'ज्योतिर्गमय' ललित निबन्ध, साहित्य अकादमी, उदयपुर से देवराज उपाध्याय पुरस्कार से अलंकृत है। ज्योतिर्गमय का शाब्दिक अर्थ है अंधकार से प्रकाश की ओर। संसार में चारों और प्रकाश ही प्रकाश हो कहीं अंधकार नहीं हो अर्थात अच्छाई और खुशहाली हो। इन्हीं भावनाओं पर आधारित
ये निबन्ध भारतीय संस्कृति के प्रतिबिम्ब हैं। इन में पौराणिक सन्दर्भ, ग्रामीण परिवेश, जन-जीवन, शास्त्र-धर्म, नीति, उत्सवधर्मिता, वृक्षों की संस्कृति एवं विज्ञान, आदि विषयगत अद्भुत सृजन है। साथ ही हमारे विशेष लोकोत्सवों, तीज-त्यौहारों, जैसे-होली, दीवाली, साँझी, श्रवण-पूजन, गोवर्धन पूजा, उन के मनाने एवं पूजन, व्रत आदि के विधि-विधानों, उन की वैज्ञानिकता, प्रामाणिकता, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उन की सार्थकता, संस्कृति की अलंकारिकता, बसन्त जैसी मनोहारी ऋतु, पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों के निबंधों में मणिमाला के मोतियों की तरह पिरो कर आज की पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
हमारे दिल और दिमाग में रची - बसी सांस्कृतिक विरासत धार्मिक विचार और अनुष्ठान, आध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा, वेद - पुराणों के आख्यान, साहित्य, कला, लोक कला, संगीत, तीज - त्यौहार, शिष्टाचार, लोकाचार आदि पर केंद्रित पुस्तक के विषयों और प्रसंगों को आधुनिकता के परिपेक्ष्य में मौलिक चिंतन के साथ प्रस्तुत करने का ही एक अद्भुत प्रयास है ज्योतिर्मय। विषयों को पौराणिक संदर्भों के साथ-साथ अनुभवी बुजुर्गों और महिलाओं से प्राप्त गूढ़ जानकारियों से पुष्ट किया गया है।
संग्रह में शामिल 22 सांस्कृतिक ललित निबंधों की भाषा यूं तो सीधी, सरल है और पाठक के दिल में गहराई तक उतर जाती है, कई जगह संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू भाषा का उपयोग भी किया गया है। प्रतीत होता है जैसे निबंध पाठक से संवाद कर रहे हो। लेखन में प्रसंगों के साथ-साथ लेखिका का अपना दृष्टिकोण भी साफ दिखाई देता है। निबंध विचार के धरातल पर कहीं भी बोझिल नहीं होते हैं। निबंध में विद्वता का एहसास सहज ही होता है, जब ये पौराणिक और साहित्यिक प्रसंगों और उद्धरणों से अपने कथन को पुष्ट करती हैं। प्रस्तुतिकरण में परिवेश का चित्रण इनके लेखकीय कौशल के बिंब हैं।
"महाभारत" और "मैं समय हूं" धारावाहिकों के विख्यात उद्घोषक और रचनाकार हरीश भिमानी ने जब गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के महोत्सव के दूरदर्शन के अपने प्रसारण में इस पुस्तक के कुछ अंशों को शामिल किया तो कई दर्शकों ने इस पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की। "उन्होंने लिखा कि वे कृष्णा कुमारी के मौलिक दृष्टिकोण की सराहना करता हूं।" ( पृष्ठ 1) हरीश जी का यह लिखना ही इस पुस्तक की उपादेयता को तो सिद्ध करता है साथ ही संकेत भी करता है कि "ज्योतिर्गमय" सदियों से चली आ रही हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों के निबंधों का एक ऐसा संग्रह है जो दिशा बोधक भी है।
हर वर्ष के प्रारंभ में बसंत के आगमन की सभी प्रतिक्षा करते हैं। प्रेम और प्रकृति के सौंदर्य का यह पर्व कभी मदनोत्सव के रूप में एक माह तक मनाया जाता था। संग्रह का पहला निबंध इसी विषय " सखी ! बसंत आया" बेहद सुंदर और भावनाप्रधान निबंध हैं।निराला ही कई कवियों ने बसंत पर लिखा है और कोई भी कवि बसंत पर लिखे बिना नहीं रहते। निबंध में आधुनिकता से जोड़ते हर परंपरागत बसंत का बड़ा ही मनमोहक शब्द चित्र खींचा है। एक बानगी देखिए ( पृष्ठ 14).....
