इस कृति का शीर्षक ही इसका परिचय देने में सक्षम है इस माने में कि जीवन तो सभी अपने-अपने स्वभावानुरूप अपनी आवश्यकता और अपेक्षानुरूप जीते हैं और जी रहे हैं तथापि इस कृति का उद्घोष कि 'जियो तो ऐसे जीयो' अपने अन्तर्निहित नाद में आमन्त्रित और अभिमन्त्रित करता है कि अपने भीतर के स्वर को तनिक अपने चिंतन की ताल से समन्वित कर जुगलबन्दी का अवसर तो प्रदान करो। तब स्वयं ही अनुभूत करोगे कि कैसे यह जुगलबन्दी आपके नैसर्गिक तत्वों को झंकृत कर जीवन जीने के कौशल को विकसित करने का मार्ग प्रशस्त करती है।
इस कृति का आवरण भी ऐसे ही परिवेश को उभारकर आगे बढ़ने, बढ़ते हुए सोपान चढ़ने और प्रयास करते हुए समर्पित भाव से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदान करते हुए सफलता की चौखट पर दस्तक देकर अनन्त आकाश में समाये प्रकाश की भाँति सामाजिक परिवेश को अर्पित करने की प्रेरक ऊर्जा का संचार करता है।
ऊर्जा का यह संचार आवरण में चित्रित कलम, उसमें उभरी सीढ़ियों तथा इनके चतुर्दिक विद्यमान विभिन्न क्षेत्रों के प्रतीकों में सहजता से अनुभूत किया जा सकता है। इस संचार के सारथी बनें हैं वे व्यक्तित्व जिन्होंने अपने कर्मक्षेत्र को अपने समर्पण और सतत् अभ्यास से प्रेरणात्मक सन्दर्भों से विकसित ही नहीं किया वरन् उसे समृद्ध भी किया है।
डॉ.शशि जैन के सम्पादन सहयोग से साहित्यागार प्रकाशन, चौड़ा रास्ता, जयपुर से वर्ष 2024 में प्रकाशित इस कृति के पृष्ठ 4-5 पर मेरी लिखित भूमिका प्रकाशित है-
रचनात्मक सन्दर्भों का रेखांकन और सृजन वैशिष्ट्य का प्रतिपादन है'जियो तो ऐसे जियो' कृति। प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध ऐसा सम्बन्ध है जहाँ वह अपने संस्कार के साथ अर्जित अनुभवों और अनुभूतियों से प्राकृतिक एवं सामाजिक सन्दर्भों को विकसित ही नहीं करता वरन् उसे संरक्षित करते हुए अपने चतुर्दिक परिवेश में सम्मिलित कर उसे 'तेरा तुझको अर्पण' भाव से समर्पित भी करता है। ऐसा भाव और स्वभाव जब एक रचनात्मक व्यक्तित्व के भीतर अँगड़ाई लेता है तो उसकी रचनाधर्मिता उसे पुनः पुनः नवीन सन्दर्भ उजागर करते रहने हेतु प्रेरित करती रहती है। यह अन्तःप्रेरणा के पल उसे रचना के भीतर की रचना को उभारने हेतु दिशाबोध कराती है और वह अपनी रचनात्मक यात्रा करता हुआ ऐसे पड़ावों पर, स्व से संवाद हेतु ठहरता है, जहाँ उसकी रचनात्मकता के आयाम स्वतः ही अपने सामाजिक सरिकारों को परिलक्षित करने लगते हैं। ये वे आयाम होते हैं जिनमें सम्पूर्ण जीवन-जगत् की संवेदनाओं के कम्पन्न ध्वनित-प्रतिध्वनित होते हैं।
इन्हीं सन्दर्भों को अपने भीतर तक संस्कारित करते हुए अपने रचनाकर्म में सतत् रूप से सक्रिय डॉ.प्रभात कुमार सिंघल की इस कृति " जियो तो ऐसे जियो" में ऐसे सृजनधर्मियों पर आलेख हैं जो सामाजिक परिवेश में व्याप्त संचेतनाओं को अपनी सकारात्मकता के साथ उजागर कर समाज के समक्ष रचनात्मक रूप से व्यक्त करते हुए एक दिशा प्रदान कर रहे हैं जिनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्वतः ही कृति के शीर्षक को अन्तर्ध्वनित करता है कि - " जियो तो ऐसे जियो" ...।
