वेदपथ पर चलकर ही हम दुःखरहित मोक्ष के गन्तव्य पर पहुंच सकते हैं”

( 14236 बार पढ़ी गयी)
Published on : 24 May, 20 04:05

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वेदपथ पर चलकर ही हम दुःखरहित मोक्ष के गन्तव्य पर पहुंच सकते हैं”

संसार में अनेक मार्ग हैं जिन पर चलकर मनुष्य इच्छित अनेक लक्ष्यों वा गन्तव्यों पर पहुंचते हैं। इसी प्रकार अनेक मत-मतान्तर हैं जिनका अनुसरण करने पर कर्मानुसार अच्छे व बुरे लक्ष्य प्राप्त हो सकते हैं। धर्म में ईश्वर का महत्व होता है। ईश्वर एक धार्मिक एवं पवित्र सत्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य एवं अविनाशी सत्ता है। यदि हमने ईश्वर के सत्य स्वरूप का जाना नहीं, उसको जानकर भी उसकी आज्ञाओं को वेदाध्ययन कर हृदयंगम और पालन नहीं किया, तो किसी मनुष्य का कदापि कल्याण नहीं हो सकता। मनुष्य का यह जन्म न तो पहला जन्म है और न ही अन्तिम। स्वर्ग व नरक इस पृथिवी लोक पर ही है व मनुष्यादि विभिन्न योनियां ही स्वर्ग व नरक के समान हैं। संख विशेष स्थिति स्वर्ग कहलाती है और दुःख विशेष से युक्त स्थिति नरक की स्थिति होती है। जन्म-मरण व सुख व दुःख के पार मोक्ष का आनन्द होता है। मोक्ष संसार व ब्रह्माण्ड में ऋषि दयानन्द के समान किसी परम योगी, वेदों के विद्वान, समाज सुधारक सहित देश व समाज के उपकारक मनुष्यात्मा को ही मिलता है। किसी मत के आचार्य व ग्रन्थ पर आस्था रख लेने और उसके बताये मार्ग का अनुसरण कर लेने से हमारा यह जीवन व परजन्म सफल, सुखद व कल्याणप्रद कभी नहीं हो सकता। किसी मत व उसके आचार्य के पास पाप कर्मों व पापयुक्त जीवन से सुख प्राप्ति होने का कोई प्रमाण नहीं है। सभी मत अपने-अपने अनुयायियों को भ्रमित करते हैं कि उनके मत में आने पर उनका बिना सत्कर्म किये कल्याण होगा। वास्तविकता यह है कि किसी मत विशेष का अनुयायी बन कर नहीं अपितु सत्याचरण तथा ईश्वर की वेदनिहित आज्ञाओं का पालन कर ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है।

सत्य का मार्ग दिखाने वाला संसार में केवल एक ही पथ है। सभी मतों में जो सत्य है वह वेद से ही गया है वा लिया गया है। सत्य उनका अपना नहीं है। वेदेतर सभी मतों में जो अविद्यायुक्त कथन व मान्यतायें हैं, वह उनकी अपनी व उनके आचार्यों की होती हैं। मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह बिना ईश्वर व उसके ज्ञान की सहायता से कदापि सत्य मार्ग को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए प्राचीन काल से ही हमारे देश के ऋषियों व आत्मदर्शी योगियों ने मनुष्यों को वेदों की शिक्षाओं पर चलने का उपदेश किया। वह स्वयं भी वेदमार्ग पर चले थे। वेदाध्ययन कर आत्मा को इस बात का विश्वास हो जाता है कि वेदमार्ग ही एकमात्र सत्यमार्ग है। वेदमार्ग पर चलकर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर ही मुक्त व मोक्षस्वरूप है। उसके ध्यान व समाधि से ही मनुष्य की आत्मा भी ईश्वर के स्वाभाविक गुण आनन्द व मोक्ष का आनन्द ले सकती है। सभी मतों के अनुयायियों को सर्वथा निष्पक्ष व पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर वेदाध्ययन अवश्य करना चाहिये। ऐसा करने पर उनकी आत्मा को जो सत्य प्रतीत हो उसे ग्रहण और जो असत्य प्रतीत हो उसका त्याग अवश्य ही करना चाहिये। यही मनुष्य जीवन व आत्मा के कल्याण का मार्ग है। इसी मार्ग को चलकर आत्मा सुखी व उन्नति को प्राप्त हो सकता है। हिंसा, अन्याय, अत्याचार, अपने मत की संख्या वृद्धि व अधर्म के काम करने से कोई मनुष्य कभी भी सुख व शान्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। कोरोना महामारी ने भी सभी मत-मतान्तरों की मान्यताओं की पोल खोल कर रख दी है। किसी मत व उसके इष्टदेव वा आचार्य में यह शक्ति नहीं की वह अपने अनुयायियों की कोरोना से पूर्णतः रक्षा कर सके। सभी मतों के अनुयायी कोरोना बीमारी से ग्रस्त हुए हैं व मरे भी हैं। इससे यह सिद्धान्त खण्डित हुआ है कि किसी एक मत पर विश्वास करने से हम रोग व मृत्यु से सुरक्षित हो सकते हैं। रोग व अकाल मृत्यु से बचने के सदाचार व आध्यात्मिक जीवन ही श्रेयस्कर है। ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर सत्याचरण व ईश्वर की भक्ति करने से ही आत्मा की उन्नति व कल्याण सम्भव होता है।