" ऋतुओं का राजा है तो उसी शानो- शौक़त के साथ आता है। प्रेम के रथ पर सवार होकर, रति-पति का धनुष हाथ में लिए समर्पण के गाजे-बाजों के साथ धूम मचाता आता है। यौवन का, सौन्दर्य का अधिपति जो ठहरा। इसके मुकुट की छवि तो न्यारी ही है। आम्र मंजरियाँ पहनता है। कृष्ण ने मोरपंख पहने तो इसने भी प्रकृति को ही चुना। अपने राजसी ठाठ-बाठ के साथ आकर बेचारे सीधे-साधे प्राणियों को विमूच्छित करने में इसे बड़ा आनंद आता है। उनकी इस हालत को देखकर जोर-जोर से खिलखिलाता और है, बेशर्म कहीं का। पता नहीं वियोगियों को सताने में इसे क्यों आनन्द आता है? क्या दुश्मनी है उनसे। उन्हें सताने में कोई कसर नहीं छोड़ता। और उनकी हालत देखते ही बनती है- "कंत बिना है गयो बसंत, बसंत अंतकारी सौं" एवं "प्राण की भीख वियोगिनी पै रितुराज ख फ़क़ीर है माँगन आयो", बड़ा शरारती है. चंचल, अल्हड और चपल भी किसी ग्रामीण मनचले च्वक की तरह। हथिनी की मदमस्त नशीली चाल में चलता हुआ बड़ा इठलाता है। बहत ढीठ है कृष्ण की तरह। खूबसूरती का गुमान तो है ही नो इसमें कोई शक भी नहीं है। अब तो जनाब पर पाश्चात्य संस्कृति का रंग भी चढ़ने लगता है। अपने सीने पर वेलेंटाइन डे का एक तगमा टांक कर इठलाने लगता है।"
बसंत, बसंत पढ़ते-पढ़ते जाहिर है आप भी बसंतमय हो गये होंगे। भावना करने की भी जरूरत नहीं पड़ी होगी। ये काम तो हमने ही कर दिया। अच्छा, आप मनाइये ऋतुपति का महोत्सव। 'बेस्ट ऑफ लक।' काश आपके साथ भी ऐसा हो मेरी तरह.....( पृष्ठ 20 )
" वय के उस मधुमास को, अब तक सकी न भूल,
गंध-गंध था हर दिवस, रात केवड़ा फूल।"
संग्रह का निबंध "श्री कृष्ण लौकिक और अलौकिक" एक ऐसा ललित निबंध है जो पाठकों को द्वापर युग में धर्म की रक्षा और अधर्म का विनाश करने वाले कृष्ण का अवतारी अर्थात लौकिक रूप के साथ-साथ अवतारवाद से परे अलौकिक अर्थात सामान्य पुरुष के क्रियाकलाप के दर्शन करवाता है। कृष्ण के जीवन के समस्त प्रसंगों , उनके कार्यों और ज्ञान मार्ग को बहुत ही रोचक शैली में कलमबद्ध किया है। कृष्ण यहां
इन्द्रधनुष की तरह वैविध्यपूर्ण रंगों की छटा बिखेरने वाला है। कुशल राजनीतिज्ञ, धर्मरक्षक, महान् गुरु, दूरदर्शी छलिया, नटखट लला, अलौकिक, रसिक आदि गुणों से अलंकृत है कृष्ण का जीवन। ( पृष्ठ 21 )
अलौकिक रूप में वह बाल लीलाएं कर माता को वात्सल्य सुख प्रदान करते हैं। मां यशोदा को माटी खा कर मुंह खोल कर मुख में ब्रह्मांड के दर्शन करा कर विस्मय में डाल देते हैं।। माखन चोरी करके गोपियों को अतुलित, अलौकिक प्रेम की अनुभूति तो करवाई ही साथ ही माखन को मथुरा जाने से रोकने का संदेश दिया। रसिक शिरोमणि रसेश्वर बनकर मधुबन में महारास रचाया। अहीर की छोहरियों की "छछिया