“हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौनसिटी के संस्कृत व्याकरण विषयक दो नये प्रकाशन सामासिकः एवं स्त्रैणताद्धितः प्रकाशित”

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Published on : 25 Feb, 22 05:02

“हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौनसिटी के संस्कृत व्याकरण विषयक दो नये प्रकाशन सामासिकः एवं स्त्रैणताद्धितः प्रकाशित”

     हमें हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौन सिटी के दो नये प्रकाशन ‘सामासिक:’ एवं ‘स्त्रैणताद्धितः’ प्राप्त हुए हैं। यह दोनों पुस्तके संस्कृत व्याकरण के अध्ययन में आवश्यक एवं उपयोगी हैं। दोनों ही ग्रन्थ ऋषि पाणिनी द्वारा लिखे गये हैं। सामासिकः वेदांगप्रकाश का पंचम भाग है तथा स्त्रैणताद्धितः छठा भाग। इन दोनों ही पुस्तकों की सम्पादिका आर्यविदुषी आचार्या डा. प्रियंवदा वेदभारती जी हैं। दोनों पुस्तकों के प्रकाशक ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी का डाक-पता हितकारी प्रकाशन समिति, ब्यानिया पाड़ा, द्वारा-‘अभ्युदय’ भवन, अग्रसेन कन्या महाविद्यालय मार्ग, स्टेशन रोड, हिण्डौन सिटी (राजस्थान)-322230 तथा सम्पर्क करने हेतु मोबाइल नम्बर 7014248035/ 9414034072 हैं। इन दोनों ही ग्रन्थों का प्रकाशन कुछ माह पूर्व सन् 2021 में हुआ है। दोनों पुस्तकों के मूल्य क्रमशः 40.00 रुपये एवं 80.00 रुपये हैं। सामासिकः पुस्तक में श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने प्रकाशकीय वक्तव्य में बताया है कि देव दयानन्द द्वारा व्याकरण शिक्षण हेतु चैदह खण्डीय वेदांगप्रकाशः का लेखन किया गया था। ‘सामासिकः’ पुस्तक अद्भुद ग्रन्थ है। यह इस ग्रन्थमाला का पांचवा भाग है। हम इसके चैदहों भाग प्रकाशित करने के लिये कटिबद्ध हैं। कालदर्शी दयानन्द तथा उनके अनुयायियों ने स्त्री शिक्षा के क्रम में महत्वपूर्ण कार्य किया है। वर्तमान में नारी शक्ति द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में किये जा रहे कार्यों का स्रोत महर्षि द्वारा ही प्रवाहित किया गया है। ‘हितकारी प्रकाशन समिति’ द्वारा प्रकाशित इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन ऋषिराज की मानस पुत्री आचार्या डा. प्रियम्वदाजी वेदभारती द्वारा किया जा रहा है। यह आर्यसमाज के गौरव का एक अध्याय है। समिति मानवोत्थान के क्रम में प्रयासरत है और भविष्य में इसका विशद् रूप आपके (पाठकों के) समक्ष आयेगा। ‘सामासिकः’ पुस्तक में प्रकाशकीय के बाद सम्पादिका जी ने ‘द्वे वचसी’ शीर्षक से संस्कृत में विचार प्रस्तुत किये हैं। इसके पश्चात डा. वेदभारती जी लिखित सम्पादकीय दिया गया है। 

