हाड़ौती अंचल की रोचक लोककथाएं "मनोरंजन कर चेतना जगाती लोक कथाएं"

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Published on : 28 Jun, 25 06:06

हाड़ौती अंचल की रोचक लोककथाएं  "मनोरंजन कर चेतना जगाती लोक कथाएं"

देश के विभिन्न अंचलों में कई लोक कथाएं प्रचलित हैं,जो प्राय: मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और अंचल विशेष की  संस्कृति, रीति-रिवाजों और मान्यताओं की जानकारी देने के साथ-साथ मनोरंजन कर कोई न कोई नैतिक शिक्षा प्रदान करती हैं और सुनने वाले को अपनी जड़ों से जोड़ती हैं। ये कथाएं पशु-पक्षी, सुर-असुर, देव-परियां, पेड़-पौधे, प्रकृति का मानवीकरण, चमत्कार, प्रेम, वीरता, धार्मिक , हास्य , आश्चर्य, और रहस्य 
आदि विषयों और भावों को लिए होती हैं।  परियों और राक्षसों की लोककथाएं रहस्य और आश्चर्य का पुट होने से बच्चों को खूब भाती हैं ,
कभी वे बड़े चाव से इन्हें सुनते थे। 
            राजस्थान की एक प्रसिद्ध आंचलिक प्रेम कहानी ढोला-मारू जो ढोला और मारू के प्रेम और संघर्षों का वर्णन करती है। गोपीचंद नामक प्रसिद्ध लोकगाथा, राजा गोपीचंद के जीवन और वैराग्य की कहानी कहती है। बगड़ावत राजस्थान की एक वीरतापूर्ण लोकगाथा जो बगड़ावत राजपूतों के बलिदान और संघर्ष को दर्शाती है। लैला-मजनू, हीर- रांझा, सोहनी-महिवाल लोक कथाएं सदियों से प्रचलित हैं। कई लोक कथाओं पर नाटक खेले जाते हैं और फिल्में भी बनी हैं। हरिश्चंद और पृथ्वी राज की लोक कथाएं भी खूब प्रसिद्ध रही हैं और इन पर गांव - गांव में नाटक भी खेले जाते रहे हैं। कई बार एक ही लोक कथा को अलग-अलग  अंचलों में अलग-अलग ढंग से कहा और सुना जाता है।  पौराणिक लोक कथाएं लोगों के बीच एकता, आपसी प्रेम, भाईचारे और सक्षम होने का ज्ञान प्रदान करती हैं और ये लोक कथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी यात्रा करती हैं। इस प्रकार आंचलिक लोक कथाएं हमारे लोक साहित्य की अमूल्य निधि बन जाती हैं। वर्तमान में बदलती जीवन शैली से ये कथाएं एक तरह से गुजरे जमाने की बात बन कर रह गई हैं। अब शायद ही कही दुरस्त अंचल में इनकी खुशबू महसूस हो। 
     सांस्कृतिक साहित्य में आज भी अनेक आंचलिक लोक कथाएं संरक्षित और सुरक्षित हैं। ऐसा ही एक छोटा सा पर महत्वपूर्ण प्रयास कोटा की लेखिका श्रीमती श्यामा शर्मा ने करने का बीड़ा उठाया और सामने आई उनकी कृति
" हाड़ौती अंचल की रोचक लोककथाएं"।
उन्होंने अंचल के ग्रामीण परिवेश को अपने बचपन से जिया है। एसी कई कथाएं और लोकोक्तियां इन्होंने सुनी, इन पर आधारित नाटक देखें और इस माहौल के बीच पली और बड़ी हुई।  शायद इसी परिवेश और संदर्भ का असर कहें कि इन्होंने अंचल में प्रचलित १३ लोक कथाओं का एक संकलन प्रकाशित करवाया। ये आंचलिक लोक कथाएं अंचल की समृद्ध परम्पराओं और विश्वासों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
      संग्रह की प्रथम लोक कथा राजा, रानी और उसकी सात पुत्रियों के पात्रों को ले कर है। राजा जब भी सब से पूछता तुम किस के भाग्य का खाते हो तो छोटी राजकुमारी हमेशा एक ही जवाब देती कि वह तो अपने भाग्य का खाती है जब की अन्य सभी कहती वे राजा के भाग्य का खाती हैं।  "अपना- अपना भाग्य " लोक कथा भाग्य के प्रति भाग्यवादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। लोक कथा के एक अंश की बानगी देखिए..............
