“देश की आजादी को समर्पित आदर्श जीवन: मृत्युंजय भाई परमानन्द”

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Published on : 08 Sep, 21 11:09

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“देश की आजादी को समर्पित आदर्श जीवन: मृत्युंजय भाई परमानन्द”

स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में भाई परमानन्द जी का त्याग, बलिदान व योगदान अविस्मरणीय है। लाहौर षड्यन्त्र केस में आपको फांसी की सजा दी गई थी। आर्यसमाज के  अन्तर्गत आपने विदेशों में वैदिक धर्म का प्रचार किया। इतिहास के आप प्रोफैसर रहे एवं भारत, यूरोप, महाराष्ट्र तथा पंजाब के इतिहास लिखे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने राजद्रोह की प्रेरणा देने वाली पुस्तकें माना था। देशभक्ति के लिए आपको मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई जो बाद में कालापानी की सजा में बदल दी गई। श्री एण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासों से आप कालापानी अर्थात् सेलुलर जेल, पोर्ट ब्लेयर से रिहा हुए और सन् 1947 में देश विभाजन से आहत होकर संसार छोड़ गये। भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म पश्चिमी पंजाब के जेहलम जिले के करियाला ग्राम में 4 नवम्बर 1876 को मोहयाल कुल में भाई ताराचन्द्र जी के यहां हुआ था। महर्षि दयानन्द जी के बाद वैदिक धर्म के प्रथम शहीद पं. लेखराम, स्वतन्त्रता सेनानी खुशीराम जी जो 7 गोलियां खाकर शहीद हुए तथा लार्ड हार्डिंग बम केस के हुतात्मा भाई बालमुकन्द जी की जन्म भूमि भी पश्चिमी पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान की यही झेलम नगरी थी। भाई बालमुकन्द और भाई परमानन्द जी के परदादा सगे भाई थे। भाई मतिदास भी भाई परमानन्द के पूर्वज थे जिन्हें मुस्लिम क्रूर शासक औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चैक में आरे से चिरवाया था। उनके वंशजों को ‘‘भाई” की उपाधि सिक्खों के गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने देते हुए कहा था कि दिल्ली में हमारे पूर्वजों का खून मतिदास जी के खून के साथ मिलकर बहा है इसलिए आप हमारे भाई हैं। 

    आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने सन् 1877 में पंजाब में वैदिक धर्म का व्यापक प्रचार किया था। उनके भक्त अमीचन्द की पंक्तियां - ‘दयानन्द देश हितकारी, तेरी हिम्मत पे बलिहारी’ पंजाब के गांव-गांव में गूंज रही थी। ऐसे वातावरण में आप बड़े हुए। प्राइमरी तक की भाई परमानन्द की शिक्षा करियाला गांव में हुई। इसके बाद चकवाल के स्कूल में आपका अध्ययन हुआ। कुशाग्र बुद्धि भाई परमानन्द यहां अपने शिक्षकों के प्रिय छात्र बनकर रहे। लगभग 14 वर्ष की आयु में आपकी माता मथुरादेवी जी का देहान्त हो गया। पौराणिक पण्डितों के अन्धविश्वासपूर्ण कर्मकाण्ड को देख व अनुभव कर आपने पौराणिकता छोड़ कर आर्यसमाज को अपनाया। प्रसिद्ध दयानन्दभक्त गीतकार अमीचन्द तथा रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी पश्चिमी पंजाब में आपके निकटवर्ती थे। इन दोनों आर्य प्रचारकों का आप पर विशेष प्रभाव था। चकवाल में आपने आर्यसमाज की स्थापना भी की। 