    पुस्तक में दिए सम्पादकीय में डा. प्रियम्वदा वेदभारती जी ने लिखा है ‘समास’ संस्कृत भाषा का अद्भुत सौन्दर्य है जो वेदों से ही आविर्भूत हुआ है। रामायण-महाभारत आदि की सुललित छन्दोबद्ध पद्य रचना समास के बिना अशक्य ही थी और इसी समास विद्या का आश्रयण कर बाण, दण्डी, सुबन्धु, अम्बिकादत्त व्यास प्रभृति संस्कृत-गद्यसम्राट् भी अपनी रचनाओं को उत्कृष्टता की पराकाष्ठा तक पहुंचा सके। इस प्रकार वैदिक वांग्मय से लेकर लौकिक संस्कृत वांग्मय के प्रत्येक ग्रन्थ में व्याकरण की अंगभूत समासविद्या ओतप्रोत है जिसका परिज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। वेदांगप्रकाशों के प्रणेता महर्षि दयानन्द समास ज्ञान की अनिवार्यता बताते हुए स्पष्ट कहते हैं--‘‘समासविद्या के जाने विना कुछ विदित नहीं हो सकता इसलिये समासविद्या अवश्य जाननी चाहिये।” स्वामी जी ने इसीलिये ‘सामासिक’ नामक वेदांगप्रकाश की रचना पृथक् रूप से की। सम्पादकीय के बाद ऋषि दयानन्द लिखित इस पुस्तक की तीन पृष्ठों की ‘अथ सामासिक भूमिका’ भी दी गई है। 

    सामासिक भूमिका के आरम्भ में बताया गया है कि समास उसे कहते हैं कि जिसमें अनेक पदो को एक पद में जोड़ देना होता है। जब अनेक पद मिल के एक पद हो जाता है तब एक पद और एक स्वर होते हैं, पर समास विद्या के जाने बिना कुछ विदित नहीं हो सकता। इसलिये समास विद्या अवश्य जाननी चाहिये। समास चार प्रकार का होता है- एक अव्ययीभाव। दूसरा तत्पुरुष। तीसरा बहुव्रीहि और चैथा द्वन्द्व। अव्ययीभाव में पूर्वपदार्थ, तत्पुरुष में उत्तरपदार्थ, बहुव्रीहि में अन्य पदार्थ और द्वन्द्व में उभय अर्थात् सब पदों के अर्थ प्रधान रहते हैं। जिसका अर्थ मुख्य हो वही प्रधान कहाता है। इसके बाद अव्ययीभाव तथा तत्पुरुष समास के प्रकार आदि विषयों का वर्णन किया गया है। भूमिका के बाद पुस्तक की विषय-सूची है। पृष्ठ 9 से आरम्भ कर पृष्ठ 97 तक 406 सूत्र प्रस्तुत कर उनके अर्थों का प्रकाश किया गया है। पुस्तक के अन्त में सामासिके सूत्रानुक्रमणिका तथा सामासिके वार्त्तिकानि दी गई हैं। 

    स्त्रैणताद्धितः पुस्तक में सम्पादकीय लेख में सम्पादिका महोदया डा. वेदाभारती जी ने बताया है कि सुबन्त पदों की संरचना में कृत् और तद्धित प्रत्ययों का महत्वपूर्ण स्थान है। तीसरे प्रकार के वे भी प्रत्यय महत्वपूर्ण हैं जो कृत् तद्धित संज्ञक न होकर स्त्री प्रत्यय कहाते हैं। कृत् प्रत्ययों का व्याख्यान महर्षि दयानन्द ने ‘आख्यातिक’ ग्रन्थ की कृत्य प्रक्रिया तथा कृदन्त प्रक्रिया में किया है और स्त्री प्रत्ययों तथा तद्धित प्रत्ययों की व्याख्या के लिये ‘स्त्रैणताद्धित’ ग्रन्थ बनाया है। स्त्रियाम् (4।1।3) के अधिकार में होने वाले प्रत्यय ‘स्त्रैण’ कहे जाते हैं और तद्धिताः (4।1।76) के अधिकार में होने वाले प्रत्यय ‘ताद्धित’ कहे जाते हैं। स्त्रैण और ताद्धित प्रत्ययों को आधार बनाने के कारण इस ग्रन्थ की अन्वर्थ संज्ञा ‘स्त्रैणताद्धित’ हुई है। इस ग्रन्थ में पाणिनीय व्याकरण के 656 सूत्र 276 वात्र्तिकें तथा 13 कारिकायें आर्य (हिन्दी) भाषा में व्याख्यात हैं। 5 सूत्र पुनव्र्याख्यात हैं। सम्पादकीय में अन्य विषय भी दिये गये हैं। सम्पादकीय के बाद पुस्तक की ऋषि दयानन्द कृत भूमिका दी गई है। यह पुस्तक कुल 224 पृष्ठ में पूर्ण हुई है। पुस्तक के अन्त में स्त्रैणताद्धिते सूत्रानुक्रणिका, स्त्रैणताद्धिते कारिका तथा स्त्रैणताद्धिते वात्र्तिकानि भी दी गई हैं। 

