प्रकृति और परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है नारी, नारी को आज भी तलाश है -स्वाभिमान, सम्मान और स्वतंत्रता भरे वजूद की

( 9908 बार पढ़ी गयी)
Published on : 08 Mar, 21 05:03

रीना अरविन्द छंगानी

प्रकृति और परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है नारी, नारी को आज भी तलाश है -स्वाभिमान, सम्मान और स्वतंत्रता भरे वजूद की

आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। पूरी दुनिया के आधे आसमाँ का दिन कहें या कि आधी आबादी का अपना गौरवशाली दिवस, जिस पर संसार की हरेक नारी को गर्व होना भी चाहिए, और गर्व की अभिव्यक्ति के हर अवसर का उपयोग भी। यह दिन हम सभी को याद दिलाता है नारी शक्ति के महत्व, उपादेयता और श्रेष्ठता भरे मूल्यों की। एक सदी से भी अधिक पुराना है महिला दिवस का इतिहास।

आधे आसमाँ के पसीने से उपजा यह दिवस

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस एक मजदूर आन्दोलन से उपजा है जिसका बीजारोपण सन् 1908 में हुआ, जब 15 हजार औरतों ने न्यूयार्क शहर में मार्च निकालकर नौकरी के घण्टों में कमी करने की पुरजोर मांग की थी। इसके ठीक एक साल बाद सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने इस दिन को पहला राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित कर दिया।

इसके बाद सन् 1910 में कोपनहेगन में कामकाजी महिलाओं की एक इंटरनेशनल कांफ्रेंस के दौरान अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का सुझाव सामने आया। इस कांफ्रेंस में मौजूद 17 देशों की  शताधिक महिला प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया। तभी तब से इस दिवस को राष्ट्रीय  से अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

सौभाग्य से आज हम 109 वां  अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने जा रहे हैं। भारत सहित दुनिया के कई देशों में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सप्ताह भर की गतिविधियों का आयोजन किए जाने की परम्परा बनी हुई है।

असंभव है नारी के अपार अवदान का मूल्यांकन

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर चन्द रंगों वाले प्रमाण पत्राेंं, प्रशस्ति पत्रों, सम्मान और अभिनंदन पत्रों तथा प्रतीक या स्मृति चिह्नों से महिलाआें के सम्मान मात्र से कुछ हासिल नहीं होने वाला।  एक महिला अपने जीवन काल में रोजमर्रा ढेरों कार्य करती है जिसका मूल्यांकन करना संभव है ही नहीं। उसके अपरिमित योगदान को किसी भी पैमाने पर आंका नहीं जा सकता।

नाकाफी है सम्मान मात्र

हर साल 8 मार्च पूरे विश्व में महिलाओं के योगदान एवं उपलब्धियों की तरफ लोगो का ध्यान केन्दि्रत करने के लिए महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। महिला दिवस मनाने का मुख्य उद्देश्य नारी को समाज में एक सम्मानित स्थान दिलाना और उसके स्वयं में निहित शक्तियों से उसका ही परिचय कराना होता है।

इस सब के ढोल भी बजते हैं और बिगुल भी। जोर-शोर से केवल विशेष दिवस मात्र को मनाने की औपचारिकताएं पूरी की जाती रही हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि प्रतिदिन उसी महिला का हर जगह उपहास किया जाता है।

साल भर नारी किन विषम स्थितियों में जीती है, कैसे वह संघर्ष करती है, अपने वजूद को बचाए रखती है, इससे हमारा कोई लेना-देना नहीं। बस एक दिन उस अबला को सबला बता दो, उसे याद कर लो, फिर साल भर वही हाल ढाक के पात तीन के तीन।

राष्ट्रीय  समृद्धि में अमूल्य योगदान

अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के संबंध में नारी कितना बड़ा योगदान दे सकती है, इसे उन देशों में जाकर आँखों से देखा या समाचारों से जाना जा सकता है जहां नारी को मनुष्य मान लिया गया है और उसके अधिकार उसे सौंप दिए गए हैं।

नारी उपयोगी परिश्रम करके देश की प्रगति में योगदान तो दे ही रही है, साथ ही साथ परिवार की र्आथिक समृद्धि भी बढ़ा रही है और इस प्रकार सुयोग्य बनकर रहने पर अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रही है, जिससे परिवार को छोटा सा उद्यान बनाने और उसे सुरक्षित पुष्पों से भरा-पूरा बनाने में सफल हो रही है।

सफल पुरुष के पीछे नारी का हाथ

हम इतिहास की मानें तो पाते हैं कि नारी ने पुरुष के सम्मान एवं प्रतिष्ठा के लिए स्वयं की जान दांव पर लगा दी। नारी के इसी पराक्रम के चलते यह कहावत सर्वमान्य और सार्वजनीन बन कर साबित हुई कि प्रत्येक पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है।