" थोड़े समय के पश्चात् कुंवर ने खजाने का ताला खोला तो वहाँ पर जला हुआ साँप दिखाई दिया और खजाने में हीरे, मोती, माणक, पन्ना जगमगा रहे थे। अब वो दोनो खुशी से रहने लग गये। एक दिन राजा ने रानी से कहा, "आज छोटी बेटी की बहुत याद आ रही है चलो उसे देखने चलते हैं।" राजा-रानी दोनों महल के सामने पहुँचे तो वहाँ का तो नजारा ही बदला हुआ दिखा। राजा-रानी आश्चर्य कर रहे थे। यह सब कैसे हुआ। इतने में सोने के झूले में झूलती हुई महल से राजा की पुत्री ने अपने माता-पिता को देखा और दौड़कर नीचे आ गई। वो सम्मान के साथ दोनों को महल में ले गई। उन्हें जलपान करवाया और उसके बाद सारा घटनाक्रम कह सुनाया। पुत्री की बात सुन राजा बहुत प्रसन्न हुआ। वो आज बड़ा खुश था। राजा बोला, बेटी तू सच ही कहती थी कि मैं तो मेरे ही भाग्य
का खाती हूँ। जब तेरा विवाह किया था उस समय भी तेरा भाग्य ही था। आज भी तेरा ही भाग्य है जिसने तुझको आज यह दिन दिखाया है। मैं सच में अपने घमण्ड के कारण सही दिशा में नहीं था। तू जो कहती थी मैं आज मान गया कि सब अपना-अपना भाग्य लिखाकर आते हैं और अपने ही भाग्य का खाते हैं। यह कह राजा की आँखे भर आईं, वह खुशी के मारे अपनी पुत्री से लिपट गया। यह सब देख रानी आज बहुत खुश थी।" ( पृष्ठ २७,२८ )
    लोक कथा बताती है किस प्रकार सबसे छोटी राजकुमारी के दिन और भाग्य बदलते हैं , जिसे देख कर राजा को भी मानना पड़ता है कि सब अपने-अपने भाग्य का खाते हैं। संदेश यही है कि हर व्यक्ति को उसके भाग्य के अनुसार ही मिलता है, भाग्य से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता।
      आंचलिक लोक कथा " तीस मार खाँ " भी भाग्य पर आधारित हास्य प्रधान कहानी है। इस लोक कथा का सार  है कि एक सेठ और सेठानी के गुजर जाने के बाद निठल्ला बेटा सेठ के कारोबार को संभाल नहीं पाता और वहां काम करने वाले व्यापार कर कब्जा कर स्वयं सेठ बन जाते हैं। बेटा एक दिन गुड लाता है और उस पर बैठी मक्खियों को कपड़े की मार से उड़ाना चाहता है तो वे उसी पर चिपक जाती हैं। वह उन्हें गिनता है जो संख्या में तीस निकलती हैं और वह अपना नाम तीस मार खाँ
 रख लेता है। एक साथ तीस को जो मार दिया। वह करता कुछ नहीं केवल अपने नाम की शेखी मारता फिरता है । पत्नी को साथ ले कर गांव छोड़ देता है। भाग्य का खेल देखिए बिना कुछ करे भाग्य वश राजा की आज्ञा पूरी हो जाती है। वह गधे के मुगालते में शेर पकड़ पकड़ लेता है, उसे घर के पीछे रस्सियों से बांध देता है। फिर जब चोरों को चार दिन में पहाड़ने का फरमान आता है तो घर छोड़ने से पहले बनाए गए लड्डुओं में न जाने कैसे चूहे मारने का जहर मिल जाता है, जिन्हें खा कर घर में चोरी करने आए चार चोर मर जाते हैं। तीस मार खाँ को राजा खुश हो कर तीन खड़्या महल चुनवा देता है और पांच गांव जागीर में दे देता है।  दोनों पति-पत्नी ठाठ से रहने लगते हैं।" पढ़ते समय कई प्रसंग हंसा हंसा कर लोटपोट करते हैं। 