    सन् 1891 में आप लाहौर आये तथा सन् 1901 में एम.ए. करके आपने मैडिकल कालेज में प्रवेश लेकर चिकित्सक बनने का विचार किया। दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक स्कूल व कालेज के मुख्य संस्थापक महात्मा हंसराज की प्रेरणा से आपने अपना यह विचार बदल कर दयानन्द कालेज, लाहौर का प्राध्यापक का पद ग्रहण कर लिया। इस कालेज का आजीवन सदस्य बनकर आपने 75 रुपये मासिक के नाममात्र के वेतन पर अपनी सेवायें डी.ए.वी. कालेज को प्रदान की जबकि आपको अन्यत्र कार्य करके अधिक वेतन मिल सकता था। युवावस्था में तपस्या का कठोर व्रत लेकर आपने जीवन भर उसका पालन किया। राजनीति में प्रवृत्त नेतागण हिन्दुओं के उचित हितों की बात करने वाले को साम्प्रदायिक मानते हैं। ऐसे लोगों से आपकी तालमेल नहीं बैठी। उचित अनुचित बातों को आप यथातथ्य प्रकट करते थे। हिन्दू हितों के विरोधियों को आप कहा करते थे--‘‘अगर हमदर्दी ए निशानी कुफ्र की ठहरी। मेरा इमान लेता जा, मुझे सब कुफ्र देता जा।”

    आपका निवास लाहौर में भारत माता मन्दिर की तीसरी मंजिल पर था। सरकार को आपकी गतिविधियों पर शुरू से ही शक था। इस कारण पुलिस ने एक बार आपके निवास की तलाशी ली। आपके सन्दूक से शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह द्वारा लिखी हुई स्वतन्त्र भारत के संविधान की प्रति तथा बम बनाने के फार्मूले का विवरण बरामद हुआ। इस कारण आपको बन्दी बना लिया गया। श्री रघुनाथ सहायक जी वकील के प्रयास से आप 15 हजार रुपये की जमानत पर रिहा हुए। अभियोग में आप पर देश-विदेश में विदेशी शासन के विरुद्ध प्रचार का आरोप लगाया गया था। 22 फरवरी 1915 को लाहौर षड्यन्त्र केस में आप पुनः बन्दी बनाये गये थे। 30 सितम्बर, 1915 को विशेष ट्रिब्यूनल ने आपको फांसी का दण्ड सुनाया। आपकी पत्नी ‘माता भाग सुधि’, श्री रघुनाथ सहाय वकील तथा महामना मदनमोहन मालवीय जी के प्रयासों से 15 नवम्बर 1915 को फांसी का दण्ड दिये गये 24 में से 17 अभियुक्तों की सजा को आजीवन कालापानी की सजा में बदल दिया गया। कालापानी में आपको अनेक यातनाओं से त्रस्त होना पड़ा। आपने यहां जेल में आमरण अनशन किया था। लम्बी भूख हड़ताल से आप मृत्यु की सी स्थिति में पहुंच गये। सुहृद मित्रों के आग्रह पर आपने भोजन ग्रहण कर अनशन समाप्त कर दिया। बाद में श्री ऐण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासो से आप कालापानी से रिहा किए गये।

    सन् 1901 में आपने एम.ए. किया था। उन दिनों देश में एम.ए. शिक्षित युवकों की संख्या उंग्लियों पर गिनी  जा सकती थी। इस पर भी सादगी एवं मितव्ययता आपके जीवन में अनूठी थी। सन् 1931 में आपने आर्यसमाज नयाबांस, दिल्ली की स्थापना की थी। एक बार जब आप इस समाज में आमन्त्रित किए गये और आपके मित्र श्री पन्नालाल आर्य रेलवे स्टेशन से आपको तांगे में समाज मन्दिर लाना चाहते थे तो आपने पैदल चलने की इच्छा व्यक्त कर तांगे को दिये जाने वाले चार आने बचा लिये। इस व्यय को आपने अपव्यय की संज्ञा दी थी। देश-विदेश में प्रसिद्ध एवं केन्द्रीय असेम्बली (संसद) के सदस्य भाई परमानन्द जी का यह व्यवहार आदर्श एवं प्रेरणादायक व्यवहार था।     