    दोनों पुस्तकों के अन्तिम आवरण पृष्ठ पर इस पुस्तक की विदुषी सम्पादिका आचार्या वेदभारती जी का जीवन परिचय प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् डा. भवानीलाल भारतीय जी के द्वारा लिखित शब्दों में दिया गया है। परिचय इस प्रकार है।

    डा. प्रियंवदा वेदभारती ने 14 जुलाई 1996 से स्वस्थापित गुरुकुल आर्ष कन्या विद्यापीठ के संचालन का गुरुतर भार सम्भाला है। इन्होंने 25 वर्षों तक पाणिनि कन्या महाविद्यालय वाराणसी में डा. प्रज्ञादेवी व पं. मेधादेवी की अन्तेवासिनी बनकर 15 वर्ष तक अध्ययन तथा उसके बाद 10 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया। आपने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से प्राचीन व्याकरण तथा वेद-निरुक्त विषय में आचार्य परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा सर्वप्रथम परीक्षार्थी के रूप में प्रतापभाई शूरजी स्वर्णपदक तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय स्वर्णपदक प्राप्त किया। इनका शोध विषय आर्यजगत् के दिग्गज विद्वान् पं. युधिष्ठिर मीमांसकजी के परामर्शानुसार ‘पाणिनीय-व्याकरणवाड्मये यज्ञीयमीमांसा’ है। प्रांजल संस्कृत भाषा में लिखा गया यह शोधग्रन्थ डा. रामनाथ वेदालंकार प्रभृति वैदिक विद्वानों से सुपरीक्षित तथा पाणिनीय व्याकरण शास्त्र में विवृत समग्र यज्ञीय विषयों का व्यापक अध्ययन तथा शोधपूर्ण समीक्षण है। आशा है यह कृति शीघ्र ही हिन्दी भाषा में अनुवादसहित पाठकों को प्राप्त हो सकेगी। डा. वेदभारती ने यज्ञीय तथा वैदिक विषयों पर अनेक शोधपूर्ण लेख संस्कृत तथा हिन्दी भाषा में लिखे हैं। आपके कन्या गुरुकुल की अनेक लब्धप्रतिष्ठ स्नातिकायें आर्यजगत् में वेदों के प्रचार-प्रसार में लगी हैं। डा. प्रियंवदा का यज्ञीय ऋत्विक् कर्म तथा वैदिक प्रवचन आर्यजगत् में प्रशंसा के साथ सुना जाता है। 

    दोनों पुस्तकें ‘सामासिकः’ तथा ‘स्त्रैणताद्धितः’ गुरुकुलों में अध्ययनरत छात्रों, आचार्यों व इतर संस्कृत पाठशालाओं वा विद्यालयों में संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करने वाले छात्रों व अध्यापकों के लिये उपयोगी हैं। इसका महत्व तो संस्कृत के आचार एवं छात्र ही भलीप्रकार से जान सकते हैं। हमने इन पुस्तकों का परिचय देने के लिये उपर्युक्त कुछ पंक्तियां लिखी हैं। आशा है कि हमारे पाठकों को इससे इन पुस्तकों के प्रकाशन व उपलब्धता की जानकारी मिलेगी। प्रकाशक महोदय द्वारा इस ज्ञानयज्ञ को सम्पन्न करने के लिए धन्यवाद है। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
फोनः09412985121 
 


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