पुस्तक समीक्षा - मन दर्पण के प्रतिबिंब

( 3120 बार पढ़ी गयी)
Published on : 15 Jan, 24 10:01

जीवन के अनछुए पहलुओं का प्रतिबिम्ब

पुस्तक समीक्षा - मन दर्पण के प्रतिबिंब

 ‘मन दर्पण के प्रतिबिम्ब‘ श्रीमती शिखा अग्रवाल की कविताओं की प्रथम पुस्तक है लेकिन पढ़ने पर पता चलता है कि शिखा  की कविता की समझ बहुत गहरी है और वे जो कहना चाहती हैं उसे शब्दों में ढालने का हुनर भी लाजवाब है। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि पुरूष की तुलना में नारी मन कुछ अधिक ही भावुक और संवेदनशील होता है। नारी मन हमेशा अमृत खोजता है वहीं पुरूष मन कठोर और कड़वे संवेगों का वाहक अधिक होता है । यह बात इस पुस्तक को पढ़ने से स्पष्ट जाहिर हो जाती है। मन को दर्पण का रूप सदा से ही माना जाता रहा है। इस पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है कि जिन अनुभूतियों की छाया शिखा की मन दर्पण पर पड़ी उसी का प्रतिबिम्ब उनके हृदय से कविताओं के रूप में प्रतिबिम्बित हुआ है। 

     कवयित्री ने अपनी भूमिका ‘कवयित्री की कलम से‘ में प्रथम पंक्ति मे ही यह स्पष्ट कर दिया है कि ‘‘ सत्यं शिवम् सुन्दरं की भावना ही कविता का मूल है।‘‘ यही सोच उनकी हर कविता में प्रकट होती है। सच है, साहित्य ही वह अमृत है जो संसार को सत्यं शिवम सुन्दरं बनाता है। कवयित्री कविता लेखन का उनका उद्धेश्य स्पष्ट करती हुई लिखती है -- ‘कविता की सफलता उसकी गहराई है जो दिल से सीधे उतरकर श्रोता अथवा पाठक का मनोरंजन करे, चिंतन की दिशा प्रदान करे, समस्या के प्रति उद्वेलित करे , देश प्रेम का जज्बा जगााए और प्रेम के समन्दर में गोते लगाने को मजबूर करे।‘‘

      इस काव्य संग्रह के 112 पृष्ठों में कुल 45 कविताओं का पुष्पगुच्छ है जो भांति- भांति के कथ्य की सुगंध को पाठक तक पहुंचाकर पाठकों के मन को हर्षित कर देते हैं। संग्रह की प्रथम कविता के अंश --   

कुछ करने की आग थी मन में।

कुछ कहने की आग थी मन में।।

कवयित्री की अभिव्यक्ति प्रक्रिया को प्रकट करती है। कवयित्री अतीत की सुखद अनुभूति करती हुई बेमौसम बरसात कविता में लिखती हैं -

साल दर साल बीत चुके थे।

कईं लम्हे किताबों में गुलाब बन चुके थे।

      "तलाश" शीर्षक कविता में वे पाठक के चिंतन को दिशा देती हुई लिखती है - तलाशना है तो/ पाप के बोध में दबी अपनी / अंतरात्मा /को /तलाश। कविता की ये पंक्तियां पाठक की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है।

    "जन्म दिन" कविता में - एक फूल को हमने सुगंध से परखा है, भाग्यशाली है वह नारी, 

आंगन जिसके जली ये लौ। जन्मदात्री को भी बधाई की पात्र मानती है।

      "गुरूर की आत्म कथा" में कवयित्री की कलम से निकली धारा के प्रवाह जैसी अनुभूति तो देखने योग्य है जो समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त वास्तविकता का परिचय करवाती है 

‘‘मैं गुरूर हूं/ मेरी आत्म कथा शुरू होती है/मानव मन से / ..... मुझे अलग- अलग नामों से पुकारा गया/रईसों की मैं अकड़ हूं/सुन्दरियों का मैं घमंड हूं/सफलता का मैं अहंकार हूं/ लेखक की कलम का मैं गौरव हूं / पद पर आसीन मैं हँसता हुआ दंभ हूं/ मैं गुरूर हूं।‘‘ ...‘‘दोस्तों! मेरा सबसे बड़ा दुश्मन वक्त है/ वही मुझे बनाता है/वही मुझे मिटाता है।‘‘

         यह कविता पाठक के हृदय को सीधा स्पर्श कर गुरूर नहीं रखने की प्रेरणा देती है।

कविता "छुट्टियां" सीधी सपाट रचना हैं जिसका पाठक से सीधा जुड़ाव बन जाता है। कवयित्री की दृष्टि समाज व्यक्ति और परिवेश विशेष स्थान रखते हैं और यही भाव ‘‘ख्याल’’ नामक कविता से उभर कर आते हैं। 

      "आंसू" कविता पाठक को भाव विभोर कर देने वाली कविता है -- हृदय की गहाईयों से पनपे/नयनों के दामन में पसरे/क्यों सहमे हैं?/ठहरे हैं/थमे हैं/ये आंसू।

      जिस कविता ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया है वह आज के समय की साहित्य जगत की सबसे बड़ी समस्या को सामने लाती है। सतत देखने में आ रहा है कि हर वर्ष हजारों की संख्या में लेखकों की किताबें छप रही है किंतु पाठक नहीं मिल रहे है। हकीकत तो यह भी है कि स्वयं लेखक होकर भी अन्य साथी लेखकों और कवियों की पुस्तकों को नहीं पढ़ते बल्कि केवल एक आशा रखते हैं कि उनकी पुस्तकों को अन्य अवश्य पढ़ें किन्तु वे किसी की भी साथी की लिखी पुस्तक को नहीं पढ़ते। ऐसे कवियों और लेखकों को दी गई पुस्तकें केवल आलमारी की शोभा ही बढ़ाती है।