भर छाछ पे नाच नाचने वाले" प्रेम-रस शिरोमणि, प्रेम की प्रतिमा, छैल छबीले, नटवर, ब्रज की आँखों के तारे बनकर रहे। बरसाने की लली राधा की प्रेमासक्ति ने श्री कृष्ण को प्रेम का पूर्ण चन्द्र बनाया है। राधा के बिना श्री कृष्ण एवं श्री कृष्ण के बिना राधा अपूर्ण है। दोनों के हास्य-लास्य, राग-रंग, नृत्य, महारास एवं प्रेम-माधुर्य युक्त लीलाओं ने सारे ब्रज मण्डल को आनन्दामृत पान कराया। दोनों ने दिव्य आलौकिक, पावन प्रेम की उदात्त भाव भूमि पर ब्रह्म एवं माया के एकाकार, एकरस की अनिर्वचनीय, अद्वितीय प्राण-प्रतिष्ठा की है।
( पृष्ठ 22, 23 )।
"यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।"
सच तो यह है कि इन्सान की तो क्या बिसात है कि वह ऐसे विराट पुंज के लिए कुछ कह भी पाये। उसका वर्णन तो शेषनाग जी, गणेश जी, सरस्वती माता मिलकर अगणितं कल्पों तक करें तो भी सम्भव नहीं है। बस इतना ही है कि श्री कृष्ण शाश्वत हैं कल भी थे, आज भी हैं, कल भी रहेंगे। ( पृष्ठ 33 )
मानवजाति को निष्काम कर्म का श्री कृष्ण यह संदेह प्रेरित करता रहेगा........
"कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचने।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्माते सङ्कोऽस्त्वकर्मणि।।"
" हर पल एक पर्व है " समय और इसके महत्व को लेकर लिखा गया बहुत ही सार्थक ललित निबंध है। आज जो है वहीं हमारा है कल का क्या भरोसा। समय को लेकर हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के क्यूटेशन उद्धत किए है। समय ही है जो राजा से रंक और रंक से राजा बना देता है, कितने ही हिटलर और रावण समय से मुंह की खा चुके हैं। यह समय ही था राम को बनवास दिलाया, राजा हरिश्चंद्र से हरिजन के यहां पानी भरवाया, पांडवों को अज्ञातवास भेजा, मीरा को, सुकरात को जहर दिलवाया। ( पृष्ठ 36 )
समय के इस फेर पर कवि वल्लभदास की कुछ पंक्तियाँ लिखती हैं ......... ( पृष्ठ 37 )
" समय सिंह स्यार होत, निर्धन कुबेर होत,
यारन में बैर होत जैसे केर-काँटे काँ
धीर तो अधीर होत, मंत्री बेपीर होत,
कामधेनु चोर होत नादेश्वर नाटे कौ
पुन्न करत पाप होत, बैरी सगौ बाप होत,
जेबरा कौ साँप होत अपने हाथ बाँटे कौ
कहै कवि वल्लभदास, तेरी गति तू ही जानै दिनन के फेर ते सुमेर होत माटी कौ "
" समय सदा हमारा साथ दे. हमारा ख़याल रखे इसके लिए इसके प्रति हमारी भी कुछ जिम्मेदारियाँ बनती हैं। जैसे हम नियमित जीवन जियें। अपने आहार-विहार, चिन्तन, मनन, व्यायाम, द्वारा नियमित दिनचर्या को अपनायें। अपना ध्यान रखें, तरोताज्जा, प्रफुल्लित, प्रसन्नचित्त व स्वस्थ रहें क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। कम खाएँ, कम बोलें, साथ ही गम खाना भी सीखें। स्वाध्याय को जीवन में विशेष स्थान दें। इससे विचारों में परिमार्जन होगा, दृष्टिकोण विशाल होगा, चिन्तन में प्रखरता, उदारता बढ़ेगी, ज्ञानार्जन भी होगा। दूसरों के गुण व अपने दोष देखें क्योंकि 'मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिए जिए'। 