मनुष्य का आत्मा चेतन व अल्पज्ञ सत्ता है। जीवात्मा से भिन्न संसार में एक अनादि, नित्य, अविनाशी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप सत्ता भी है। इसे ईश्वर कहा जाता है। इसी ने ही जीवात्माओं के सुख व कल्याण के लिये इस सृष्टि की रचना की है और इसमें जीवात्माओं को जन्म मिलता रहता है। जीवात्माओें के जन्म का आधार उसके पूर्वजन्म के कर्म हुआ करते हैं। इन कर्मों के कारण उसे जीवन में सुख व दुःख प्राप्त होते हैं। मनुष्य का आत्मा दुःख नहीं चाहता परन्तु कर्मानुसार उसे दुःख भोगने ही पड़ते हैं। यह ईश्वर की न्याय व्यवस्था के कारण होता है। यदि पाप व अशुभ कर्म करने पर दुःख प्राप्त न हो तो मनुष्य व जीवात्मा अन्याय व अत्याचार करने से पृथक नहीं हो सकता। न्यायालयों में न्यायाधीश भी असत्य का आचरण करने पर तिरस्कार व दण्ड देते हैं जिससे उसकी प्रकृति तथा व्यवहार में परिवर्तन होकर सुधार हो सके। वह असत्य व अन्याय का त्याग कर सत्य का आचरण करें। सत्य का आचरण करने से आत्मा का सामथ्र्य बढ़ता है। वह पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। यह सामथ्र्य उसे सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा प्रदान करते हैं। अतः दुःखों से मुक्ति का प्रमुख साधन असत्य का आचरण न करना व उसे छोड़ना ही सिद्ध होता है। यही मनुष्य का धर्म है। किसी प्राणी को बिना उचित कारण के दुख देना अशुभ व पाप कर्म कहा जाता है। ऐसा करने वाला मनुष्य ईश्वर का तथा जिससे उसने अत्याचार किया उस मनुष्य आदि प्राणी का दोषी होता है। इसका दण्ड ही परमात्मा की व्यवस्था से मिलता है। दुःखों से यदि बचना है तो मनुष्य साम्प्रदायिक विद्वेष का पाठ पढ़ाने वाली मान्यताओं का त्याग कर वेदरूपी दया और न्याय रूपी वृक्ष की छाया में आना चाहिये। यही विद्वानों व श्रेष्ठजनों का सुविचारित धर्म है। विगत 1.96 अरब वर्षों से अधिक अवधि तक वेद के सिद्धान्तों को आर्यावर्त के ऋषि, मुनि तथा विद्वानों सहित देश की जनता ने माना है। अतः इसी सत्य वेदमत की तर्क व युक्ति से सिद्ध विचारधारा का विश्व में सबको प्रचार करना चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होगा, संसार में शान्ति व विश्वबन्धुत्व वा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना उत्पन्न नहीं की जा सकती और संसार से अन्याय व अत्याचार दूर नहीं किये जा सकते। इस लक्ष्य को वेद प्रचार से ही प्राप्त किया जा सकता है।

वेद और संसार के अन्य ग्रन्थों में आकाश पाताल का अन्तर है। वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जबकि अन्य सब ग्रन्थ अल्पज्ञ मनुष्यों की रचनायें हैं। जो ग्रन्थ वेदानुकूल हों वह ग्राह्य एवं मान्य होते हैं और अन्य ग्रन्थ अविद्यायुक्त मान्यताओं से युक्त होने से विषसम्पृक्त अन्न की भांति त्याज्य होते हैं। ऋषि दयानन्द वेदों के उच्च कोटि विद्वान, ऋषि, योगी, ज्ञानी व विवेकवान पुरुष थे। उन्होंने धर्म जिज्ञासुओं के लिए वेदों को सूर्य के समान स्वतः प्रमाण बताया है। इससे पूर्व सृष्टि के आरम्भ में ही महाराज मनु घोषणा कर चुके थे कि धर्म विषय में जिज्ञासा होने पर परम प्रमाण वेद का ही होता है। वेद विरुद्ध मान्यता, कथन, सिद्धान्त व वचन ग्रहण करने योग्य नहीं होता। वेदेतर व वेदों की शिक्षाओं के विपरीत मार्ग पर चलकर मनुष्य कल्याण व सुख को प्राप्त नहीं हो सकता। वेदों का सत्य मार्ग ही मनुष्य को सभी दुःखों से निवृत्त करके ईश्वर का साक्षात्कार कराकर मृत्यु होने पर जीवात्मा को जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त कराता है। जन्म व मरण से मुक्त आत्मा की अवस्था को ही मोक्ष अवस्था कहा जाता है। मोक्ष में आत्मा को ईश्वर के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य मिलता है और असीम सुख प्राप्त होता है। मोक्षात्मा इस विश्व ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर सकता है। अन्य सभी मुक्तात्माओं से मिल सकता है। मोक्षावस्था में जीवात्मा ज्ञान से युक्त एवं सर्वथा निद्र्वन्द होकर आनन्द का अनुभव करते हुए समय व्यतीत करता है। मोक्षावस्था से संबंधित विस्तृत वर्णन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में किया है। उसका अध्ययन कर उससे लाभ उठाना चाहिये। वेद पथ ही वह मार्ग है कि जिस पर चल कर मोक्ष, असीम सुख वा आनन्द प्राप्त होता है। दुःखरूपी जन्म व मरण से मुक्ति मिलती है। यह अमृतमय परमसुख की स्थिति होती है। अतः सबको वेदों की शरण में आना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य


साभार :


© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.