नई दिल्ली । राजस्थान के दक्षिणांचल में उदयपुर संभाग के बाँसवाड़ा और डूंगरपुर जिलों की सीमाओं पर माहीनदी के निकट स्थित डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गाँव को वागड़ की छोटी अयोध्या भी कहा जाता है। भीलूड़ा गाँवमें अयोध्या के साथ ही मथुरा नगरी के दर्शन भी होते हैं। यहाँ के प्राचीन और ऐतिहासिक रघुनाथ मन्दिर मेंस्थापित नयनाभिरामी काले रंग की मूर्ति में भगवान राम और कृष्ण की छवि के एक साथ दर्शन होते हैं।
बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि अयोध्या में बन रहे भगवान राम के भव्य मन्दिर के निर्माण में राजस्थानके पत्थरों और कारीगरों का अभूतपूर्व योगदान है। विशेष कर दक्षिणी राजस्थान के वागड़ अंचल केवास्तुकारों द्वारा देश विदेश में कई भव्य मन्दिर,स्मारक और इमारतें बनाई गई है। गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्डरिकार्ड्स में स्थान दर्ज कराने वाले दिल्ली के अक्षरधाम मन्दिर के मुख्य वास्तुकार भी इसी अंचल के है।डूंगरपुर राजघराने से ताल्लुक़ रखने वाले अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डॉ.नागेन्द्र सिंह नेयहाँ की स्थापत्य कला को देश विदेश में खूब ख्याति दिलाई।
*एक हजार वर्ष से भी प्राचीन मन्दिर में हैं राम लल्ला की प्रतिमा*
डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गाँव में एक हजार वर्ष से भी प्राचीन रघुनाथ मन्दिर के कारण भीलूड़ा गांव ना सिर्फछोटी अयोध्या कहलाया बल्कि इसे पावन तीर्थ स्थल भी माना गया। यह मंदिर डूंगरपुर जिले के सागवाड़ाउपखण्ड से आठ किलोमीटर दूर बांसवाड़ा मार्ग पर माही नदी के मुहाने पर स्थित है। बताया जाता है कि 124 वर्षों पूर्व डूंगरपुर के तत्कालीन राजा महारावल विजय सिंह ने अयोध्या में स्थापित करने के लिए एक सुन्दरश्रीराम प्रतिमा तैयार कराई थी। इस विग्रह में जहां धनुष-बाण के कारण भगवान राम की छवि है, वहीं एक पैरका अंगूठा नहीं होने और कमर में झुकाव होने के कारण इसे भगवान श्रीकृष्ण के रूप में देखा जाता है। यहअलौकिक छवि और दिव्य मूर्ति जब पूर्णतया बनकर तैयार हुई तो अपने सेवकों को विग्रह बैलगाड़ी से अयोध्याले जाने का आदेश देकर महारावल सभी इंतजाम कर अयोध्या चले गए। महारावल विजय सिंह का उत्तर प्रदेशके बनारस से गहरा रिश्ता था । उन्होंने अपने पुत्र लक्ष्मण सिंह का विवाह भिंगा(बनारस) की राजकुमारी से जोकराया था। बाद में बनारस हिंदू विश्व विद्ध्यालय की स्थापना में भी उनका अपूर्व योगदान रहा।
राज्यादेश से डूंगरपुर से अयोध्या ले जाते समय रात हो जाने से परम्परागत ढंग से सज्य की गई दिव्य मूर्ति लेजाने वाले लोग रात्रि विश्राम के लिए भीलूड़ा गाँव में रूक गए।