“मानव जीवन मिलना ईश्वर की हम पर सबसे बड़ी कृपा” 

( 4181 बार पढ़ी गयी)
Published on : 29 May, 23 09:05

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“मानव जीवन मिलना ईश्वर की हम पर सबसे बड़ी कृपा” 

     हमें मनुष्य का जीवन मिला हुआ है। इस जीवन को प्राप्त करने में हमारे माता-पिता का योगदान निर्विवाद है, परन्तु इसके साथ ही हमारी आत्मा और  शरीर का सम्बन्ध कराने वाला सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान परमात्मा है। यदि परमात्मा न होता तो न तो यह सृष्टि अस्तित्व में आती और न ही इस सृष्टि में प्राणी जगत का अस्तित्व होता। परमात्मा इस सृष्टि का निमित्त कारण है और उसने ही अपनी सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता से अनादि, नित्य, अमर तथा  नाशरहित जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों का सुख व दुःखरुपी फल देने के लिये ही इस संसार की रचना की है और वही इसका पालन व संचालन कर रहे हैं। सृष्टि का उपादान कारण जड़ प्रकृति है जो प्रलयावस्था में अत्यन्त सूक्ष्म व सत्व, रज एवं तम गुणों वाली होती है। हम सभी मनुष्यों को ईश्वर को जानना है और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करना है जिससे हम अपने जीवन में दुःखों से बचे रहें और मृत्यु के बाद हमे मोक्ष प्राप्त हो सके। यदि हम मोक्ष की अर्हता पूरी न कर सकें तब भी हमें श्रेष्ठ मनुष्यों की देवयोनि में जन्म मिले जहां रहते हुए हम पुनः मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करें और उसे प्राप्त कर लें। जन्म व मृत्यु की पहेली को समझने के लिये सभी मनुष्यों को ऋषि दयानन्द कृत ‘सत्यार्थप्रकाश’ आदि समस्त ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश में अनेक विषयों पर जो विस्तृत ज्ञान है वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है और यदि कुछ है भी, तो उसके लिये जिज्ञासु बन्धुओं को अनेक संस्कृत के वैदिक ग्रन्थों को पढ़ना होगा। सत्यार्थप्रकाश का महत्व यह है कि प्रायः सभी इष्ट विषयों का ज्ञान इस ग्रन्थ को पढ़कर 4-5 दिनों में ही हमें प्राप्त हो जाता है जिसमें सृष्टि व ईश्वर-जीवात्मा विषयक प्रायः सभी रहस्य सम्मिलित हैं। इसी कारण वेद मनीषी पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में लगभग 18 बार ऋषि दयानन्द रचित ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ पढ़ा। उन्होंने यह भी कहा है कि यदि सत्यार्थप्रकाश पढ़ने के लिये उन्हें अपनी समस्त भौतिक सम्पत्ति बेचनी पड़ती तब भी वह सहर्ष इस पुस्तक को प्राप्त करते। सत्यार्थप्रकाश का महत्व वर्णनातीत है। इसकी महत्ता एवं उपयोगिता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। 

