का प्रबल प्रतीक है। काव्य में पिरोई गई समस्याएं इनके मन की व्यथा का दर्पण है वहीं समाधान पाठक के चिंतन पर छोड़ दिया है। संग्रह की अधिकांश रचनाएं लंबी हैं जिनमें विषय को विस्तार दिया गया है, परंतु उनकी रोचकता और प्रवाह पाठक को बांधे रखता है।
       " बुनियाद गहरी : पक्की : दमदार चाहिए" कविता के प्रेरक भाव देखिए ( पृष्ठ ३९ )........

" रास्ते बहुत हैं बढ़ते जाने के लिए /  मंजिलें बहुत हैं चढ़ते जाने के लिए/  किन्तु मंजिल को मजबूती चाहिए / मजबूती की गहरी पहचान चाहिए / अट्टालिका जो गगनचुंबी चाहिए /  तो बुनियाद गहरी, पक्की, दमदार चाहिए /
 देश की प्रगति को शैक्षिक उत्थान चाहिए / शैक्षिक उत्थान को नींव गहरी, दमदार चाहिए/ है क्षमता सीखने की कितनी /  ले आधार इसका/ वर्ग-विभाजन / निष्पक्ष कक्षा का अवश्य होना चाहिए / परीक्षा तिथि-निर्धारण भी / पृथक् पृथक् अवश्यमेव होना चाहिए।
मूल्यांकन महनीय सोपान सुशिक्षा का / विषय-प्रकृति-अनुकूल समयनियोजन चाहिए/ 
शिक्षा में सुधार का कदम ही /  मूल्य थामता हाथ होगा बेशक / रह जाएँ खामियाँ विद्यार्थी में तो / गुरु शिष्य, अभिभावक प्रभृति को सत्य को / हृदय से स्वीकार करना चाहिए / भाषा हिन्दी औ संस्कृत की ओर/ मूल संस्कृति की ओर / बढ़ता रुख सुलझाएगा निःसंदेह गिरते मूल्यों की गुत्थियाँ / श्रेयस्कर मंजिल तभी होगी हासिल/ सही अर्थों में।
      "कुर्सी की आग" काव्य सृजन में कहने का अंदाज़ देखिए ( पृष्ठ ४७ )...........

" सदुपयोग सीख जाना,/  शिक्षित होने का एक लक्षण है। /  प्राप्त शिक्षा का एक स्वरूप है, / और यह शिक्षा जब तलक / समाज का अंग बन न जाएगी, / कुर्सी की आग रोटी को कम, / आदमी को अधिक पकाएगी। / यह आग कभी घर में तो / कभी दफ्तर में नज़र आएगी। / और हाँ, उन सभी जगह /  नज़र आएगी, जहाँ किसी की /  गाड़ी किसी के बिना चल न पाएगी। / आग यह, घर और समाज ही नहीं,/  देश और समूचे विश्व को जलाएगी।"

" अफसोस" रचना के मर्म का एक अंश देखिए( पृष्ठ ७५ )..........

 " लगी है बीमारी / लगी है बीमारी, भूख बढ़ी है भिन्न-भिन्न/ तुष्टि को अमित भोग चाहिए /  भक्षण को सुस्वादु भोज चाहिए /  हलका हो या भारी / कचरा हो या रुग्णकारी ; शून्यसंयम /  ! अफसोस !! / साधन-प्रसाधन सब मिलें / किसी से न कम मिलें /  कोई न हमको कम गिने /  कम गिनें तो बस हम गिनें / दीखें तो हम; हम और हम ही हम; / अफसोस !! "

  " दूषण : सभी अवस्था में संक्रमण" कविता समाज में फैली संक्रमण पर चोट करती है, देखिए एक अंश (पृष्ठ ८७)...........

" दूर से ही जुड़ना आज की नियति है। /  सामीप्य में हावी होता मत्स्य-न्याय, / धर-दबोचने को, शक्ति प्रदर्शन या / अहंकार के तोषण को। / रह गई है दुनिया, दूर का धौल मात्र। / जीवन-संकेतिका संवेदना / सिमट चुकी है, नगण्य है, / शिक्षा औ संस्कार के साथ। / और, विशेष चुभन है यह / न केवल नई पौध में दूषण / सभी अवस्था में है संक्रमण !"
 कविता "झलक और परख" की गहराई देखे ही बनती है ( पृष्ठ १२९ )............