    इसी पीड़ा को उजागर कविता ‘‘कारण‘‘ एक सार्थक कविता है। कितना अच्छा हो कि लेखिका की इस कविता को पढ़कर लेखक और कवि अन्य की रचनाओं और कृतियों को पढ़ने का प्रण लें। इस कविता ये पंक्तियां विचारणीय हैं --

क्या कारण है?/कि हम सभी/ एक दूसरे की रचनाओं को/ नहीं पढ़ते हैं।

क्या कारण है ?/कि हम सभी ज्ञान का सागर नहीं बढ़ाते हैं।

       यह कविता इस सत्य को भी उजागर करती है कि बिना अध्ययन के किया गया लेखन प्रभावी व सत्यपरक नहीं होता है। बधाई शिखा जी जो आपने लेखकों को सोचने एवं पढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया।

      आज धार्मिक मूर्तियां ड्राईंग रूम को सजाने के लिए इस्तेमाल होने लगी हैं। आज जीवन मूल्यों का किस प्रकार ह्रास हो रहा है और हम किस तरफ बढ़ रहे हैं इस पीड़ा को कवयित्री ने हृदय से महसूस किया है। तभी तो वे लिखती हैं -

 द्रवित मन से यह सोच होता है/शांति का दूत जब बैठक की सजावट बनता है/

पोटली वाला बुद्धा ज्यादा सुन्दर है/या स्माईली बुद्धा ज्यादा जचेगा/ यह देख इंसा पर रोष बहुत आता है । .......

इच्छा- वासना खुलकर मचा रही धमाल मांस मदिरा शराब से लोग हो रहे लाल/संगीत के साज पर अब गूंजती है आवाज यह/मद्यम शरणं गच्छामि/मांसम शरणं गच्छामि/ डांसम शरणं गच्दामि।

      आज की भोगवादी संस्कृति पर चोट करती हुई कवयित्री लिखती है - बंगला खरीदा, गाड़ी खरीदी / पर नहीं खरीद सके संस्कार। (पृष्ठ संख्या 68) । निरर्थक अहं से पूर्ण लोगों के लिए तो कवयित्री की ये पंक्यिां ही काफी हैं-

समंदर का घमंड टूट जाता गर/उसे पता हो,/

प्यास बुझाने के लिए बहुत नहीं/थेड़ा पानी ही बहुत है। (पृष्ठ संख्या 69)

      कुछ कविताओं से अंश उद्धृत कर रहा हूं जो कि सहज ही  मन को भा जाते हैं। और सूत्र वाक्य से लगते हैं। यथा -

चाहे जितना लिखू/रहोगे तुम फिर भी/अपरिभाषित। (अपरिभाषित पृष्ठ संख्या 31)

घरोंदा नहीं मेरा कोई/खुले आसमां का हूं वारिस /उड़ते बादल मेरा बिछौना/यही मेरा रैन-बसेरा (चांद की दास्तां पृष्ठ संख्या 42)

आओ सुनें कहानी मजदूरों की/पिरोएं कुछ शब्दों में इनकी मजबूरी।(मजदूर नहीं मजबूर पृष्ठ संख्या 49)

जिन्दगी तुझ से कहां जी भरता है/ज्यों-ज्यों तेरी सांसे सरकती है/त्यो- त्यों साँसे लेने का मन करता है। ( जिन्दगी तुझ से कहां जी भरता है पृष्ठ संख्या 56)

अन्दर से पंखुड़ी सा कोमल/ऊपर से कठोर / रामसेतु सा पुल हैरुये एक पिता है। (पिता पृष्ठ संख्या 60)

इतना खुद को तराशा होता /तो स्वयं/गुलाब /बन जाते। (पृष्ठ संख्या 80)

बिल्कुल सही कहा शिखा ने आज हमें स्वयं को तराशने की आवश्यकता है।

       शिखा  का साहित्य से जुड़ाव और लेखन उन्हें उनके पिता  डॉ. प्रभात कुमार सिंघल से विरासत में मिला है। राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित यह पुस्तक भाव प्रधान ऐसी कविताओं का संग्रह है जो जीवन के कईं अनछुए पहलुओं का हमारे सामने शब्दों में पिरोकर गजरा बनाकर रखती हैं।

      हां, गर कोई कमी मुझे खटकी तो वह यह है कि कवयित्री ने उर्दू ,अरबी, फारसी के कईं ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया है जिनका हिन्दी से कोई संबंध भी नहीं है किन्तु ये शब्द कविता का कलेवर पाठक तक पहुंचाने में समर्थ भी हैं। आशा करता हूं कि आगे आने वाली उनकी रचनाओं में हिन्दी शब्दों की प्रधानता रहेगी और उर्दू  और अरबी के कठिन शब्दावली से परहेज करेंगी।

     कवियित्री शिखा को अनन्त शुभकामनाएं। मां वीना उनकी कलम को निरन्तर गतिमान बनाए रखे, यही ईश्वर से प्रार्थना करता हूं ताकि समाज को अच्छी कविताओं की सौगात उनकी कलम से मिलती रहे। 

_____________________________________________________________________

पुस्तक - मन दर्पण के प्रतिबिम्ब

विधा - कविता

कवयित्री - शिखा अग्रवाल

प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर

मूल्य : 225 ₹

____________________________________________________________

समीक्षक

जयसिंह आशावत, एडवोकेट, नैनवां, जिला बून्दी, राजस्थान ।

मोबाइल नंबर - 9414963266


साभार :


© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.