    भाई परमानन्द जी इतिहासवेत्ता भी थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में आप इंग्लैण्ड गये। वहां इंग्लैण्ड के लोगों की अपने इतिहास के प्रति प्रेम व उसकी रक्षा की प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हुए तथा भारतीयों की अपने इतिहास की उपेक्षा के उदाहरण देते हुए आपने एक विस्तृत पत्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी को लिखा था--‘‘हम कहते हैं कि राजस्थान का कण-कण रक्त-रंजित है। क्या विदेशियों से जूझते हुए बलिदान देने वाले राजस्थानी वीरों व वीरांगनाओं का इतिहास सुरक्षित करने की हमें चिन्ता है?’’ यह प्रश्न स्वामी जी ने अपने पत्र ‘‘सद्धर्म प्रचारक” में प्रकाशित किया था। उनके एक जीवनी लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने इस पर व्यंग करते हुए लिखा है कि “दिल्ली में जहां लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने वालों को फांसी का दण्ड दिया गया था, उसी स्थान पर आज मौलाना आजाद के नाम पर मैडीकल कालेज है। यह है हमारी इतिहास की रूचि।”

    सन् 1928 में लाला लाजपतराय के बलिदान के बाद पंजाब में कांग्रेस के पास उनकी जैसी छवि वाला कोई नेता नहीं था। कांग्रेस के एक शिष्ट मण्डल ने भाई परमानन्द जी से पंजाब में कांग्रेस की बागडोर सम्भालने का अनुरोध किया। भाई जी ने मुस्लिम तुष्टिकरण की कांग्रेस की नीति के कारण अपनी असमर्थता व्यक्त की। शिष्ट मण्डल ने लाला लाजपतराय जी की अर्थी में शामिल भारी भीड़ और उन्हें मिले सम्मान का जिक्र किया और कहा कि आप तो देश की आजादी के लिए कालापानी की सजा काट चुके हैं। देश की जनता में आपके लिए बहुत आदर है, इसलिए आप नेतृत्व करें। इस पर भाई जी ने अपनी स्वाभाविक स्पष्टवादिता की शैली में कहा-‘‘भले ही मेरी अर्थी को कंधा देने वाले चार व्यक्ति भी न आयें, मेरे मरने पर कोई एक आंसू भी न टपकाये, परन्तु मैं अपने सिद्धान्त छोड़कर कांग्रेस में नहीं आ सकता।”

    मई, 1906 में भाई परमानन्द मुम्बई से जलमार्ग से अफ्रीका महाद्वीप में वैदिक धर्म प्रचारार्थ गये। मार्ग में आपको अनेक कष्ट हुए। एक दिन अफ्रंीका में भ्रमण करते हुए आप हब्शियों की बस्ती में जा पहुंचें। वहां एक एक घर से शहद चुराने के कारण क्रोधित एक मां ने उस अपनी चोर कन्या को पेड़ से बांध कर जलाने का प्रयास किया परन्तु अन्तिम क्षणों में कुछ सोच कर उसे वहां छोड़ कर जाना पड़ा। परमानन्द जी जब वहां पहुंचे तो उस कन्या की दशा को देखकर द्रवित हो गये और उसकी सहायता से स्वयं को वहां बांध कर कन्या को वहां से दूर भेज दिया और स्वयं जलने के लिए तैयार हो गये। बस्ती के एक हब्शी ने बाहर आकर जब यह देखा तो अपने साथियों को बुलाया। कन्या की मां ने आकर घटना का सारा वर्णन कह सुनाया। इस घटना से वहां के सभी हब्शी भाई परमानन्द जी के व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्हें उच्च आसन पर बैठा कर उनका सम्मान किया और स्मृति चिन्ह के रूप में उन्हें हाथी दांत से बनी वस्तु देकर विदा किया। उनके एक भक्त श्री विलियम उन्हें ढूंढ़ते हुए वहां आ पहुंचे तो यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गये। बाद में भाई जी को कालापानी भेजे जाने से श्री विलियम बहुत दुःखी हुए थे और भाई जी के मानवोपकार के कार्यो से प्रभावित होकर उन्होंने आर्यघर्म की दीक्षा ली थी। अफ्रीका में भाई परमानन्द ने मोम्बासा, डर्बन, जोहन्सबर्ग तथा नैरोबी आदि अनेक स्थानों पर वैदिक धर्म का प्रचार किया। 