अगली सुबह जब वे आगे की यात्रा के लिएरवाना हुए तो प्रतिमा को ले जाने वाली बैलगाड़ी अपने स्थान पर अडिग हो गई और काफी जतन के बाद भीरघुनाथ जी का विग्रह एक कदम भी आगे नहीं सरका । बताते है कि उसी रात सपने में महारावल विजय सिंहको भगवान का दृष्टांत एवं आदेश प्राप्त हुआ कि यह मूर्ति भीलूड़ा में जिस मंदिर में रुकी है वहीं पर उसेप्रतिष्ठित कर दिया जाए। इसके बाद महारावल के निर्देश पर रघुनाथ श्री राम प्रतिमा को भीलूड़ा गाँव के अतिप्राचीन रघुनाथ मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया गया। मन्दिर में मिले एक शिलालेख के अनुसार आज से करीब482 वर्ष पूर्व के रियासत कालीन डूंगरपुर के महारावल पृथ्वीराज सिंह के काल का वर्णन भी अंकित है ।पृथ्वीराज सिंह महारावल उदय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे। महारावल उदय सिंह अपने कुटुम्बी मेवाड़ के राणा सांगाके साथ देते हुए भारत में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक और प्रथम शासक बादशाह बाबर के साथ हुए खानवाके युद्ध में 1527 में वीरगति प्राप्त हो गए थे। इसके बाद डूंगरपुर राज्य दो भागों में विभक्त हो गया और माहीनदी के दूसरे छोर पर नवगठित बाँसवाड़ा राज्य पर महारावल उदय सिंह के दूसरे पुत्र जगमाल सिंह काराज्याभिषेक हुआ। जबकि शासन के मूल भाग डूंगरपुर के राजा पृथ्वीराज सिंह बनें।
भीलूड़ा मंदिर में मिले शिलालेख पर वि.स.1597 (ई.स.1540) लिखा हुआ है जोकि उस समय मंदिर काजीर्णोद्धार काल होना बताता है। मंदिर में लगे एक अन्य शिलालेख के अनुसार महारावल जसवंत सिंह द्वितीयके शासनकाल में विक्रम् संवंत 1879 आषाढ़ शुक्ल 11 रविवार के दिन मंदिर के शिखर का निर्माण पूर्ण होनेपर रघुनाथ जी की मूर्ति की पूर्ण प्राण-प्रतिष्ठा गर्भ-गृह में कराई गई थी। कालान्तर में कई अन्य शासकों ने भीइस मंदिर के रख रखाव पर ध्यान दिया । विशेष कर महारावल विजय सिंह और उनके पुत्र महारावललक्ष्मणसिंह ने इस मन्दिर पर विशेष ध्यान दिया। तब से आज तक यह मन्दिर लक्ष्मण देवस्थान निधि ट्रस्टमंडल डूंगरपुर के अधिन संचालित है।
महारावल लक्ष्मणसिंह राजस्थान विधानसभा में लम्बे समय तक प्रतिपक्ष के नेता और बाद में विधानसभाअध्यक्ष भी रहें। वर्तमान में राज्यसभा सांसद हर्ष वर्धन सिंह के पिता महारावल महिपाल सिंह इस ट्रस्ट केअध्यक्ष है।
*अंधे शिल्पकार ने दिव्य दृष्टि से किया राघव प्रतिमा का निर्माण*
किवदंती है कि इस दिव्य प्रतिमा का निर्माण डूंगरपुर के एक अंधे शिल्पकार ने अपनी दिव्य दृष्टि से किया था।15वी सदी में निर्मित रघुनाथजी मंदिर की यह प्रतिमा बेजोड़ वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। मन्दिर में प्रतिमाके नीचे भी वि.स.1597 (ई.स.1540) का उल्लेख है।डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा कस्बे का ख्याति प्राप्त रघुनाथजी मंदिर के गर्भ गृह में प्रतिष्ठित श्यामवर्ण की रामावतार एवं कृष्णावतार की समावेशी त्रिभंगी श्रीरामप्रतिमा सुन्दर,अद्वितीय, विलक्षण एवं बेजोड़ है।
रघुनाथजी मंदिर न सिर्फ वागड़ बल्कि समीपवर्ती गुजरात व मध्यप्रदेश के राम भक्तों का भी वर्षों से आकर्षणका केंद्र बना हुआ है।श्रीराम प्रतिमा के एक बार दर्शन कर श्रीराम के अनुग्रह से उपकृत हुए भक्तजनों में बार-बार दर्शन की उत्कंढ़ा बनी रहती है। रामनवमी के दिन श्रंगारित प्रतिमा देख दर्शनार्थीं मुग्ध होकर भक्ति भाव सेबोल उठते है प्रभु प्रतिमा कृपामयी है।
