“अनादि ईश्वरीय ज्ञान वेद ही विज्ञान की तरह सबका सार्वभौमिक धर्म”

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Published on : 05 Oct, 21 09:10

“अनादि ईश्वरीय ज्ञान वेद ही विज्ञान की तरह सबका सार्वभौमिक धर्म”

हमारी इस सृष्टि की रचना सर्वव्यापक ईश्वर ने की है जो सच्चिदानन्दस्वरूप, अनादि, अमर, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव व अन्य सभी नियम सत्य हैं व सर्वव्यापक भी हैं। ऐसा नहीं है कि ईश्वर के नियम भारत में कुछ और हों और अमेरिका व किसी अन्य देश में कुछ और। ईश्वर ने ही अनादि, अजर, अमर, अविनाशी, एकदेशी, सूक्ष्म, ससीम जीवात्माओं को उनके पूर्व कल्प व जन्मों के अनुसार मनुष्यादि प्राणी योनियों में जन्म दिये हैं। आत्मा की उत्पत्ति न तो ईश्वर करता है न इस आत्मा वा जीव का अन्य कोई उपादान व निमित्त कारण है। यह अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक बने रहेंगे। मनुष्य के कर्तव्य व आचरण के नियम क्या हैं, इसका ज्ञान भी सर्वव्यापक एक परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों के माध्यम से संसार के सभी मनुष्यों को दिया था। यही नित्य धर्म ही सभी मनुष्यों वा स्त्री पुरुषों का प्रलय काल तक पथ प्रदर्शन करेगा। आज भी वेद में प्रतिपादित ईश्वर के धर्म संबंधी सभी नियम सुलभ व प्राप्तव्य हैं और उनके सत्य अर्थ भी हमें हिन्दी भाषा सहित विश्व की अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं। वेदों के अर्थ यदि किसी भाषा में उपलब्ध नहीं हैं तो उन्हें हिन्दी व अंग्रेजी के अर्थों से अनुवाद कर जाना व समझा जाता सकता है।

 

                ईश्वर ने जिन नियमों से सृष्टि को रचा है उसका विश्व के वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं और उनके अनुसार वह नियम क्या भारत और क्या यूरोप व विश्व के अन्य भाग, सर्वत्र एक समान हैं। इसी प्रकार से ईश्वर ने मनुष्यों के लिए जो धर्म के सिद्धान्त व मान्यतायें वेदों के माध्यम से सृष्टि के आरम्भ में दी हैं, वही संसार के सभी लोगों का एकमात्र धर्म हैं। मूल सिद्धान्तों में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा होता है तो वह ईश्वरीय नियम न होकर मनुष्यों द्वारा अपनी अल्पज्ञता, अज्ञान, अविद्यादि दोष, हठ, दुराग्रह व स्वार्थ के कारण से ही हो सकता है। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह अपने अपने मत की मान्यताओं का समय समय पर विद्वानों द्वारा विश्लेषण व समीक्षा करायें जिससे उनके मत का असत्य व ईश्वरीय नियमों के विपरीत मान्यताओं को दूर किया जा सके। महाभारत काल के बाद भारत और भारत से बाहर अनेक मत अस्तित्व में आयें हैं जो अपने आप को धर्म आदि के नाम से प्रचारित करते हैं। उनकी कुछ मान्यतायें वेदों के अनुकूल भी हैं। इसका कारण यह है कि वह मान्यतायें सृष्टि के आरम्भ से प्रचलित रहीं हैं जिन्हें उन मतों के प्रवर्तकों को स्वीकार करना पड़ा। सत्य बोलना व सत्य को सबको स्वीकार करना उनकी विवशता है। परन्तु यह भी आवश्यक है कि सब मतों की सभी मान्यतायें सत्य ही होनी चाहिये।

 

      महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में सभी मतों की समीक्षा कर उन मतों का कुछ कुछ असत्य व उनके मिथ्याचारों पर प्रकाश डाला है। आज तक किसी मत ने उन पर विचार कर यह नहीं बताया कि उसमें असत्यता है तो कहां है? इसका अर्थ यह हुआ कि ऋषि दयानन्द की बातें सत्य हैं परन्तु लोगों ने विचार नहीं किया और यदि किया तो उन्होंने अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह व अविद्यादि दोषों के कारण उनका सुधार करना उचित नहीं समझा। इस कारण संसार से अविद्या व अज्ञान का नाश नहीं हो पा रहा है जिससे संसार के मनुष्य मत व सम्प्रदायों में बंट कर दुःख पा रहे हैं। मनुष्य के सभी दुःखों को दूर करने का अर्थात् विश्व में शान्ति स्थापित करने का एक यही उपाय प्रतीत होता है कि सत्यार्थप्रकाश के आधार पर सभी मत अपनी मान्यताओं की समीक्षा कर सत्य को अपनायें और असत्य का त्याग करें। वेदेतर मतों का यह भी कर्तव्य है कि ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण उन्हें वेदों का निष्ठा व श्रद्धापूर्वक अध्ययन करना चाहिये और यदि उन्हें उसमें कुछ भी असत्य व अज्ञान से युक्त प्रतीत होता है तो वह उसे प्रस्तुत करें जिससे वेद के विद्वान व वैदिक धर्मी उन पर विचार कर उनका निराकरण वा समाधान कर सकें। ऐसा न होना, आधुनिक काल जब की विज्ञान अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच रहा है, उचित नहीं है।

 

      ज्ञान व विज्ञान के सर्वथा अनुकूल मान्यतायें ही वर्तमान आधुनिक समय में धर्म हो सकती हैं और उसी का पालन सभी मनुष्यों को करना चाहिये। जहां तक ईश्वर व आत्मा संबंधी ज्ञान व ईश्वरोपासना आदि विषय हैं, उसका ज्ञान तो वेद, उपनिषद व दर्शन आदि की मान्यताओं के अनुसार ही स्वीकार करना होगा। वेदों व उपनिषद आदि की सभी मान्यतायें तर्क, ज्ञान, विश्लेषण आदि पर सत्य सिद्ध होने से उन्हें विज्ञान सम्मत ही स्वीकार करना उचित होगा। हमारे वर्तमान समय के वैज्ञानिक भी कुछ पूर्वाग्रहों से युक्त हैं। वह वेदादि साहित्य का अध्ययन ही नहीं करते। यदि अध्ययन करें तो वह ईश्वर व आत्मा विषयक अपने दृष्टिकोण को बदलने के लिए बाध्य होंगे, ऐसा हम अनुभव करते हैं। जब ऋषि दयानन्द जी जैसा ज्ञानी, योगी व उच्च कोटि का साधक जिसने दर्शनों को गहनता से पढ़ा व समझा था, वह ईश्वर व आत्मा सहित अन्य सभी विषयों पर वेदों को परम प्रमाण मानता है तो हमारे वैज्ञानिकों का भी कर्तव्य बनता है कि वह उनकी मान्यताओं व तर्कों का या तो खण्डन करें या उन्हें स्वीकार करें। उनका ऐसा न करना उचित नहीं है। इससे वैज्ञानिकों की सत्य को स्वीकार करने में रुचि होने में कहीं कुछ न्यूनता प्रतीत होती है।

 