    डर्बन में एक अवसर पर गांधी जी और भाई परमानन्द जी परस्पर मिले। एक सभा जिसमें भाई परमानन्द जी का व्याख्यान हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की थी। भाई जी के जोहन्सबर्ग पहुंचने पर गांधी जी उन्हें अपने निवास पर ले गये थे और श्रद्धावश उनका बिस्तर अपने कंधों पर उठा लिया था। गांधी जी के निवास पर भाई जी एक माह तक रहे भी थे।  

    डी.ए.वी. कालेज कमेटी की ओर से भाई जी को अध्ययन के लिए लन्दन भेजा गया था परन्तु वह वहां भारत की आजादी के दीवानों से ही मिलते रहे। आपने वहां सन् 1857 की भारत की आजादी की प्रथम लड़ाई के इतिहास पर पुस्तकें एकत्र की और बिना कोई डिग्री लिए पुस्तकें लेकर भारत लौंटे। आपने सारी पुस्तकें डी.ए.वी. कालेज के संस्थापक महात्मा हंसराज जी को सांैप दी जिन्हें महात्मा जी ने अपनी अलमारियों में रख लिया। आर्यसमाज के महान नेता रक्त साक्षी पं. लेखराम के अनुसार भाई परमानन्द जी ऐसे निर्भीक एवं साहसी पुरुष थे जिनमें भय वाली रग थी ही नहीं। वे प्राणों के निर्मोही थे। लाहौर में एक बार बड़ा भारी साम्प्रदायिक दंगा हुआ। भाई जी तथा आर्यसमाज के उच्चकोटि के विद्वान पं. चमूपति का घर वहां असुरक्षित था परन्तु इन दोनों आर्य महापुरूषों को अपनी व अपने परिवारों की कोई चिन्ता नहीं थी। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने वहां आर्य विद्वान व नेता पं. जगदेव सिंह सिद्धान्ती को दो युवकों के साथ भेजकर उनके समाचार मंगाये थे। 

    भाई जी ने जोधपुर में महाराजा जसवन्त सिंह के अनुज महाराज कुंवर प्रताप सिंह के निमन्त्रण पर राज-कुमारों की शिक्षा के लिए स्थापित स्कूल में एक वर्ष एक पढ़ाने का कार्य भी किया। श्री प्रतापसिंह की अंग्रेजों की भक्ति एवं राजदरबार में दलबन्दी के कारण खिन्न होकर रातों-राज वह वहां से चल पड़े थे। जब लाहौर में आर्य साहित्य के प्रकाशक महाशय राजपाल जी की कुछ विधर्मियों ने हत्या कराई तो सरकार ने उनके शव की मांग करने वालों को बेरहमी से पीटा।  आप भी पुलिस की लाठियों के प्रहारों का शिकार बने। यदि वहां कुछ आर्ययुवक आपको न बचाते तो कोई अनहोनी हो जाती। भाईजी एक सिद्ध हस्त लेखक भी थे। इतिहास आपका प्रिय विषय था। ‘भारत का इतिहास’ आपके द्वारा लिखी गई एक पुस्तक है जिसे न्यायालय में आपके विरुद्ध प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर अंग्रेज सरकार के सरकारी वकील ने कहा था कि यह पुस्तक विद्रोह की प्रेरणा देती है। यूरोप का इतिहास, महाराष्ट्र  का इतिहास, पंजाब का इतिहास, आपबीती एवं वीर बन्दा बैरागी आपकी कुछ अन्य प्रमुख कृतियां हैं। आपकी सभी पुस्तकों में देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा निहित है। 