    संसार में तीन अनादि, अमर तथा नित्य सत्तायें ईश्वर, जीव और प्रकृति हैं। हम जीव हैं और हमारी ही तरह अनन्त जीवात्मायें इस ब्रह्माण्ड में हैं। हम जीवात्मा हैं और हमारा शरीर पंचभौतिक पदार्थों के संयोग से बना है। यह संयोग ईश्वर के बनाये नियमों व व्यवस्था के द्वारा होता है। जिसकी उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी होता है और जिसकी उत्पत्ति नहीं हुई उसका विनाश कभी नहीं होता। इसी कारण हमारा शरीर नाशवान अर्थात् मरणधर्मा है जबकि हमारी आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी और अमर है। हमारे इस शरीर के जन्म से पूर्व भी आत्मा का अस्तित्व था। हमारे इस शरीर के मृत्यु को प्राप्त होने पर भी हमारी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। ईश्वर अजन्मा है और इसके विपरीत जीवात्मा जन्म-मरण धर्मा है। इस जन्म से पूर्व भी हम अर्थात् हमारी जीवात्मा अपने पूर्वजन्म में उस जन्म के भी पहले के जन्मों के अभुक्त कर्मों के अनुसार किसी प्राणी योनी में इस ब्रह्माण्ड में कहीं इस पृथिवी के अनुरूप ग्रह पर जीवन व्यतीत कर रहे थे और ऐसा ही हमारे इस वर्तमान जीवन की मृत्यु के बाद भी होगा। परमात्मा की हम पर कृपा होने से वह हमारे इस जन्म व पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों के अनुसार जन्म देता है और कर्मों के अनुसार ही हमारी जाति (मनुष्य, पशु वा पक्षी आदि), आयु और भोग (सुख व दुःख) निश्चित होते हैं। यदि परमात्मा व प्रकृति में से, दोनों अथवा कोई एक या दोनों ही, न होते तो हमारा जन्म व मरण नही हो सकता था और न ही हम किसी प्रकार के सुख व दुःखों का भोग कर सकते थे। हममें से कोई प्राणी दुःख नहीं चाहता, सभी प्राणी सुख, शान्ति व सुरक्षा चाहते हैं। सुखों का आधार शुभ व श्रेष्ठ कर्म हैं। अतः हमें अशुभ व पाप कर्मों को करना छोड़ना होगा। यदि हम पाप कर्मों को करना पूर्णतः छोड़ देंगे तो हमें दुःख प्राप्त नहीं होंगे और हम सुखपूर्वक इस जीवन को व्यतीत कर अगले जन्म में भी सुखी व श्रेष्ठ मानव जीवन प्राप्त कर देवकोटि की मनुष्य योनि में जन्म लेकर सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। 

    परमात्मा ने हमारे मार्गदर्शन व कर्तव्यों की प्रेरणा करने के लिये ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया था। हमारे पूर्वज ऋषियों व विद्वानों ने वेद व इसके सत्य अर्थों की रक्षा की और इस कल्प में हमारी आत्मा लगभग 1.96 अरब वर्षों की यात्रा करते हुए वर्तमान जीवन तक पहुंचें हैं। इस रहस्य का ज्ञान कराने में महर्षि दयानन्द जी का बहुत बड़ा योगदान है। हम सब उनके ऋणी हैं। उन्हीं के कारण हम अपने इस जीवन में वेद, सत्यासत्य कर्मों के स्वरूप सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष तथा इसकी प्राप्ति के उपाय ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र व सदाचरण आदि को जान सके हैं। हमें सुख व प्रसन्नता आदि जो भी अनुभूतियां प्राप्त होती हैं वह सब ईश्वर हमें हमारे ज्ञान एवं कर्मों के अनुरूप प्रदान करते हैं। हमें सदैव स्वयं को ईश्वर का ऋणी व कृतज्ञ अनुभव करना है और वेदाध्ययन सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों एवं अन्य विपुल वैदिक साहित्य का अध्ययन करते रहकर सन्मार्ग का अनुगमन करना है। 

    यदि हम हम अपने कर्मों को देंखे तो हम पाते हैं कि अपने एक-एक कर्म का ज्ञान रखना कितना कठिन है। हम स्वयं ही अपने अतीत के अनेक कर्मों को भूल जाते हैं। ईश्वर हमारे इस जन्म व पूर्वजन्मों के किसी कर्म को नहीं भूलता। ईश्वर का यह गुण हमें उसके प्रति समर्पित होकर उपासना करने के लिये प्रेरित करता है। हमने कुछ दिन पहले फेसबुक पर एक मन्त्र व उसके मन्त्रार्थ को पढ़ा जिसमें कहा गया है कि हम दिन में कितनी बार पलक झपकते और कितनी बार आंखे खोलते हैं, इसका पूरा-पूरा हिसाब परमात्मा को पता होता है। हमारे छोटे, बड़े सभी कर्मों, चाहें वह दिन के प्रकाश में किये गये हों या रात्रि के अन्धेरे में अथवा सबसे छुप कर किये गये हों, परमात्मा उन सभी कर्मों को यथावत् जानता है और समयानुसार उनका फल कर्म करने वाले कर्ता को देता है। ईश्वर का यह गुण हमारे भीतर रोमांच उत्पन्न करता है। इसी कारण हमारे सभी विद्वान, योगी व ऋषि न तो स्वयं कभी कोई अशुभ व पाप कर्म करते थे और न ही किसी अन्य को करने की प्रेरणा करते थे। हमें अपने जीवन को सार्थक बनाने व इसके लिए मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये ऋषि दयानन्द के अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये जीवन चरितों सहित स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं0 लेखराम आर्यमुसाफिर, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों की जीवनियों व आत्मकथाओं को पढ़ना चाहिये। इससे हमें सद्कर्मों को करने की प्रेरणा मिलने के साथ असत्य के त्याग करने का बल भी प्राप्त होगा। 

