“सभी मनुष्यों को दैनिक यज्ञ करना चाहियेः आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

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Published on : 16 May, 22 09:05

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“सभी मनुष्यों को दैनिक यज्ञ करना चाहियेः आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के ग्रीष्मोत्सव के चौथे दिन दिनांक 14-5-2022 को हमें दिन के कार्यक्रम, जो अपरान्ह 3.30 बजे से आरम्भ हुआ था, सम्मिलित होने का अवसर मिला। कार्यक्रम के आरम्भ में आंशिक अथर्ववेद पारायण यज्ञ किया गया। यह आंशिक अथर्ववेद पारायण यज्ञ उत्सव के प्रथम दिन से ही चल रहा है। आज के मुख्य यजमान देहरादून के व्यवसायी श्री चन्द्रगुप्त विक्रम जी थे जिनके आज विवाह की 45वी वर्षगांठ थी। यज्ञ विधि विधान पूर्ण हुआ जिसके अन्त में विवाह की वर्षगांठ के उपलब्ध में आठ विशेष आहुतियां भी दी गई। इन सभी मन्त्रों व इनके अर्थों का पाठ भी यजमान दम्पत्ति ने बोलकर किया। यज्ञ के मध्य अथर्ववेद के मन्त्रों के आधार पर सभी याज्ञिकों का मार्गदर्शन करते हुए यज्ञ के ब्रह्मा स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी ने कहा कि उपासकों को परमात्मा को अपने निकट अनुभव करने का प्रयत्न करना चाहिये। उपासना वस्तुतः परमात्मा के निकट बैठ कर प्रयत्नपूर्वक ईश्वर के आनन्द के अनुभव करने को ही कहते हैं। ईश्वर की उपासना करने से मनुष्य को ज्ञान व बल सहित ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। स्वामी जी ने कहा कि हम जो भोजन करते हैं उससे हमारे शरीर का पोषण होता है। भोजन द्वारा शरीर के पोषण का कार्य परमात्मा करते हैं जिससे हमारे शरीर के सभी अंगों को बल व शक्ति मिलती है। यज्ञ एवं सभी कार्यक्रमों का संचालन वैदिक विद्वान श्री शैलेशमुनि सत्यार्थी जी ने बहुत योग्यतापूर्वक किया। 

    यज्ञ की समाप्ति पर स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी द्वारा समर्पण प्रार्थना कराई गई। उन्होंने कहा कि हमने यह जो यज्ञ किया है इसमें हमारा अपना कुछ भी नहीं है। हमने यह यज्ञ परमात्मा द्वारा हमें प्रदान किए गए पदार्थों से ही किया है। हमारा यह यज्ञ परमात्मा की कृपा से ही सम्पन्न हुआ है। परमात्मा ने ही हमारे इस विशाल ब्रह्माण्ड और इसके सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि ग्रहों आदि को बनाया है। पृथिवी पर हमें निवास परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त हुआ है। हे परमात्मन्! हम बार बार आपको नमन करते हैं। परमात्मा की कृपा से हमें वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ है। स्वामी जी ने कहा कि महाभारत काल के बाद वेद विलुप्त हो गये थे। हमारा बहुविध पतन हुआ था। परमात्मा की कृपा से ऐसे घोर अन्धकार के समय ने एक ऋषि आत्मा स्वामी दयानन्द जी का जन्म हुआ। स्वामी दयानन्द जी ने अन्वेषणपूर्वक वेदों का ज्ञान प्राप्त किया और उस वेदज्ञान को जन जन तक पहुंचाने के लिए घोर तप किया। उनके इस प्रयास से ही हमें वेदज्ञान प्राप्त हो सका है। स्वामी जी ने ईश्वर से प्रार्थना की कि देश तथा विश्व में वेदों का प्रचार होता रहे और शीघ्र ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का स्वप्न साकार हो। स्वामी जी ने कहा कि सब के घरो में सुख शान्ति और सम्पदायें हों। जो लोग किन्हीं दुःखों से युक्त हैं, परमात्मा उनके सब दुःखों को दूर करें। समर्पण प्रार्थना के बाद प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री कुलदीप आर्य जी ने सामूहिक यज्ञ प्रार्थना गाकर बहुत ही मधुर शब्दों में प्रस्तुत की। इसके बाद पं. कुलदीप आर्य जी का एक भजन हुआ जो कवि शिरोमणी प्रकाशचन्द्र आर्य जी का लिखा हुआ प्रसिद्ध भजन है। इसके शब्द थे ‘पहचान न पाया मैं तुमको पहचान न पाया मैं तुमको। अखिल विश्व की व्यापक सत्ता, पता दे रहा पत्ता पत्ता।’ कुलदीप जी ने विवाह की वर्षगांठ की बधाई का एक प्रभावशाली गीत भी गाया। 