*प्रतिमा पर उत्कीर्ण है शिल्पकला का मनोहारी और अनूठा अलंकरण*
रघुनाथ मन्दिर में प्रतिष्ठित करीब पाँच फीट ऊँची श्यामवर्ण की श्री राम प्रतिमा पारेवा पत्थर की एक हीपाषाण से निर्मित है। प्रतिमा में उत्कीर्ण शिल्पकला का एक-एक अलंकरण मनोहारी और अनूठा है। इसप्रतिमा की विशेषता है कि इसमें त्रेता युग के भगवान राम और द्वापर युग के सौलह कलाओं से युक्त कृष्णदोनो भगवानों के स्वरूपों का समावेश है। श्री राम प्रतिमा के हाथ में तीर व धनुष बने हुए है जो कि भगवान रामका स्वरूप दर्शाते है तो प्रतिमा के दाये पैर का अंगूठा खंडित है जो कि कृष्णावतार की झलक दर्शाता है।प्रज्ञाचक्षु शिल्पकार जब अपनी दिव्य दृष्टि से मूर्ति के स्वरूप को निखारने में लगा हुवा था और प्रतिमा बनकरतैयार होने को थी तभी शिल्पकार के हाथ से छेनी अनायास गिर गयी और वह प्रतिमा के दाये पैर के अंगूठे परलगी जिससे अंगूठा खंडित हो गया। मूर्ति के खंडित होने पर शिल्पकार चिंतित हो गया लेकिन उसे उसी रातसपना आया जिसमें उसे दृष्टांत हुआ कि मूर्ति खंडित नहीं बल्कि अब पूर्ण हो गयी है क्योंकि इसमें कृष्ण रूपकी झलक तभी पूर्ण होगी जब अंगूठा खंडित होगा।
रघुनाथजी के भक्त एवं यहाँ नियमित दर्शन करने वाले भगत बताते है कि रामायण काल त्रेता युग में बाली केअन्याय के कारण जब उनके भाई सुग्रीव ने राम के निर्देश पर युद्ध किया तो बाली को शिव से मिले वरदान केकारण सुग्रीव द्वारा उसका वध नहीं हुआ तब श्री राम ने बाली पर छुपकर तीर चलाकर उसका वध किया था ।बाली के प्राण त्यागने से पूर्व राम उनके सामने प्रकट हुए और शिव द्वारा बाली को दिये वरदान की अवमानना होते देख श्री राम ने कहा था कि मुझे इसका फल अगले जन्म कृष्णावतार में भुगतना होगा। कृष्ण लीला केअनुसार राम के कृष्ण अवतार में आने पर जब कृष्ण कदम्ब के पेड़ के उपर बैठे थे तो अगले जन्म में बाली नेतीर चलाया था जो उनके दाये पैर के अंगूठे पर लगा था। इसी कारण मूर्ति में कृष्ण रूप देने के लिए प्रतिमा काअंगूठा खण्डित है लेकिन इसे खंडित नहीं पूर्ण मूर्ति मानकर पूजा जाता है। इसी कारण यह प्रतिमा रामावतारऔर कृष्णावतार दोनों का समावेश लिए हुए हैं।
वर्षों से मंदिर की पूजा-अर्चना करने वाले पुजारी कन्हैयालाल शर्मा एवं दिनेश शर्मा का कहना है कि यहप्रतिमा कई मायनो में अद्वितीय है। ये देखने में राम प्रतिमा है लेकिन कृष्ण अवतार की झलक भी इसमें है।अधिकांश श्री राम प्रतिमाएं श्वेत पाषाण की बनी होती है लेकिन इसमें कृष्ण रूप का समावेश होने से ये श्यामपाषाण की बनी हुई है। सम्पूर्ण प्रतिमा एक ही पत्थर से कुछ इस प्रकार बनी है कि यह मानव के समान खड़ीहुई प्रतीत होती है। इसे कपड़े पहनाते समय धोती भी मानव के समान ही पहनायी जाती है। इस इलाके में पाएजाने वाले स्लेटी रंग के परेवा पत्थर से बनी यह प्रतिमा कॉच के समान बहुत ही मुलायम पत्थर की है।