'स्व' से 'पर' का अनुसरण करते हुए 'सर्वे भवन्तु सुखिनाः' एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की सुरसरि में अवगाहन करें। सम्यक् जीवन-यापन हेतु जरूरी है कि कर्मवीर भी हम बनें। 'कार्य ही पूजा है' एवं "कर्मण्ये वाधिकारस्ते" ही हमारे ध्येय रहें क्योंकि लगभग सभी ग्रंथों में कर्म का विशेष स्थान है। स्वयं से प्यार करें, स्वयं की सहायता करें, ताकि ईश्वर हमारी मदद करे। संदेश यही है जो समय की कद्र करते हैं समय उनकी कद्र करता है, जो समय की कद्र नहीं करते समय भी उनकी कद्र नहीं करता है तथा समय का सदुपयोग कर हर पल को पर्व मनाए अर्थात हर पल की खुशी महसूस करें।
किताब की शीर्षक निबंध " ज्योतिर्गमय " तम को हरने वाले माटी के छोटे से दीपक पर केंद्रित है जिसकी बाती हमें प्रकाशमान करती है। सभ्यता के विकास के साथ जुड़ा दीपक हमारे पर्वों, धार्मिक क्रियाकलापों और मांगलिक अवसरों को रोशन कर हमें असीम खुशी का अनुभव करता है। नदियों में दीप दान की परम्परा है। दीपक को ले कर दीपावली का पर्व और परंपराओं के साथ उससे जुड़े भगवान राम के कथानक को जोड़ा है। दीपक के माध्यम से संदेश दिया है कि हम भी दीपक बने और अपने सद् कार्यों से समाज को आलोकित करें। लिखती है....( पृष्ठ 69 )
" इसी प्रकाश की महत्ता को ध्यानस्थ रखकर दीपावली की सतरंगी साँझ को गृह-लक्ष्मियाँ दीपदान करके "परस्यो पावणों" की रस्म अदा करती हैं। सोलह श्रृंगार करके, रंग-बिरंगे सितारों मष्ठित नव परिधान धारण करके हर द्वार-देहरी पर दीपक प्रज्ज्वलित करने जाती है। यही दीपावली की शाश्वत अवधारणा है। इसकी महत्ता अक्षुण्ण सर्वसिद्ध है कि एक दीपक से करोड़ों दीपक जलाये जा सकते हैं फिर कृपणता क्यों?" हमारा यही प्रयास रहे कि एक दीप से कोटि दीप जलें। अपने हिस्से का थोड़ा प्रकाश दान करके दूसरों की अँधेरी दुनिया जगमग कर दें। स्वयं दीपक बनकर अपने आसपास के पर्यावरण को प्रदीप्त करें। माटी के दीपों की जगह स्नेह, प्यार, सद्भावना व करुणा की लौ झिलमिल करें। लेकिन दीपक जलाने से ही पर्व की इतिश्री नहीं हो जाती अपितु बुझते दीपकों में और स्नेह उड़ेलना भी अपेक्षित है। ग़रीबी, शोषण, हिंसा, नफ़रत, आतंक, भटकाव, प्रकृति प्रकोप से जो दीपक बुझने के समीप हैं उन्हें प्यार, करुणा, सत्य, ममता, एकता का घृत उड़ेल कर प्रकाशित रखें।" अंत में दीपक और ज्योतिपर्व पर लिखती हैं.....