" मन्त्री ने राजा का फरमान सिपाही को सुना दिया। सिपाही दौड़े-दौड़े तीसमार खाँ के पास पहुँचे और बोले, 'तीसमार खाँ जी राजा का हुकुम है कि गाँव में शेर आता है और जानवरों का शिकार करके भाग जाता है। राजा जी को चार दिन में जिन्दा अथवा मरा हुआ शेर चाहिये।  तीसमार खाँ राजा का हुकुम सुन कर थरथर कांपने लगा- बोला, ठीक है राजा का हुकुम सिर-माथे पर। सिपाही जाने के बाद वह पत्नी से बोला, "सुन आज रात में हमे यहाँ से निकलना है। अपने टामटीम बोरी में भर ले और कपडों को गठरी में बाँध ले, आज रात में ही निकल लेंगे। नहीं तो राजा सवेरा होते ही गर्दन धड़ से अलग कर देगा। उसकी पत्नी उससे बोली, "क्यूं जी हमने क्या राजा के महल में डाका डाला है जो राजा हमारी गर्दन कटवा देगा।" तीसमार खाँ ने पत्नी को सारी बात बताई और कहा, कि हमें जल्दी से जल्दी पौ फटने से पहले गाँव छोड़ देना है। उसकी पत्नी ने कहा, ऐसा करो एक गधा पकड़ लाओ जिस पर सामान लाद लेंगे। हम पैदल पैदल गधे के पीछे-पीछे चल चलेंगे। तीसमार खाँ को पत्नी की बात समझ में आ गई। वह रात में उठा और गधे की तलाश में निकल गया। तीसमार खाँ को लगा कि सामने पेड़ के नीचे गधा खड़ा है वह मन ही मन खुश होकर बोला, चलो अच्छा हुआ जो गधा भी मिल गया। जबकि पेड़ के नीचे गधा नहीं शेर खड़ा था उसने गधा समझकर शेर का कान पकड़ा और घर के पिछवाड़े में लाकर रस्सी से अच्छी तरह बाँध दिया कि कहीं गधा भाग नहीं जाये। शेर ने सोचा कि ये तो मेरा भी बाप है इसलिए वह चुपचाप गाय की तरह तीसमार खाँ के साथ आ गया। तीसमार खाँ ने घर के अन्दर आकर पत्नी से कहा, अरी भागवान गधा ले आया हूँ घर के पिछवाड़े में बांध दिया है जल्दी से गठरी और बोरी ले आ नहीं तो उजाला हो जायेगा। गाँव के लोग हमें भागते हुए पकड़ लेंगे। अब तू ऐसा कर चिमनी जलाकर ले आ, बहुत अंधेरा है हाथ से हाथ और किसी का मुँह तक नजर नहीं आ रहा है। गधे पर सामान कैसे लादेंगे। उसकी पत्नी ने चिमनी जलाई और पिछवाड़े में पहुँच गई। चिमनी आलिये में रखकर वह सोचने लगी कि गधे को देख तो लूँ कहीं मरियल-सा तो नहीं है। तीसमार खाँ की पत्नी ने जाकर जब गधे को देखा तो जमीन उसके पैरों तले खिसक गई। वह दौड़ी और डरके मारे घर मे अन्दर घुस गई। किवाड़ लगाने के बाद पति से कहने लगी, गजब करते हो जी गधे और शेर में तुम्हें फर्क ही नजर नहीं आया। इतना बड़ा शेर कैसे पकड़ लाये। तीसमार खाँ ने पत्नी से कहा, अरे भली मनख तू क्या कहना चाहती है मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। अजी मैं तो सीधी ही बात कह रही हूँ तुम तो गधे की जगह शेर पकड़ लाये हो।" ( पृष्ठ ३२,३३ )
 संग्रह की लोक कथाएं "थप्पडखोर भाई" और " मोतियों का रुपहला पेड़", भी भाग्य प्रधान कथाएं हैं। " दगा किसी का सगा नहीं", " धरम की जड़ पाताल में", " समय समय का फेर" और " तीस मार खाँ " कथाएं लोकोक्तियों और कहावतों पर आधारित कथाएं हैं। राजकुमारी पंच फूला, रुपहली गुलगुल, ठंडी बासी, सोने के बाल वाली राजकुमारी, मोम की मक्खी और कठपुतली भी रोचक कथाएं हैं।