इसपत्थर की विशेषता है कि कोई भी मूर्ति आकार लेने के बाद उस पर तैल की मालिश करते ही वह काले रंग कीहो जाती हैं। रघुनाथ मन्दिर में भी ऐसा ही है । यहाँ राम प्रतिमा के नीचे चरणों में दाहिनी ओर लक्ष्मण एवंबाँयी ओर सीता माता जी की खड़ी मूर्तियाँ है। राम, लक्ष्मण और जानकी का ये स्वरूप भगवान कृष्ण के उसस्वरूप की समानता लिए हुए है जो कृष्ण, बलराम और राधा को जीवंत करता है। मुख्यतः रामदरबार मेंलक्ष्मणजी एवं सीताजी की प्रतिमा समकक्ष ही होती है। परन्तु यहाँ अनुपात में दोनों ही बहुत ही छोटी है।
गर्भगृह के प्रवेश द्वार में चांदी से मण्डित किवाड़ लगे हुए हैं। इन किवाड़ों पर सम्पूर्ण रामायण चित्रित है। चांदीपर की गई इन चित्रों की नक्काशी युक्त कलाकृतियां आकर्षक है। दोनों किवाड़ो पर राम दरबार, भगवान रामकी शिशु लीलाएं, ताड़का वध, सीता स्वयंवर, राम-विवाह, पंचवटी-सीताहरण, बाली सुग्रीवयुद्ध, हनुमान लंकागमन, अशोक वाटिका मे सीता, सेतु बांधना, लंका दहन, रावण की सभा में अंगद तथा राम-रावण युद्ध केदृश्यों को बहुत ही खूबसुरती के साथ उत्कीर्ण किया हुआ है।
प्रतिमा के बांये हाथ में धनुष एवं दाये हाथ में बाण है। पीठ पर धारण किये हुए तरकश में भी बाण लगे हैं।रामजी की प्रतिमा त्रिभंगी है, अर्थात् श्रीरघुनाथ जी का विग्रह कमर से कुछ घुमाव लिए हुए है। इस कारण इसविग्रह में कृष्ण अवतार की झलक साफ नजर आती है। ऐसी प्रतिमा देश में कही ओर मौजूद नही है।सामान्यतः श्री राम प्रतिमाऐ श्वेत पाषाण में ही निर्मित होते हैं लेकिन रघुनाथजी की यह प्रतिमा श्यामरंग केपाषाण की बनी हुई है प्रतिमा में धनुषधारी रघुनाथजी के दशावतार को दिखाया गया है। नीचे के भाग में दोनोंऔर हनुमानजी बिराजे हुए हैं। पाश्र्व में खड़ी पंक्ति के दोनों ओर द्वितीय भाग में नृत्यरत आकृतियां, वीणावादिनी, मृदंग बजाती, शेर एवं हाथियों की आकृतियां उत्कीर्ण हैं ।
इसके अलावा रघुनाथजी मंदिर के भव्य परिसर के प्रवेश द्वार के पास प्रथम पूज्य भगवान गणपति एवं रामभक्त हनुमान के देवालय है वहीं परिसर में सूर्व देव, देवी माता और श्री हरि के आराध्य भगवान शिव केदेवालय भी है।
रामनवमी पर उमड़ता है अपार भक्ति, श्रद्घा एवं उल्लास का ज्वार भाटा
इस मन्दिर में रामनवमी महापर्व के रूप में मनाई जाती है। इसके साथ ही कृष्ण भगवान की झलक भी इसमेंहोने के कारण जन्माष्टमीं भी धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन भगवान के हाथों में जब बासूंरी होती है तोलगता ही नहीं कि ये विग्रह भगवान राम का है।रघुनाथजी मंदिर में रामनवमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त की मंगलआरती के साथ ही मधुर स्वर लहरियाँ और लुभावनी धुनें प्रारंभ होती है जोकि दिनभर जारी रहती है। श्रीरामकी अद्वितीय और सजीव एवं भव्य नयनाभिराम मूर्ति का मनमोहक श्रृंगार दर्शनीय रहता है । इस मंदिर के बारेमें ऐसा भी कहा जाता है कि यहां पर पंचतत्व स्थापित हैं। इन पंचतत्वों के कारण ही भगवान के विग्रह में इतनाआकर्षण है कि भगवान के दर्शन की लालसा दूर से ही जागृत हो जाती है। विष्णु पंचायतन मंदिर होने केकारण मंदिर के विशाल परिसर में गणेश जी, हनुमान जी, सूर्य भगवान, विष्णु जी के साथ-साथ अन्य देवता भीविराजित हैं। यही कारण है कि मंदिर में हर त्योहार एक विशेष पर्व का रूप ले लेता है और उस दिन मंदिर कोआकर्षक रूप से सजाया जाता है। श्री रघुनाथ जी को सातों दिन अलग-अलग भोग लगाया जाता है।