"डगर-डगर दीपक जले, चमक उठे घर द्वार तम पर हों विजयी यही, ज्योति-पर्व का सार।
दहेज के दावानल से बचने के लिए परंपरागत विवाह पद्धति में शामिल " सामूहिक विवाह - सार्थक आयोजन" निबंध में इसके महत्व को बखूबी प्रतिपादित किया गया है। दहेज की कुप्रथा और इसके कारण होने वाली कई समस्याओं के समाधान के लिए आज कई समाजों ने इसे अंगीकार कर लिया है। जरूरत है कुलीन वर्ग भी इस दिशा में आगे आए।
" दहेज उन्मूलन में सामूहिक विवाह से श्रेष्ठ कोई विकल्प नहीं हो सकता है अतः आयोजकों एवं वर, वधू पक्षवालों को पूर्ण निःस्वार्थ भाव से योगदान देकर इन विवाहों की चिर-अक्षुण्णता बनाये रखने में अपना दायित्व निर्वाह करना चाहिए एवं भावात्मक एकता, परस्पर प्रेम, राष्ट्रीय बचत को ध्यानस्थ रखकर राष्ट्रीय समृद्धि, सामाजिक उत्थान एवं सांस्कृतिक उत्थान एवं गौरव रक्षार्थ सामूहिक विवाह स्वीकार करना चाहिए एवं इनके उत्तरोत्तर उन्मेष हेतु प्राणपण से जुटना चाहिए।" ( पृष्ठ 43 )
संग्रह के अन्य निबंध सांझी चित्रण ; एक लोक पर्व ( पृष्ठ 45 ), भाई - दूज ( पृष्ठ 56 ),देवशयनी एकादशी ( पृष्ठ 74 ), राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है ( पृष्ठ 79 ), संस्कृति के अलंकरण : मांडने ( पृष्ठ 86 ), रावण एक अविस्मरणीय चरित्र ( पृष्ठ 92 ), कोटा - दशहरा ( पृष्ठ 103 ), रक्षाबंधन और श्रवण - पूजन ( पृष्ठ 108 ), गोवर्धन पूजन : विविध आयाम ( पृष्ठ 111 ), कन्यादान ( पृष्ठ 116 ),
परंपराओं का औचित्य ( पृष्ठ123 ), दाम्पत्य जीवन में सामंजस्य ( 130 ), गणगौर पूजन ( पृष्ठ 132 ), पावन स्नेह पर्व : रक्षाबंधन ( पृष्ठ 145 ) एवं होली एक अग्नि पर्व ( पृष्ठ 152)
निबंध भी समय, काल और वातावरण आधार पर हैं, जिनमें प्रचलित परम्परा, संबंधित प्रसंग और आधुनिकता का समावेश लेखन कौशल की दक्षता का प्रतिबिंब है। संग्रह के सभी निबंध परिवार, समाज और देश को जोड़ने का संदेश देते है। सांस्कृतिक परम्पराओं से परिचय करवाते हैं। इनमें परम्परा के साथ - साथ वातावरण और परिवेश का अच्छा सामंजस्य प्रस्तुत किया गया है।
पुरातत्व विशेषज्ञ स्व. रमेश वारिद पुस्तक के फ्लैप पर इसे संस्कृति और जीवन को अभिव्यक्त करने वाली कृति कहते है। लिखते हैं " प्रेम, श्रृंगार, प्रकृति, नीति, अध्यात्म, धर्म, संस्कृति और परम्परा शास्त्र-जीवन, लोक परम्परा के सन्दर्भ में कृष्णा कुमारी ने "ज्योर्तिगमय" सांस्कृतिक निबन्ध संग्रह में ऋतु-उत्सव और पारम्परिक माण्डने जैसी लोक परम्पराओं को निबन्धों में अपनी अनुभूति और आज के जीवन और संस्कृति के चिन्तन-प्रवाह के साथ प्रस्तुत किया है। मूल्यों के अवमूल्यन और अपसंस्कृति के दौर में कृष्णा कुमारी की यह कृति एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। उक्त निबन्ध संग्रह में सामाजिक सरोकार के बोध को अभिव्यक्त किया है। समाज और संस्कृति तथा साहित्य और जीवन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। "ज्योतिर्गमय" कृति का शीर्षक अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त के 'तमसोर्माज्योतिर्गमय' से लेकर शास्त्र और लोकोत्सव, पारम्परिक लोक चित्राङ्कन-लोक जीवन को सतरंगी-इन्द्रधनुष-सी रंग-बिरंगी सार्थक अभिव्यक्ति के संस्कृतिमय रंग बिखेर कर कृतिकार ने कृति पढ़ने की उत्सुकता जाग्रत की है।"
दो शब्द में प्रसिद्ध उद्घोषक और रचनाकार हरीश भिमानी लिखते है, "