    हम ईश्वर की कृपा को इस रूप में भी अनुभव करते है कि जब सन् 1825 के दिनों में सारा देश अज्ञान व आध्यात्मिक ज्ञान से भ्रमित व अन्धविश्वासों व कुपरम्पराओं से ग्रस्त था, तब उस परमात्मा ने कृपा करके तत्कालीन व भावी सन्ततियों के लिये वेदज्ञान से परिपूर्ण ऋषि दयानन्द को इस देश में भेजा था जिन्होंने स्थान-स्थान पर जाकर वेदों का प्रचार कर अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर किया था। ऋषि दयानन्द ने जड़-मूर्ति पूजा की निरर्थकता से हमारा परिचय कराया था और फलित ज्योतिष की निर्मूलता व निरर्थकता से भी हमें सावधान रहने के लिये कहा था। अवतारवाद को उन्होंने अवैदिक व असत्य कल्पना करार दिया था और मृतक श्राद्ध को उन्होंने तर्क व युक्ति से असिद्ध घोषित किया था। उन्होंने स्त्री व शूद्रों सहित मनुष्यमात्र को वेदाध्ययन का अधिकार दिया और आर्यसमाज गठित करके आर्यसमाज के 10 स्वर्णिम नियम हमें दिये थे। ऋषि दयानन्द ने हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि एक दर्जन से अधिक ग्रन्थ दिये जिन्हें पढ़कर हम अपने जीवन को ऊंचा उठा सकने सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। उनकी कृपा से ही आज हम व लाखों लोग असत्य मत व मार्ग को त्याग कर सत्य व कल्याण-पथ को ग्रहण कर सके हैं। इस जीवन में हमें वेद सहित ऋषि दयानन्द और प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थ 6 दर्शन, 11 उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत सहित वैदिक विद्वानों के शताधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थों के अध्ययन का सुअवसर व सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हम अनुभव करते हैं कि यदि ऋषि दयानन्द जी न आये होते तो हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि हम वैदिक सनातन धर्म में बने रहते भी या नहीं? देश में धर्मान्तरण की जो आंधी विधर्मियों द्वारा चलाई गई थी उसे वेद प्रमाण, तर्क एवं युक्तियों से ऋषि दयानन्द और उनके बाद उनके अनुयायियों ने ही रोका था। हमें यह सब कार्य ईश्वर के द्वारा प्रेरित प्रतीत होते हैं। यदि ईश्वर हमारे महापुरुषों को प्रेरणा व शक्ति न देते तो आज देश और विश्व का स्वरूप वह न होता जो आज है। इस कार्य के लिये ईश्वर एवं ऋषि दयानन्द का कोटिशः वन्दन करते हैं। हमें वेद, उपनिषद, दर्शन एवं सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषि ग्रन्थों का प्रचार कर वेदवाक्य ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ अर्थात् विश्व को श्रेष्ठ बनाने के विचार वा आज्ञा को सार्थक करना है। 

    परमात्मा ने हमें मनुष्य जन्म देने सहित भारत भूमि और वह भी एक वैदिक धर्मी वा सनातन धर्मी परिवार में जन्म देकर हम पर जो उपकार किया है, हम उसका भी सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। भारत में जन्म लेकर हम ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से जुड़े हैं, यह भी ईश्वर की हम पर महती दया एवं कृपा है। हम सब आर्य भाई-बहिन इसके लिए ईश्वर के अतीव आभारी हैं। हम वैदिक साहित्य और वेद एवं ऋषियों की प्रेरणा के अनुरूप आचरणों से सदैव जुड़े रहें और ईश्वर की वेदाज्ञा का लोगों में प्रचार करते रहें, इसके लिये ईश्वर हमें रहें एवं शक्ति प्रदान करें। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121 
 


साभार :


© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.