कभी येभोग खिचड़ी के रूप में होता है तो कभी पकवान भगवान को अर्पित किए जाते हैं। सुबह जहां राजभोग भगवानको लगाते हैं तो वहीं शयन के समय भगवान को दूध का भोग लगाया जाता है।
राम जन्मोत्सव के समय दोपहर बारह बजे भक्त मूर्ति की एक झलक पाने को लालायित हो उठते है। एक बारऐसा भी हुआ है कि भगवान की भक्ति में लीन एक भक्त ने जब पूरी तन्मयता से भगवान की स्तूति में भाव-विभोर हो भजन गीत गाए तो मंदिर के बंद दरवाजे अपने-आप ही खुल गए और भगवान ने भक्त को दर्शन दिए।इसके बाद से वागड़ क्षेत्र में रहने वाले नागर-ब्राहम्ण समाज के लोग रामनवमीं का पर्व भीलूड़ा आकर ही मनानेलगे। राम नवमी पर यहाँ श्रीराम के बाल, युवा एवं प्रौढ़ तीनों रूप की झांकियां दर्शायीं जाती है। यहॉ भक्ति, श्रद्घा एवं उल्लास का एक ऐसा ज्वारभाटा उमड़ता है जिसमें वागड़ के अलावा पड़ौसी प्रदेशों गुजरात एवंमध्यप्रदेश से भी बड़ी संख्या में राम भक्त यहाँ आकर अपने आराध्य देव को श्रद्घा सुमन अर्पित करते है। मंदिरपरिसर दिनभर विभिन्न स्थानों से आने वाली भजन मंडलियों के मधुर भजनों की स्वरलहरियों से गूंजायमानरहता है।
रक्षाबंधन पर्व पर प्राचीन विधि-विधान से विष्णु पंचायतन मंदिर होने के कारण मंदिर के विशाल परिसर मेंगणेश जी, हनुमान जी, सूर्य भगवान, विष्णु जी के साथ-साथ अन्य देवता भी विराजित हैं। यही कारण है किमंदिर में हर त्योहार एक विशेष पर्व का रूप ले लेता है और उस दिन मंदिर को आकर्षक रूप से सजाया जाताहै। श्री रघुनाथ जी को सातों दिन अलग-अलग भोग लगाया जाता है. कभी ये भोग खिचड़ी के रूप में होता है तोकभी पकवान भगवान को अर्पित किए जाते हैं। सुबह जहां राजभोग भगवान को लगाते हैं तो वहीं शयन केसमय भगवान को दूध का भोग लगाया जाता है। विष्णु पंचायतन मंदिर होने के कारण मंदिर के विशाल परिसरमें गणेश जी, हनुमान जी, सूर्य भगवान, विष्णु जी के साथ-साथ अन्य देवता भी विराजित हैं। यही कारण है किमंदिर में हर त्योहार एक विशेष पर्व का रूप ले लेता है और उस दिन मंदिर को आकर्षक रूप से सजाया जाताहै। श्री रघुनाथ जी को सातों दिन अलग-अलग भोग लगाया जाता है. कभी ये भोग खिचड़ी के रूप में होता है तोकभी पकवान भगवान को अर्पित किए जाते हैं। सुबह जहां राजभोग भगवान को लगाते हैं तो वहीं शयन केसमय भगवान को दूध का भोग लगाया जाता है।
रक्षा बंधन पर यहाँ ‘हरिया’ नामक खेल खेला जाता है। इस खेल के जरिए जहां आगामी मौसम का आंकलनकर ग्रामीण भविष्य की योजनाएं तैयार करते हैं, वहीं यह खेल आपसी समरसता और भाईचारे को भी बढ़ावादेता है। वहीं होली के बाद इस आदिवासी बहुल अंचल में यहाँ एक अभिशाप के निवारण के लिए पत्थरों सेखूनी होली भी खेली जाती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘राड’कहा जाता है।