" कितने खुशबू भरे दिन थे वे" - काव्य संग्रह

( 1881 बार पढ़ी गयी)
Published on : 23 May, 25 06:05

" कितने खुशबू भरे दिन थे वे" - काव्य संग्रह

साहित्य जगत में डॉ.अतुल चतुर्वेदी ने व्यंग्यकार और स्तंभकार के रूप में एक अलग पहचान बनाई है। उत्तरप्रदेश के मैनपुरी में जन्में अतुल ने कोटा को अपनी कर्मभूमि बनाया। उनका एक काव्य संग्रह " कितने खुशबू भरे दिन थे वे " वर्ष 2012 में सामने आया। मेरी उनसे पहली मुलाकात उनके कोटा में शास्त्री नगर स्थित आवास पर 23 मई 2023 को हुई जब मैं उनके सृजन पर साक्षात्कार लेने पहुंचा। गंभीर, परन्तु सहज , सरल और मृदु व्यवहार ने आकर्षित किया। शायद उस दिन कोई विशेष बात रही होगी ,बार-बार मोबाइल की बजती घाटियों से प्रतीत होता था व्यस्तता ज्यादा है। इसी बीच बातें भी होती रही। मै स्वयं अधिकारी रहा हूं अतः उनकी स्थिति को समझते हुए जल्द ही अपना मंतव्य पूरा कर विदा ली। चलते-चलते उन्होंने अपने इस  काव्य संग्रह की हस्ताक्षरित प्रति ससम्मान मुझे भेंट की। घर पहुंच कर कुछ पन्ने उलट कर देखे और यह सोच कर कि कभी फुर्सत में पढूंगा किताबों को अलमारी में रख दिया। समय अपनी गति से चलता रहा, पुस्तक दिमाग से ही निकल गई। कल रात जब खाली था, करने को कोई काम नहीं था तो पुस्तकें टटोल ने लगा तो उनका यह काव्य संग्रह हाथ लगा। इसे भूलने का अफसोस  हुआ।  देर आए दुरुस्त आए कि तर्ज पर पढ़ना शुरू किया। कुछ कविताएं पढ़ने पर लगा कि इस सब को एक समीक्षा में समेटना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। अतः मानस बनाया कि क्यों न कुछ कविताओं की विवेचना की जाए। इसी विचार के चलते उनकी कृति की प्रथम कविता की विवेचना करने का छोटा सा प्रयास किया है, जो चरण बद्ध जारी रहेगा। 
काव्य विवेचना 
************
 काव्य संग्रह की पहली कविता "अच्छाई के अकाल में"  ही सोचने को मजबूर करती है और चिंतन की एक दिशा प्रदान करती है।  कविता के भाव तो अपने आप में स्पष्ट हैं परन्तु लेखक के अंतर्मन में समाज से विलुप्त होती अच्छाई पर क्या चल रहा है ,उसका मर्म जिस खूबसूरती से सृजन शब्दों की माला में पिरोया है वह उनकी अपनी ही सोच और शैली है। सरल और सहज भाषा में कविताऐं रची हैं जो  पाठक के दिल तक सीधी पहुंचती हैं। छीजते हो  रहा अच्छापन उनकी संवेदना को झकझोरता है। जब वे लिखते हैं, "यहां तक की अच्छी हवा तक मयस्सर नहीं " में पर्यावरण पर उनकी गहरी चिंता साफ दिखाई देती है। अच्छाई और पर्यावरण पर कटाक्ष है कि हम बेदर्दी से पेड़ों को काट रहे हैं, शहर गंभीर प्रदूषण की चपेट में हैं । पर्यावरण को हमने इतना दूषित कर दिया कि आज अच्छी हवा भी मयस्सर नहीं हैं।
      पर्यावरण की चिंता के साथ-साथ जब वे लिखते हैं कि सामाजिक प्रदूषण भी इतना हो गया कि "अच्छाई की रोशनी भी दिखाई नहीं देती। अच्छी सोहबत, अच्छी बातें ,अच्छी नींद, अच्छी व्यवस्था ,अच्छे जल, अच्छी किताबें 
अच्छे विचारों, अच्छे समय"  लगता है इतिहास की बातें हो गई। लेखक का मन यह लिखते हुए कितना बेचैन है कि इन सवालों को लेकर  उसकी चिंता अच्छे साहित्य सृजन और अच्छे समाज की चिंता तक पहुंच गई है। इस चिंता को व्यक्त कर लिखा है, " अच्छे शब्द तक नहीं बचे लोगों के पास , तो कहां बचेगी भला अच्छी कविता, नहीं बचेगी कविता तो भला कहां बचेगा अच्छा समाज ।" उनकी "अच्छाई के अकाल" में भावी साहित्य और समाज के लिए एक संदेश भी छुपा नज़र आता है। लेखक का कविता के माध्यम से एक ही  मर्म और संदेश दिखाई देता है कि अच्छाई इसी तरह निरंतर छीजती रही तो उसके परिणामों से न केवल समाज  वरन साहित्य भी अछूता नहीं रहेगा। साहित्य और समाज का भला चाहते हो तो तिरोहित होती जा रही अच्छाई पर बेरियर लगाना होगा। देखिए यथार्थ बताता मूल काव्य सृजन .........

 


" अच्छाई के अकाल में"

ध्यान से देखें चीजों को 
तो चाहिए होती है बेहतर रोशनी 
और बड़ा अकाल है इन दिनों अच्छी रोशनी का 
अच्छी रोशनी का क्या जनाब 
अच्छी सोहबत, अच्छी बातें 
अच्छी नींद, अच्छी व्यवस्था 
अच्छे जल, अच्छी किताबें 
अच्छे विचारों, अच्छे समय
यहां तक की अच्छी हवा तक मयस्सर नहीं कितनी तेजी से छीज रहा है अच्छापन
कि एक अच्छा सुकून भरा पल भी उपलब्ध नहीं 
अच्छे शब्द तक नहीं बचे लोगों के पास 
तो कहां बचेगी भला अच्छी कविता नहीं बचेगी कविता 
तो भला कहां बचेगा अच्छा समाज 
किसे पता था कि इस तरह लुप्त होगा अचानक अच्छापन 
कि हम ढाई हर्फ़ों को भी यूं जगह-जगह भटकेंगे।


साभार :


© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.