“सन्तान के जीवन में माता-पिता का स्थान स्वर्ग से भी बढ़कर है”

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Published on : 23 Nov, 21 11:11

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“सन्तान के जीवन में माता-पिता का स्थान स्वर्ग से भी बढ़कर है”

ओ३म्
हम संसार में अपनी अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं वा हमने अपनी माता से जन्म लिया है। यदि माता न हो तो हम अपने जन्म की कल्पना भी नहीं कर सकते। परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है और उसी ने इस माता-पुत्र के पवित्र सम्बन्ध को भी बनाया है। पिता का हमारे अस्तित्व व जन्म में माता के ही समान महत्वपूर्ण स्थान है। पिता माता व पुत्र-पुत्री की जीवन भर रक्षा व पालन पोषण करता है। माता-पिता अपनी-अपनी सन्तानों के लिये जो तप, त्याग व बलिदान करते हैं उसे कोई भी पुत्र व पुत्री अपना जीवन देकर भी नहीं चुका सकते। इसे अनेक उदाहरण देकर सिद्ध किया जा सकता है। माता के गौरव के विषय में शास्त्रों में क्या वचन व प्रमाण सुलभ हैं उनमें से कुछ का उल्लेख हम यहां कर रहे हैं। इससे पूर्व यह भी उल्लेख कर दें कि आज की लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण आर्यों की सन्तानें भी ईश्वर, ऋषि, माता, पिता व आचार्यों के ऋण को विस्मृत कर चुकी हैं। आज के युवा दम्पतियों का उद्देश्य अपने, अपनी पत्नी व बच्चों के लिये धनोपार्जन करना व उनके लिए सुख-सुविधाओं का संग्रह व संचय करना हो गया है। इसने हमारे सदियों पुराने पारिवारिक व सामाजिक ढांचे को ध्वस्त प्रायः कर दिया है। पहले संयुक्त परिवार होते थे आज संयुक्त परिवार कहीं देखने को नहीं मिलते। जब कभी हमें कोई यह कह देता है कि हम पांच भाई हैं। माता-पिता जीवित हैं। सभी भाई विवाहित एवं ससन्तान हैं और सभी एक साथ एक भी घर में मिलकर प्रेम से रहते हैं और उनके परिवार में रसोईघर भी एक ही है तो हमें आश्चर्य व प्रसन्नता का अनुभव होता है। सौभाग्य से हमें ऐसे व्यक्ति मिले जिन्होंने दिल्ली में पुलिस सेवा में एक बड़े पद को सुशोभित किया है। वह पक्के और सच्चे ऋषि भक्त हैं और इण्टरनैट का उपयोग करते हुए वेद मन्त्रों के सरल व सुबोध अर्थ हिन्दी व अंग्रेजी में प्रतिदिन लोगों तक पहुंचाते रहते हैं। उन्होंने वेदों के मन्त्रों के संक्षिप्त, सरल व सुबोध अर्थों से युक्त एक भव्य व आकर्षक पुस्तक भी रची है। उनका संयुक्त परिवार सफलतापूर्वक चल रहा है जिसे हम उनके परिवार में वैदिक संस्कारों का जीता जाता उदाहरण मान सकते हैं। काश यह स्थिति बड़े स्तर पर हमारे देश व समाज में भी होती?

    माता को माता क्यों कहते हैं? इसलिये कि ‘मान्यते पूज्यते या सा माता’ अर्थात् जिसका मान व पूजा की जाती है, वह माता कहलाती है। इसकी एक अन्य परिभाषा यह है कि ‘या मिमीते मानयति वा सर्वान् पुत्रान् सा माता’ अर्थात् अपनी सन्तानों पर पूर्ण कृपा से युक्त जननी अपनी सन्तानों का सुख और उन्नति चाहती है इसलिये उसे माता कहते हैं। ‘माता निर्माता भवति’ वचनों का अत्यधिक प्रचार है जिसका अर्थ है माता अपने बच्चों का लालन-पालन और निर्माण करने से माता कहलाती है। माता एक प्रकार से विश्वकर्मा की तरह होती है। वह जैसा चाहती है वैसा ही वह अपने बच्चों को बना सकती है। माता मदालसा का उदाहरण प्रायः इस विषय में दिया जाता है कि उसने अपनी इच्छानुसार अपनी सन्तानों को ब्रह्मवेत्ता और राजधर्म का पालन करने वाला बनाया था। 

    महर्षि मनु माता का महत्व बताते हुए मनुस्मृति के 2/145 श्लोक में कहते हैं ‘उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।।’ इसका अर्थ है कि दस उपाध्यायों से एक आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा एक पिता और हजार पिताओं की अपेक्षा एक माता गौरव में अधिक है अर्थात् बड़ी है। माता व मातृभूमि का गौरव वर्णन करने वाली बाल्मीकी रामायण का निम्न श्लोक भी प्रायः उद्धृत किया जाता है जिसमें लंका पर विजय करने के बाद राम लक्ष्मण जी को प्रेरणा करते हैं: 

    अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
    जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।