लेखक डॉ.प्रभात कुमार सिंघल की यह कृति उनके कला, संस्कृति और साहित्य के साथ समाज के प्रति समर्पित विचारों की वह श्रृंखला है जिसमें जुड़े सभी वय के व्यक्तित्व अपने-अपने संस्कारित परिवेश और उससे उपजे दृष्टिकोण से अपने कर्म और व्यवहार के प्रति सजग और चेतन होकर निरन्तर सृजन यात्रा कर रहैं है तथा समाज के समक्ष एक अनुकरणीय सन्दर्भ उजागर करते हुए नवोदित पीढ़ी के लिए सुपथ भी निर्मित कर रहे हैं।
लेखक ने ऐसे सुपथ पर जिन प्रेरक व्यक्तित्व को दिशाबोधक के रूप में उभारा है, वे सांस्कृतिक धारा और वीरों की धरती राजस्थान के कला, साहित्य और संस्कृति से समृद्ध हाड़ौती अंचल - कोटा, बूंदी, बाराँ और झालवाड़ के ऐसे प्रतिभा सम्पन्न सृजनधर्मी हैं, जिन्होंने अपने सृजन एवं सृजनात्मक परिवेश से राष्ट्रीय ही नहीं वरन् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाकर अपने-अपने कार्य विशेष से महती योगदान दिया है।
इस माने में यह कृति इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इन सभी प्रतिभाओं ने लोकमंगल की कामना से सामाजिक परिवेश को समृद्ध तो किया ही है साथ ही विविध क्षेत्रों में उभरती प्रतिभाओं को दिशाबोध प्रदान कर अपने सृजन धर्म का पालन और सृजन कर्म का निर्वहन भी किया।
इस कृति में विभिन्न क्षेत्रों यथा साहित्य, इतिहास, भूगोल, शिक्षा, संस्कृति तथा अन्य क्षेत्रों की प्रतिभाओं के व्यक्तित्व-कृतित्व पर शोधपरख आलेखन है। कृति-लेखक ने जिस लेखकीय दृष्टि से अपने कार्य को सम्पन्न किया है, उससे यह कृति एक सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में सामने आयी है। यही नहीं अपने अंचल की प्रतिभाओं को जानने और समझने के अतिरिक्त समृद्ध सृजन परम्परा को उल्लेखित करने के साथ-साथ सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में अध्ययनरत शोधार्थियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण कृति है।
इसकी महत्ता यूँ भी है कि इसमें साहित्य के हित, संगीत के स्वर, संस्कृति की आभा, सेवा का उजास, शिक्षा के मूल्य, कला का मर्म, नृत्य के भाव, गीतों की लय, कथा की संवेदना, इतिहास-भूगोल के तथ्य और भावों की सार्थकता का एक समुच्चय है। वह समुच्चय जिसके रचनात्मक कोष्ठक खुलकर समाज में प्रकृति प्रदत्त कौशल को विकसित करने की ऊर्जा का प्रवाह करते हैं।
अन्ततः यही कि डॉ.प्रभात कुमार सिंघल की यह कृति समाज और संस्कृति के विविध आयामी सन्दर्भों में व्यक्ति की सृजनात्मक भूमिका को उभार कर एक प्रेरणात्मक ऊर्जा का संचार तो करती ही है, साथ ही सामाजिक स्तर पर प्रतिभाशाली व्यक्ति के व्यक्तित्व-कृतित्व को रेखांकित करते हुए वैयक्तिक वैशिष्ट्य को भी प्रतिपादित करती है। यही नहीं उल्लेखित प्रतिभाओं से अंचल विशेष के योगदान को समझने और परखने का अवसर भी प्रदान करती है