    भाई परमानन्द जी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के प्रधान रहे। सन् 1927 के प्रथम आर्य महासम्मेलन के अध्यक्ष पद पर आप मनोनीत किए गये थे परन्तु किसी कारण आप यह प्रस्ताव स्वीकार न कर सके। कालापानी के कारावास से रिहा होने पर एक पत्र के प्रकाशक की ओर से जब आपको 10 हजार की राशि भेंट कर सम्मान किए जाने का प्रस्ताव किया गया तो निर्लोभी स्वभाव एवं विनयशीता के कारण आपने धन्यवादपूर्वक प्रस्ताव ठुकरा दिया था। देश की आजादी के लिए समर्पित देशभक्तों की पत्नियों ने भी अपने पतियों की तरह त्याग, तपस्या व बलिदान का ही जीवन व्यतीत किया। भाई परमानन्द जी की पत्नी माता भागसुधि रावलपिण्डी के सम्पन्न किसान रायजादा किशन दयाल की पुत्री थी। विवाह के समय आप अनपढ़ थी परन्तु भाई जी ने आपको प्रयत्नपूर्वक शिक्षित किया। आप कुशाग्रबुद्धि, हंसमुख, विनोदी स्वभाव वाली तथा गृह कार्यों में दक्ष महिला थी। भाई जी के जेल के दिनों में आपने स्कूल में काम करके तथा कपड़े सिलकर अपना तथा बच्चों का जीवन निर्वाह किया। क्रूर अंग्रेजों ने आपके घर का सारा सामान यहां तक की घर के सभी बर्तन तक छीन लिए थे। लाहौर की एक बस्ती में किराये के एक ऐसे कमरे में आप रहीं जहां धूप की एक किरण तक प्रवेश नहीं कर सकती थी और न ही शुद्ध वायु भी। दीनबन्धु ऐण्ड्रयूज जब आपकी सुध लेने आये तो यह जानकारी प्राप्त कर द्रवित हो गये कि 6 महीने पहले आपकी बड़ी पुत्री तपेदिक से मर चुकी थी। 

    आपकी     पत्नी माता भागसुधि जी को अपने पति भाई परमानन्द जी के आजादी का सिपाही होने के कारण टीचर ट्रेनिगं स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया था। मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत अपने निर्दोष पति को फांसी से छुड़ाने के लिए आपने कहां-कहां, कैसे भागदौड़ की होगी तथा धन जुटाया होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। ऐसे बुरे समय में अंधविश्वासी ससुर ने भी आपको आश्रय नहीं दिया। अपने कड़े परिश्रम से माता भागसुधि जी ने दो कमरे, रसोई एवं बरामदा बनवाया। जेल में अपने पति की तरह आपने चारपाई त्याग दी एवं भोजन वर्तनों में करना छोड़ कर मिट्टी के बर्तनों में किया। 1 जुलाई 1932 को तपेदिक रोग की तीव्रता के कारण माता भागसुधि जी को संसार छोड़ कर जाना पड़ा और वह अपने पति से हमेशा के लिए दूर चली गयीं। भाई परमानन्द जी पर इसका क्या प्रभाव हुआ होगा? फिर भी वह 15 वर्षों तक जीवित रहे और देश हित के कार्य करते रहे। प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने माता भागसुधि जी पर अपने भावों को एक कविता में निम्न रूप में प्रकट किया है। 

    धन्य तुम्हारी सतत साधना, धन्य तुम्हारा जीवन दान।
    धन्य तुम्हारा धीरज साहस, धन्य तुम्हारा मां बलिदान।
    धन्य धरा तव जन्मदायिनी, धन्य तपस्या का वरदान। 
    धन्य तुम्हारा शील सुहागिन, धन्य तुम्हारा देश अभिमान। 

    देश विभाजन से भारत माता के लाखों सपूतों के नरसंहार तथा स्त्रियों के सतीत्व-हरण की घटनाओं से आहत भाई जी ने विभाजन एवं इसके परिणामस्वरूप घटी अमानवीय घटनाओं को राष्ट्रीय अपमान की संज्ञान दी। आपने अन्न त्याग दिया था, फिर बोलना भी छोड़ दिया था। 8 दिसम्बर, 1947 को देश की आजादी के लिए तिल-तिल कर जलने वाले इस महान् देशभक्त ने अपने प्राण त्याग दिये। यह भी बता दें कि भाई महावीर, भाई परमानन्द जी के सुपुत्र थे। आप वाजपेयी जी के शासनकाल में मध्यप्रदेश के राज्यपाल रहे। आज भाई परमानन्द जी के जन्म दिवस पर हम उन्हें, माता भागसुधि व उनके परिवार को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।      
-मनमोहन कुमार आर्य
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