" झलक में ही मिल जाती,/  हो ग़र आत्मीयत की मिठास । / संवेदना सक्षम बनाती, / करने को अहसास । /  क्या कहा?/  दुहरा है जमाना। / मिलावटी ज़माना, / कलात्मक जमाना, / बौद्धिक युग में / बुद्धिमत्ता का जमाना/  फिर भी दर्पण है चेहरा। / सहज विश्वास को छोड़ो, / तनिक शंका को जोड़ो। /
अहसास और विश्वास को / परखो जाँचो, चेहरे को भाँपो। / हर अहसास गलत नहीं होता, / हर चेहरा मुखौटा नहीं होता। / हर विश्वास गलत नहीं होता, / दीखने वाला सच सभी झूठ नहीं होता। / विश्वास का कोना, तलाश कर ही थामना होता ।"
        संग्रह के सृजन की ये कतिपय बानगी कवियित्री के चिंतन, अभिव्यक्ति की गहराई और भाषा शैली का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रकृति, कान्हा तेरे देश में, छत, एक्स्ट्रा क्लास, अनबुझ सवाल, बहुत खूब है कुर्सी, हम तो अधिकारी हैं, क्यों बदनाम है कुर्सी, आवाज, जीवन की पुकार, परिमार्जन, चुभन, कर्म - सौंदर्य , खेलों का त्यौहार, औचित्य दीवारों का, ए मेरे भारत वर्ष, जब तू मेरे साथ है आदि रचनाएं भी अपना प्रभाव छोड़ती हैं। 
       राजस्थान साहित्य अकादमी , उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित कृति के प्राक्कथन में दुर्गेश चंद्र शर्मा लिखते हैं,"  अक्षयलता शर्मा की रचनाओं में उनकी अनुभूति एवम् सृजनात्मक दिशा दर्शन वर्तमान में एक कर्मनिष्ठ साहित्यकार का सराहनीय कर्तव्य निर्वहन है। यह रचनात्मक साहित्य सृजन मानव को सद्गुण संपन्न बने।" कवियित्री निवेदन में लिखती है, " जीवन आदर्शों की ओर प्रेरित करने का पुरजोर प्रयास करना मेरा विशेष ध्येय रहा है।" फ्लैप प्रकाशक का मत है ,"  संक्रमित समाज में एक ओर जहां आधुनिकता अपने पांव पसार रही है वहीं दूसरी ओर अतीत अपनी जड़ों को विस्मृत न करने का हवाला देकर खींचता रहता है। इस द्वन्द्व में दुविधा बहुत प्रबल है किन्तु रचनात्मकता के लिए यह उर्वर समय है। रचनाकर इन सब दुविधाओं और द्वन्द्व को यत्र-तत्र रेखांकित करती हैं। अपने समय को खुली दृष्टि से देखते हुए गौरवशाली संस्कृति के वैभव को आत्मसात् करने की अपील करती ये रचनाएं बिना पक्षपात किए अपना पक्ष चुन लेती हैं। पाठक इससे सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं किन्तु इन रचनाओं को नकार नहीं सकते।" आवरण पृष्ठ सुंदर है। इस पुस्तक के दो संस्करण पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं।

पुस्तक : मानस की गूंज ( काव्य संग्रह )
लेखिका : अक्षयलता शर्मा
प्रकाशक : बोधि, जयपुर
प्रकाशन वर्ष : 2025
पृष्ठ : 144
प्रकार : हार्डबाउंड
मूल्य : 249 रुपए
आईएसबीएन : 978 - 93 -5536 - 666 -5

परिचय :
कवियित्री का जन्म  1959, कोटा (राजस्थान) में हुआ। आपने एम.ए. हिन्दी एवं संस्कृत, बी.एड., आयुर्वेद रत्न की शिक्षा प्राप्त की है।
 पठन-पाठन, लेखन, योग व अध्यात्म  में आपकी विशेष रुचि है। अपने शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान की हैं। गद्य लेख, नाटिका, कहानी, लघु कहानी, लघुकथा आलेख और पद्य विधा में  कविता, गीत, मुक्तक, बाल कविता, बालगीत एवं प्रहेलिका लिखती हैं। काव्य-संग्रह 'जीवनमूल्य', 'जीवनमूल्य' (द्वितीय सुमन), 'मानस की गूंज' (जीवनमूल्य तृतीय सुमन), कहानी 'कृतघ्न', 'अंधेरे में' और लघुकथा 'समझ' आपकी कृतियां हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी हैं और साहित्य श्री' (द्वारा भारतेन्दु समिति) सहित अन्य पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। 
संपर्क मो. 94617 04390

 


साभार :


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