    इस श्लोक का अर्थ है, हे लक्ष्मण! यद्यपि लंका सोने के समान है परन्तु मुझे यह बिल्कुल पसन्द नहीं है। मेरे लिये तो जन्म देने वाली जननी-माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। ऐसे ही वचनों को कहने व सभी आदर्शों का जीवन में पालन करने के कारण ही राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। नेपाल में इन उच्च भावों का सम्मान करने के लिये वहां के एक रुपये से एक सौ रुपये के नोट पर ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ छपा करता था। अब छपता है या नहीं, पता नहीं। अब वहां माओवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार बढ़ता जा रहा हैं। यहां तक की वहां चीन निःशुल्क अपनी भाषा स्कूल में पढ़ा रहा है और वहां की सरकार इसके लिये सहयोग कर रही है। भारत इसका सर्वथा उल्टा देश हैं। यहां के राजनीतिज्ञ विश्व की सर्वोत्तम भाषा संस्कृत की पुत्री हिन्दी को अपनाने में आनाकानी करते हैं। यदि केन्द्र सरकार का कोई नेता हिन्दी के गौरव के प्रति एक शब्द भी बोल देता है तो दक्षिण भारत के राज्यों और कुछ दिल्ली के राजनीतिक दलों को अच्छा नहीं लगता। यह तथ्य है कि हिन्दी ही इस समय देश की प्रभावशाली सम्पर्क भाषा है और आजादी के आन्दोलन में भी पूरे देश में हमारे स्वतन्त्रता सेनानी और क्रान्तिकारी हिन्दी का ही प्रयोग करते थे। नेताजी जी के यह शब्द हिन्दी में ही कहे गये थे ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’

    महाभारत में भी माता की महिमा का एक महत्वपूर्ण प्रसंग यक्ष-युधिष्ठिर संवाद के रूप में मिलता है। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि पृथिवी से भारी क्या है? आकाश से भी ऊंचा क्या है? वायु से भी तीव्र चलने वाला क्या है? और तृणों से भी विस्तृत, असीम वा अनन्त क्या है। इसका उत्तर युधिष्ठिर जी इस प्रकार दियाः

    माता गरुतरा भूमेः पिता चोच्चतरं च खात्।
    मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।। 

    अर्थात् माता पृथिवी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है और चिन्ता तिनकों से भी अधिक असंख्य-असीम-विस्तृत व अनन्त है। महाभारत यह भी बताता है कि माता के समान सन्तान का गुरु दूसरा कोई नहीं है। मनुस्मृति के श्लोक में कहा गया है कि आचार्य वेदज्ञान देने से ब्रह्मा की मूर्तिरूप हैं, पिता पालन करने से प्रजापति की मूर्तिरूप हैं। माता पालन व सहनशीलता के कारण पृथिवी की मूर्ति है तथा अपना बड़ा भाई सहायक होने से अपनी आत्मा की ही मूर्ति है।  

    शतपथ ब्राह्मण अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ रामायण से पूर्व का रचा हुआ है। इसमें कहा गया है कि ‘मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद’ अर्थात् माता, पिता और आचार्य, यह तीन उत्तम शिक्षक, जिस सन्तान को प्राप्त होते हैं वही मनुष्य ज्ञानवान् होता है। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि वह कुल धन्य है, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान है जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम, उनका हित करना चाहती है उतना अन्य कोई नहीं करता। “प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान्” अर्थात् धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या न हो जाये तब तक सुशीलता वा सद्गुणों को धारण करने का अपनी सन्तानों को उपदेश करे। शास्त्रों में अनेक वचन प्राप्त होते हैं जिनमें कहा गया है कि पर-स्त्री को मातृवत् जानना चाहिये। हजार पिताओं की अपेक्षा माता गौरव में अधिक है। भूमि मेरी माता है ओर मैं उसका पुत्र हूं। पुत्र माता के मन को सन्तुष्ट करनेवाला हो। गुरुजनों में माता का स्थान ऊंचा होता है। 

    रामायण में वनगमन के प्रसंग में पितृ-भक्ति का एक सुन्दर प्रेरणादायक उदाहरण मिलता है। जब दशरथ जी राम के पूछने पर अपनी उस दुर्दशा का कारण बता नहीं रहे थे और राम को चौदह वर्ष के लिये वन जाने को कह नहीं पा रहे थे, तब राम ने प्रतिज्ञापूर्वक कहा था कि ‘हे पिते! आप मुझे आज्ञा कीजिये। यदि आप मुझे जलती हुई चिता में कूदने की आज्ञा भी करेंगे तो मैं बिना सोच-विचार किए चिता में कूद जाऊंगा।’ यह राम का और वैदिक भारतीय संस्कृति का आदर्श था। आज यह बातें अंग्रेजी शिक्षा ने विलुप्त कर दी गईं हैं। आज तो एल.के.जी. से ही माता-पिता व अध्यापक बच्चों को ईसाई मत प्रधान अंग्रेजी की कवितायें सुनाते व याद कराते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी आर्य-हिन्दू सन्तानें अमेरिका व इंग्लैण्ड जैसी नहीं बनेगी तो फिर कैसी बनेंगी? हम नहीं समझते कि अंग्रेजी स्कूलों में कभी राम व कृष्ण बन सकते हैं। इसके लिये तो हमें वैदिक आर्य गुरुकुल ही चाहियें जिसके प्रति हमारे पौराणिक सनातनी भाई सर्वथा उदासीन व विमुख हैं व सरकार धर्मनिरपेक्षता के हानिकारक सिद्धान्त के डर से कुछ बोलने व करने से घबराती है। पिता के गौरव के प्रति कुछ अधिक लिखने का हम बाद में प्रयास करेंगे। हमने यह लेख कीर्तिशेष आचार्य ब्रह्मचारी नन्दकिशोर जी की पुस्तक मातृ-गौरव की सहायता से लिखा है। उनका आभार एवं धन्यवाद करते हैं। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
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