                वर्तमान समय में प्रचलित सभी मतों में अनेक वैदिक मान्यतायें विद्यमान हैं। कुछ बातें वेदों के अनुकूल नहीं हैं जो उनकी अपनी है। इसका कारण उन मतों के आचार्यों की अल्पज्ञता व अन्य कारण हैं। यदि वह सत्य को स्वीकार नहीं करते तो यह उनकी समस्या है। पहली बात जो सभी मतों को स्वीकार करनी चाहिये, वह ईश्वर, जीव व प्रकृति के अनादि, नित्य व अविनाशी होने का सिद्धान्त है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान होने सहित दयालु व न्यायकारी है। आत्मा भी अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, अजर, एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ चेतन तत्व है। प्रकृति सूक्ष्म व जड़ पदार्थ है जो सत्, रज व तम गुणों से युक्त है। ईश्वर ने इस जड़ प्रकृति से ही असंख्य जीवों के कल्याण व सुख के लिए उनके पूर्व कर्मानुसार इस सृष्टि को बनाया है। ईश्वर सनातन है और ऐसा ही उसका ज्ञान व विद्या भी है। वह असंख्य बार इस प्रकृति रूपी उपादान कारण से पूर्व सृष्टियों को बना चुका है और उतनी ही बार उनकी प्रलय भी कल चुका है। यह प्रलय-सृष्टि-प्रलय का क्रम अनादि काल से चलता आ रहा और हमेशा चलता रहेगा। सृष्टि को बनाना, पालन करना, प्रलय करना और जीवों को उनके कर्मानुसार सुख व दुःखरूपी फल देना ईश्वर का स्वभाविक गुण व कर्म है। ऐसा करना ही ईश्वर का स्वभाव है। वह अनादि काल से ऐसा करता आ रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक इसी प्रकार से करता रहेगा। पुर्नजन्म का सिद्धान्त भी सर्वथा सत्य एवं तर्क संगत है। इसे भी सभी मत-मतान्तरों सहित वैज्ञानिकों को भी मानना चाहिये। यदि वह किसी भौतिक पदार्थ से जीवात्मा व मनुष्य को नहीं बना सकते तो उनका कर्तव्य है कि वह ईश्वर द्वारा वेदों में प्रतिपादित ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य सिद्धान्त को स्वीकार कर लें, इसी में उनका व मानवजाति का लाभ है। इससे उनके किसी भोतिक विज्ञान के सिद्धान्त का विरोध नहीं होगा और न किसी प्रकार की हानि होगी।

 

                संक्षेप में हम यही कहना चाहते हैं कि धर्म ईश्वर द्वारा वेदों में प्रकाशित सत्य नियमों का नाम है। वह नियम ईश्वर की तरह सर्वव्यापक व सार्वजनीन हैं। धर्म का प्रचलन ईश्वर के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में होता है। वहीं नियम सर्वत्र काम करते हैं। धर्म वही है जो वेदों में दिया गया है। इसका सत्य सत्य अर्थ करना ही धर्म सम्मत होता है। जो अज्ञानी वेदों के मिथ्या अर्थ करते हैं वह सत्य व धर्म नहीं होता। वेदों में किसी प्राणी के अकारण हत्या वा वध की आज्ञा नहीं है। मांसाहार की आज्ञा भी वेदों में नहीं है। इसी कारण यह कार्य अनुचित व अधर्म की कोटि के हैं। इनका फल जन्म व जन्मान्तर में मनुष्यों को भोगना ही होता है। कोई भी कर्म बिना भोगे नष्ट नहीं होता है। शुभ कर्म का फल सुख और अशुभ वा पाप कर्म का फल दुःख होता है जिसे ईश्वर मनुष्यों को मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म देकर उनका भोग कराता है। सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों का कर्तव्य हैं कि वह विश्व शान्ति व मनुष्यों के सुखों के लिए सत्य को स्वीकार करें। वेदाध्ययन करें और उसकी सभी सत्य बातों का प्रचार करने सहित उन पर आचरण करें। इसी में सबका हित व भलाई है। ईश्वर सर्वव्यापक है। इसी प्रकार से उसका प्रचलित किया धर्म जिसका आधार वेद है, वह भी सभी मनुष्यों में व्यापक व वही सबका हितकारी है। यदि कोई मनुष्य व विद्वान अथवा आचार्य ईश्वरीय ज्ञान वेद व इसके किसी नियम व सिद्धान्त की अवज्ञा करता है तो उसका परिणाम उसको जन्म जन्मान्तरों में दुःख की प्राप्ति व अवनति होगी, ऐसा कर्म-फल मीमांसा से ज्ञात होता है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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