'ज्योतिर्गमय', सही अर्थ में पथ प्रदर्शक है। पीढ़ियों से चले आ रहे रीति-रिवाजों पर लगे प्रश्नार्थ चिन्हों को हम बिना समझे ही निभाते आ रहे हैं। इन्हीं को पूर्ण विराम तक ले जाने का सफल प्रयास है 'ज्योतिर्गमय'। एक तरह से हमारे सांस्कृतिक पुरातत्व को 'वर्तमानता' देने का प्रयास है यह, ग्रहण कर सकें ऐसे तर्क के माध्यम से, आसान शब्दों में। परिणाम यह, कि तीज-त्यौहारों का महात्म्य समझने पर, हमारी श्रद्धा, ज्ञान का स्वरूप ले लेती है। जन्माष्टमी के पर्व पर, कृष्ण जन्म के उपलक्ष्य में दूरदर्शन पर जीवंत प्रसारण करते हुए, मैंने इसी पुस्तक की पाण्डुलिपि का सहारा लिया था। मुझे बाद में बताया गया कि मेरे 'ज्ञान से चकित होकर' कई दर्शकों ने सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। कृष्णा कुमारी जी के इस मौलिक दृष्टिकोण की मैं सराहना करता हूँ ।
"और क्या कहूँ " में मन की बात लिखते हुए लेखिका कृति के लिखे जाने के पीछे के अपने बचपन के उन प्रसंगों को लिखा है जिनमें इन निबंधों की अदृश्य प्रेरणा दिखाई देती है। अपने पिता को श्रेय देते हुए लिखती हैं, " साहित्य, कला, संगीत के मर्मज्ञ, विलक्षण व्यक्तित्व से सम्पन्न, सुसंस्कृत पिताश्री श्री प्रभुलाल जी वर्मा के सान्निध्य एवं वात्सल्य की घनी छाँव ने मेरा जीवन-पथ आलोकमयी कर दिया।" परम् विदुषी, धर्मपरायण माताश्री श्रीमती रामदुलारी की अक्षुण्ण आस्था का स्मरण कर लिखती हैं, " प्रतिदिन सत् साहित्य का, वेदों-पुराणों का पठन-पाठन, चिंतन-मनन करना उनकी जीवन शैली का प्रमुख अंग था। कई ग्रंथ उन्हें कण्ठस्थ हो चुके थे। बात-बात पर कोई भी उद्धरण, प्रसंग वो बताती रहतीं और चलते-फिरते मेरे कानों में पड़ते रहते जो हृदय में बस जाते। आगे लिखती हैं ,
" ज्योतिर्गमय में जहाँ मेरा माधुर्य-पूर्ण बाल्यकाल प्रतिबिम्बित हुआ है वहीं मेरे घर-परिवार का धार्मिक, आध्यात्मिक वातावरण भी साकार हुआ है। कुछ आलेखों को मैंने पौराणिक एवं अन्य संदर्भों से प्रमाणित करने का प्रयास किया है, आधुनिकता से भी जोड़ा है, तो परम्पराओं के औचित्य को परखने एवं अपनी अल्पबुद्धि से कुछ मौलिक चिंतन प्रस्तुत करने की भी कोशिश की है, जैसे- "रक्षाबंधन पर श्रवण...". "रावण एक अविस्मरणीय चरित्र", "होली एक अग्निपर्व". "हर पल एक पर्व है", "सखि! बसंत आया", "विज्ञान, संस्कृति और वृक्ष" आदि-आदि।अद्भुत है हमारी संस्कृति जिसका हर पहलू हर क्षण नूतनता का आभास देता है, ऐसा मैंने महसूस किया है।" अंत में संदर्भ देना लेखिका की पारदर्शिता को दर्शाता है। आवरण पृष्ठ पर अंधकार में प्रज्जवलित दीप समूह से लाल रंग का स्पेक्ट्रम अत्यंत आकर्षक है और शीर्षक को सार्थक बनाता है।
पुस्तक : ज्योतिर्मय ( निबंध संग्रह )
लेखक : डॉ. कृष्णा कुमारी, कोटा
प्रकाशक : अनिल प्रकाशन, दिल्ली
संस्करण : प्रथम 2006
मूल्य : 175
साहित्यिक परिचय :
डॉ. कृष्णा कुमारी राजस्थान के कोटा शहर में निवास करती हैं और साहित्य जगत में अथक परिश्रम से अपनी पहचान कायम की है। प्रेम और प्रकृति सौंदर्य इनके प्रिय विषय है। इनके काव्य संग्रह इन्हीं विषयों से प्रेरित है। निबंध और यात्रा वृतांत खूब चर्चित हैं। बाल साहित्य लेखन में प्रवीण हैं और बाल साहित्य में ही डॉक्टरेट की उपाधि हांसिल की है। साहित्य के क्षेत्र ने देश की कई प्रतिष्ठित संस्थाओं से आप
अलंकृत और सम्मानित हो चुकी हैं।
-----------------