      मन की बात में लेखिका श्यामा शर्मा लिखती हैं, "  यह कृति "हाड़ौती अंचल की रोचक लोक कथाएँ" आपसे संवाद जैसी है। मैंने राजस्थानी भाषा की उस रोचकता को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास किया है जिसे कथन कहते हैं "।( पृष्ठ २३ ,) गिरधारी लाल मालव अपने मत में लिखते हैं, " पुराने जमाने में एक संस्कारित परिवार राष्ट्र निर्माण में इन कथाओं के माध्यम से सहयोगी रहे हैं क्योंकि इनमें राष्ट्र, जन और संस्कृति है। वर्तमान समय में परिवारों के टूटने से संस्कृति और राष्ट्र निर्माण का क्षरण हुआ है। बड़े परिवार में अनावश्यक खर्चे नहीं थे, बचत देश के विकास कार्यों में काम आती थी। समाज में संगठन के महत्व को जाना जाता हैं। समाज के संगठित होने से व्यक्ति द्वारा अनादर, अनाचार, अत्याचार की घटनाएँ नहीं होती थीं। यह सारा असर लोककथाओं का था।" ( पृष्ठ २१ )
      जितेंद्र निर्मोही अपने विचार व्यक्त कर लिखते हैं, " रात्री प्रवास के समय रात काटने के लिए मुसाफिर इन्हें आपस में चकवा-चकवी के संवाद के रूप में सामने रखते थे। इन रोचकता सुनाने वाले की कुशलता पर निर्भर करती कि वह चतुराई से इसको लोगों के बीच में कैसे प्रस्तुत करता है। अकादमी स्तर पर भी इन लोककथाओं, लोकगीत, लोकनाट्य आदि के काम होना चाहिए जो विलुप्त होती जा रही हैं। पहले ये वंश परम्परागत सहजता से आगे बढ़ती जाती थीं अब वह बात नहीं रही है। गाँवों के लोगों का शहर की ओर पलायन, इनके वाचिक क्षरण के लिए जिम्मेदार है। अब जिम्मेदारी साहित्यकार पर है कि वो इन्हें कैसे सुरक्षित रखता है। धनिक वर्ग व बौद्धिक वर्ग से भी निवेदन है वे ऐसी पूँजी को प्रकाशित करने में सहयोग प्रदान करें।"। ( पृष्ठ  १६,१७ )
    पुस्तक की भूमिका में राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर के पूर्व अध्यक्ष डॉ. देव कोठारी अपने अभिमत में लिखते हैं, "संकलन की सभी लोक कथाओं के अधिकतर पात्र प्रायः उच्च वर्ग यथा-राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी, सेठ, सेठानी, ब्राह्मण-ब्राह्मणी आदि से सम्बन्धित हैं। सामान्य वर्ग में मालिन, पिंजारा, दासी, पड़ौसन, साधु, नाई आदि पात्र हैं। ईश्वरीय पात्रों में शंकर (महादेव), पार्वती आदि पात्र हैं। 'मोम की मक्खी' लोक कथा में राक्षस पात्र भी कथानक को आगे बढ़ाने में सहायक बन कर उभरा है। पशु-पक्षियों में बन्दरिया व कुत्ता जैसे पात्र हैं तो सरीसृप श्रेणी में सांप-नागदेवता जैसे पात्रों ने भी कथानक को विस्तार दिया है। हाड़ौती अंचल से संग्रह की 13 लोक कथाएं अक्षय भंडार की बानगी प्रस्तुत करती, महत्वपूर्ण कृति है "। ( पृष्ठ १३ )
अरविंद सोरल कृति को ," अपने बचपन की ओर लौटने को विवश करती कृति कहते हैं "। पुस्तक के फ्लैप पर विद्वान डॉ. आईदान सिंह भाटी लोक कथाओं को चेतना विकसित करने का माध्यम बताते हैं। भाषा शैली सरल ,सीधी और सुग्राहीय है। 


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