    आगरा से पधारे प्रसिद्ध वैदिक विद्वान श्री उमेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि हमारे शरीर को किसने बनाया है? इसका उत्तर यजुर्वेद का मन्त्र प्रस्तुत कर उन्होंने बताया कि परमात्मा ने ही हमारे शरीर को बनाया है और उन्हीं ने हमारी आत्मा को शरीर से जोड़ा है।  कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि आत्मा को शरीर परमात्मा देता है। परमात्मा ने स्त्री व पुरुष का जोड़ा क्यों बनाया? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वेदमंत्र के आधार पर उन्होंने कहा कि परमात्मा सृष्टि संचालन के कार्य में हमारा सहयोग चाहता है। परमात्मा जोड़े नहीं बनायेगा तो सृष्टि कैसे चलेगी? इन मनुष्य एवं प्राणियों के जोड़ो से ही सृष्टि चलती है। परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में एक बार अमैथुनी सृष्टि बनाता है। फिर यह सृष्टि मनुष्यों के द्वारा चलती जाती है। परमात्मा ने ही हमें यह शरीर दिया है। हमें सृष्टि का रक्षण एवं पोषण करना है, इसे बरबाद नहीं करना है। परमात्मा ने हमें इस शरीर तथा संसार में नियुक्त किया है। हमें अच्छे कर्मों को करके इस सृष्टि को चलाना है। आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि किसी प्यासे मनुष्य को पानी पिलाना भी यज्ञ है। इसी प्रकार दूसरों से मधुरता से व्यवहार करना भी यज्ञ ही है। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि यज्ञ का अर्थ बहुत व्यापक है। उन्होंने कहा कि हमारी वाणी का स्वामी परमात्मा है। हमें परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिये कि हमारी वाणी में मिठास हो। हमें वेद मन्त्रों में निहित शिक्षाओं को जानना चाहिये और उन्हें धारण करना चाहिये। आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि यदि हम वेदों की शिक्षाओं के अनुसार अपना जीवन जीयेंगे तो यह संसार स्वर्ग बन जायेगा। 

    यज्ञोपवीत की चर्चा कर आचार्य जी ने कहा कि हमारे ऊपर तीन ऋण देव-ऋण , पितृ-ऋण तथा ऋषि-ऋण हैं। यज्ञोपवीत हमें इन तीन ऋणों को स्मरण कराता है। आचार्य जी ने इन तीन ऋणों के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला। हमें इन तीन ऋणों को स्मरण रखना है, भूलना नहीं है। हमें इन ऋणों को जीवन में चुकाना है। आचार्य जी ने कहा कि सभी आर्यों का विवाह यज्ञ करके ही सम्पन्न हुआ करता है। इसलिए सभी दम्पत्तियों को जीवन भर उस यज्ञ को अपने दैनिक जीवन में भी ऋषियों के विधान को जानकर नियमित रूप से करना चाहिये। यदि हम दैनिक यज्ञ नहीं करेंगे तो वैदिक धर्म का प्रचार न होने से विकृतियां उत्पन्न होंगी। उन्होंने सबको दैनिक यज्ञ करने की प्रेरणा की और जिन लोगों ने यज्ञ करने का संकल्प लिया उनके हाथ खड़े कराये। आचार्य जी ने कहा कि जो मनुष्य प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करते हुए न्यून 16 आहुतियां देते हैं, वह मनुष्य प्रशंसा के योग्य है। आचार्य जी ने कहा कि यदि हम दैनिक यज्ञ नहीं करते तो हम चोर बनते हैं। उन्होंने कहा कि हमें यज्ञ करके देवताओं को उनका भाग यज्ञ के द्वारा पहुंचाना चाहिये। यह हमारा कर्तव्य है। आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य जो भी निर्माण करता है उसका कच्चा माल परमात्मा द्वारा ही बनाया गया है। संसार के सभी मौलिक पदार्थ परमात्मा ने बनाये है। आचार्य जी ने कहा कि हम दूसरों से कोई वस्तु लेते हैं तो उसका शुल्क, मूल्य या किराया देते हैं। सूर्य व चन्द्रमा हमें प्रकाश देते हैं और हम उनका प्रकाश प्राप्त करके अपने जीवन को चलाते हैं। इसी प्रकार पृथिवी के नाना पदार्थों का हम उपभोग करते हैं। हम सृष्टि से जो भी पदार्थ प्राप्त करते हैं उनके प्रतिदान के लिए हमें प्रतिदिन यज्ञ अवश्य करना चाहिये अन्यथा हम चोर कहलायेंगे। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ की 16 आहुतियां देकर हम प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करने का कुछ ऋण उन सभी देवताओं को लौटा सकते हैं। आचार्य जी ने कहा कि नियम है कि मनुष्य को बिना दैनिक यज्ञ किये भोजन नहीं करना चाहिये अन्यथा वह चोर सिद्ध होता है। आचार्य जी ने कहा कि ओ३म् अपने आप में पूर्ण मन्त्र है। जिसको देनिक यज्ञ के मन्त्रों का अभ्यास नहीं है वह सभी आहुतियां गायत्री मन्त्र अथवा ‘ओ३म् स्वाहा’ बोलकर दे सकते हैं। आचार्य जी ने सभी श्रोताओं को दैनिक यज्ञ करने की प्रेरणा की और अपने वक्तव्य को विराम दिया। 

    इसके बाद सभी ने मिलकर सन्ध्या की। सामूहिक सन्ध्या किये जाने का यह एक अनुपम दृश्य था जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सन्ध्या के बाद वैदिक साधन आश्रम के यशस्वी प्रधान श्री विजय आर्य जी ने सभी विद्वानों एवं आगन्तुक अतिथियों का धन्यवाद किया। 
-मनमोहन कुमार आर्य
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