आठ मार्च को मनाया जाने वाला यह सालाना उत्सव। माफ कीजियेगा कि मैंने उत्सव शब्द का प्रयोग महिला दिवस के परिपे्रक्ष्य में ही किया है क्योंकि मेरा स्पष्ट मानना है कि ये उत्सव ही तो है जहाँ वर्ष में कम से कम एक दिन सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन करने वाली नारी शक्ति के योगदान की पूरे  विश्व में सराहना की जाती है।

ये तो सर्वविदित ही  है कि समाज निर्माण में जितना योगदान पुरुषों का होता है उतना ही योगदान स्त्री का भी रहा है, परन्तु जिस प्रकार का सम्मान पुरुषों को समाज में हर रोज मिलता है, उतना भी स्त्री को नहीं मिल पाता है।

इसका प्रमुख कारण महिलाओं को लेकर समाज की छोटी  सोच रही है। परन्तु अब समय बदल गया है कुछ वर्षों पहले तक बहुत से ऎसे खेल थे जिसमे नारी को शारीरिक रूप से दुर्बल समझ कर खेलने से रोका जाता था। आज उन्हीं खेलों में वो अपना परचम लहरा रही है, फिर बात हो चाहे मुक्केबाज़ी, भारोत्तोलन, बैडमिंटन या फिर टेनिस की।

दैवत्व की प्रतिमूर्ति

नारी देवत्व की प्रतिमा है, साकार स्वरूप है। दोष तो सब में रहते हैं। सर्वथा निर्दोष तो एक परमात्मा ही है, उसके सिवाय कोई नहीं।  अपने घर की नारियों में भी दोष हो सकते हैं पर तात्विक दृष्टि से नारी की अपनी विशेषता है उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति। पुरुषार्थ प्रधान पुरुष अपनी जगह ठीक है पर आत्मिक संपदा की दृष्टि से वो हमेशा पीछे ही रहेगा। द्रुत गति से बढ़ता आ रहा नवयुग निश्चित रूप से अध्यात्म चेतना से भरा-पूरा होगा। मनुष्यों का चिंतन दृष्टिकोण उसी स्तर का होगा, अवस्थाएं परंपराएं उसी ढांचे में ढलेंगी, ढलती रहेंगी। 

जनसाधारण की सोच और गतिविधियां भी उसी दिशा में होंगी। ऎसी स्थिति में नारी को हर क्षेत्र में विशेष भूमिका निभानी पड़ेगी। इन सभी प्रकार की अन्तर्बाह्य परिस्थितियों में यह कथन सर्वथा सत्य साबित होता है कि नारी ईश्वर की अनुपम कृति है जिसका मुकाबला न कभी नहीं कर पाएगा।

नारी उत्थान का युग है वर्तमान

वर्तमान युग को नारी उत्थान का युग कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज हमारे देश भारत की महिलाएं हर क्षेत्र में अपना पताका फहरा रही हैं। मौजूदा सरकारें भी महिलाओं को हर क्षेत्र में अपना भविष्य निर्माण करने के अवसर उपलब्ध करा रही हैं जो महिलाओं के विकास के लिए रामबाण  और संजीवनी सिद्ध हो रहे हैं।

वर्तमान में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली नारी किसी पर भार नहीं बनती वरन अन्य साथियों को सहारा देकर प्रसन्न होती है। यदि हम सभी विदेशी भाषा एवं पोशाक को अपनाने में गर्व महसूस करते हैं तो क्या ऎसा नहीं हो सकता कि उनके व्यवहार में आने वाले सामाजिक न्याय की नीति को अपनाएं और कम से कम अपने घर में नारी की स्थिति सुविधाजनक एवं सम्मानजनक बनाने में भी पीछे न रहे।  

 

यदि जगाना आदि शक्ति को, सभी साथ मिलकर आएं,

याद दिलाएं खोयी शक्ति फिर, स्वयं जागें, औरों को भी जगाएं।

 

जरूरी हो चला है बदलाव

समाज में बदलाव की उम्मीद तब ही  संभव है जब शुरूआत  हम खुद से करें।  हमारे घर में महिला को खुलकर जीने की आजादी नहीं है, वो अनेक प्रकार की कुरीतियों को झेल रही है, और हम समाज को बदलने निकलेंगे, तब कुछ भी बदलावा ला पाना संभव नहीं है। इसके लिए हमें स्वयं को बदलना होगा , क्योंकि नारी को समाज से सम्मान नहीं चाहिये, वो अपने पति, बड़े-बुजुर्गों, अपने परिवार का प्यार और सम्मान पाना चाहती है, जिसकी वो हक़दार भी है । नारी के बिना सुखी परिवार की कल्पना बेमानी है।  जैसे माँ बिना मायका नहीं, वैसे ही सास बिना ससुराल नहीं और आँगन में बेटी बिना बहू की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 

नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग-पगतल में,

पीयूष-स्त्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।


साभार :


© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.