“अथर्ववेद के भाष्यकार पं. राजाराम शास्त्री”

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Published on : 25 May, 23 04:05

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“अथर्ववेद के भाष्यकार पं. राजाराम शास्त्री”

     आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान रहे डा. भवानीलाल भारतीय जी ने ‘आर्यसमाज के वेद सेवक विद्वान्’ नाम से एक ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में भारतीय जी ने 103 वेद सेवक विद्वानों का संक्षिप्त परिचय उनके लेखकीय कार्यों सहित दिया है। हमारे पास जो पुस्तक है इसका प्रकाशन आर्य प्रादेशक प्रतिनिधि सभा, अनारकली, मन्दिरमार्ग, नई दिल्ली-110001 से सन् 2007 में किया गया है।  इस पुस्तक का प्राक्कथन विश्वनाथ जी ने लिखा है। पुस्तक की भूमिका डा. भवानीलाल भारतीय जी ने लिखी है। पुस्तक में पं. राजाराम जी पर पृष्ठ 112-113 में लगभग डेढ़ पृष्ठ की सामग्री प्रकाशित है। इसके महत्व को देखते हुए हम पाठकों के लिए भारतीय जी का पूरा आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। 

    लाहौर के विख्यात शिक्षण संस्थान डी.ए.वी. कालेज में वर्षों तक संस्कृत के प्रवक्ता रहे तथा विभिन्न शास्त्रों के व्याख्याकार पं. राजाराम शास्त्री का जन्म 1870 में पंजाब के जिला गुजरांवाला के एक ग्राम में हुआ था। (सम्पूर्ण अथर्ववेद एवं सामवेद भाष्यकार पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय जी भी पंजाब के गुजरांवाला में ही जन्मे थे-मनमोहन)। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन ने इनकी रुचि आर्यसमाज की शिक्षाओं की ओर जगाई। साथ ही इनमें संस्कृत पढ़ने का विचार उत्पन्न हुआ। काव्य, व्याकरण तथा न्याय शास्त्र का अध्ययन करने के पश्चात् आपने महाभाष्य का अध्ययन जम्मू जाकर किया। 1892 में महात्मा हंसराज ने इन्हें डी.ए.वी. स्कूल लाहौर में संस्कृत का अध्यापक नियुक्त किया। दो साल बाद 1894 में इन्हें लाहौर के डी.ए.वी. कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक पद पर नियुक्ति मिल गई। 1899 में उच्च स्तरीय संस्कृत के शास्त्रीय अध्ययन के लिए ये काशी गए और वहां रहकर मीमांसा तथा यज्ञ प्रक्रिया का विस्तृत अध्ययन किया। लाहौर लौट आने पर कालेज कमेटी ने इन्हें वेद तथा आर्ष ग्रन्थों के भाषान्तर करने का कार्य सौंपा। 1904 में इन्होंने आहिताग्नि राय शिवनाथ के सहयोग से आर्ष ग्रन्थावली नामक मासिक पत्र निकाला जिसमें इनके किए विभिन्न शास्त्रों के भाष्य छपते थे। शास्त्री जी ने विपुल मात्रा में लेखन कार्य किया है। इनके वेद विषयक लेखन का विवरण इस प्रकार है-

    अथर्ववेद भाष्य-यह भाष्य विषय निर्देश, स्वर-सहित मंत्र पाठ, पुनः शब्दार्थ, तथा छन्द, ऋषि और विनियोग के निर्देश सहित अनेक टिप्पणियों से युक्त है। चार भागों में 1931 में प्रकाशित यह अथर्ववेद भाष्य मुख्यतः सायण तथा पाश्चात्य वेदज्ञों की शैली का अनुसरण करता है। 

    वेद व्याख्या विषयक अन्य ग्रन्थ-वेदोपदेश (2 भाग), स्वाध्याय यज्ञ, शताब्दी शतक-ईश्वर महिमापरक 100 वेद मंत्रों की व्याख्या (1925), उपदेश कुसुमांजलि (3 भागों में), वेद प्रकाश (अथर्ववेदीय पृथ्वी सूक्त की व्याख्या), वेद शिक्षक, वेद आदि लघु ग्रन्थ। 

    वेदाध्ययन में सहायक ग्रन्थ-वेद भाष्य भूमिका (1928), यास्कीय निरुक्त की टीका, कौत्सव्य निघण्टु, अथर्ववेद का निघण्टु, वसिष्ठ धर्म सूत्र तथा पारस्कर गृह्य सूत्र का सम्पादन, सामवेदीय आर्ष क्षुद्र सूत्रम् तथा औशनस धनुर्वेद संकलन। 

    इस विपुल साहित्य लेखन से पं. राजाराम की प्रचण्ड मेधा तथा उनका विस्तृत अध्ययन व्यक्त होता है। ग्यारह उपनिषदों की टीका लिखने के अतिरिक्त उन्होंने उपनिषदों की भूमिका तथा उपनिषदों की टीका नामक ग्रन्थ लिखकर उपनिषदों के अध्यात्मवाद का मार्मिक विवेचन किय था। (इति)

    पं. राजाराम शास्त्री जी ने उपर्युक्त जो विस्तृत वैदिक साहित्य लिखा है वह सम्प्रति पुस्तक प्रकाशकों वा पुस्तक विक्रेताओं से उपलब्ध नहीं होता। ऐसे ही आर्य समाज के अनेक शीर्ष विद्वानों के साहित्य की उपलब्धता की स्थिति है। आर्यसमाज में वृहद सम्मेलन आदि आयोजन होते रहते हैं। विद्वानों के अनुपलब्ध साहित्य के संरक्षण के विषय में भी हमारी प्रतिनिधि सभाओं व विद्वानों को विचार करना चाहिये और समय-समय पर ऋषिभक्तों को इस विषय में अपने कार्यों व सामयिक विचारों से परिचित एवं प्रेरित करते रहना चाहिये। हम पं. राजाराम शास्त्री जी को उनके महान लेखन कार्यों वा सेवाओं के लिए स्मरण करते हुए श्रद्धांजलि देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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