“जन्म-मरण वा पुनर्जन्म और मोक्ष ही जीवात्मा की मध्यम एवं उत्तम गतियां”

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Published on : 13 Jan, 20 05:01

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“जन्म-मरण वा पुनर्जन्म और मोक्ष ही जीवात्मा की मध्यम एवं उत्तम गतियां”

हम मनुष्य नाम के प्राणी हैं। मनुष्य हमें इस लिये कहा जाता है कि हम मनन कर सकते हैं व करते भी हैं। मनन का अर्थ होता है किसी विषय का चिन्तन एवं सत्य व असत्य की परीक्षा व निर्णय लेना। परमात्मा ने हम सबको ज्ञान व कर्मेन्द्रियों सहित अन्तःकरण चतुष्टय मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार आदि करण दिये हैं। इनका सदुपयोग करना हमारा कर्तव्य है। जिस प्रकार हम आंख से देखते व कान से सुनते हैं, जिह्वा से रस का ज्ञान प्राप्त करते तथा नासिका से सूंघते है, त्वचा से स्पर्श का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार से हमें कर्मेन्दियों से सद्कर्म करने चाहियें तथा अपने अन्तःकरण चतुष्टय का भी सदुपयोग करना चाहिये। जो मनुष्य इन सब ईश्वरीय देनों का सदुपयोग करते हैं वह मानव से महामानव, ऋषि, मुनि, योगी, ध्यानी, ज्ञानी, वीर, धीर, क्षमाशील, सन्तोषी, ब्रह्मचारी, मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक, साधु, संन्यासी, राजा, आचार्य आदि बन जाते हैं। अन्य लोग मनुष्य होकर भी मानवेतर पशु समान हीन जीवन व्यतीत करते हैं। ईश्वर ने तो सभी आत्माओं को उनके कर्मानुसार शरीर, रूप, स्वास्थ्य आदि अनेक सुविधायें प्रदान कर रखी हैं और इस जन्म में पुरुषार्थ करने पर भी वह हमारी अनेक कामनाओं को सफल व सिद्ध करता है।

 

                मनुष्य का जन्म जीवात्मा का जन्म है और इसकी मृत्यु आत्मा की मृत्यु होती है। आत्मा जन्म-मरण धर्मा है। चेतन व अल्पज्ञ होने के कारण यह परिस्थितियों के अनुसार शुभ व अशुभ दोनों प्रकार के कर्म करता है। कर्मों से आत्मा बन्धन में पड़ता है जिसका फल इसको भोगना होता है। इस फल भोग के लिये इसका मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म होता है। मनुष्य का जन्म मनुष्य योनि में हो या अन्य पशु पक्षी आदि निम्न योनियों में, सभी योनियों में आत्मा को अनेक प्रकार के दुःख भोगने होते हैं। बुद्धिमान व ज्ञानी मनुष्य वही होता है जो इन दुःखों का निवारण करने के उपाय व साधनों को जानने का प्रयत्न करता है। महापुरुषों के जीवन एवं वेद आदि शास्त्रों के अध्ययन से यह निष्कर्ष सामने आता है कि दुःखों की निवृत्ति के लिए मनुष्य का सृष्टिकर्ता ईश्वर को जानना अनिवार्य है। ईश्वर को जान लेने के बाद मनुष्य का कर्तव्य होता है कि वह ईश्वर की उपासना से सद्ज्ञान को प्राप्त हो जिससे वह जन्म व मरण के चक्र से मुक्त हो सके। योग, ध्यान व समाधि से मनुष्य मुक्ति में प्रविष्ट होता है। साधना जितनी अधिक होगी और मनुष्य जितना अधिक लोभ व मोह आदि से रहित होकर परोपकार व परहित के काम करेगा उससे वह ईश्वर व मोक्ष के निकट पहुंचता जाता है। जिस प्रकार हमें अपना आवासीय भवन बनवाने व कार आदि खरीदने के लिये उसके मूल्य के बराबर धनराशि जमा करनी पड़ता है तथा इसके लिये पुरुषार्थ करना पड़ता है, इसी प्रकार जन्म व मरण से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करने के लिये भी पूर्व कर्मों के फलों को भोगकर नये कर्मों का बन्धन न हो, इस पर ध्यान देना होता है। पुण्य कर्म तो मनुष्य को करने ही चाहियें परन्तु मुमुक्षु के लिये पाप व अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग करना होता है। इसके लिये शास्त्रों का अध्ययन व विवेक बुद्धि से कार्य करना होता है। महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द जी आदि अनेक महापुरुषों के जीवन चरित्र हमारा मार्ग दर्शन कर सकते हैं। इनकी सहायता लेकर इनकी प्रेरणा से हमें सद्कर्मों को करके मुक्ति की प्राप्ति में प्रविष्ट होना चाहिये।

 

                किस आत्मा का जन्म होता है और किसका मोक्ष होता है, इस प्रश्न का उत्तर है कि जिस मनुष्य के ज्ञान व कर्म मोक्ष की अर्हता से कम होते हैं उनका सबका पुनर्जन्म होता है। जीवात्मा, परमात्मा तथा प्रकृति नित्य हैं, अतः यह क्रम अनादि काल से आरम्भ हुआ है और अनन्त काल तक इसी प्रकार से चलेगा। मनुष्य को ज्ञान व विवेक की प्राप्ति करनी चाहिये। यही मोक्ष प्राप्ति में सबसे अधिक सहयोगी होते हैं। ज्ञान व विवेक की प्राप्ति वेद एवं शास्त्रों के अध्ययन एवं उनके अनुकूल आचरण करने से प्राप्त होती है। इसके साथ सन्ध्योपासना तथा अग्निहोत्र आदि पंच महायज्ञ करने तथा वेद प्रचार का कार्य करना भी मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है। मोक्ष मिले न मिले, इसकी चिन्ता न कर मनुष्य को अपने ज्ञान की वृद्धि व अपने कर्म एवं आचरण को वेदसम्मत एवं ऋषि व योगियों के जीवन के अनुकूल बनाना चाहिये। ऐसा करने से जीवात्मा का मृत्यु के पश्चात मनुष्य योनि में जन्म होना सम्भव होता है। मनुष्य योनि में अन्य योनियों से सुख की मात्रा अधिक होती है। अतः मोक्ष न मिलने की स्थिति में भी मनुष्य जीवन मिलना एक उपलब्धि ही कही जायेगी। मोक्ष में जीवात्मा के सभी दुःख मोक्ष अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के लिये दूर व समाप्त हो जाते हैं। जीवात्मा जन्म व मरण के चक्र से इस अवधि के लिये छूट जाता है और ईश्वर के सान्निध्य में रहता हुआ आनन्द का भोग करता है। मोक्ष विषयक जानकारी के लिये ऋषि दयानन्द लिखित सत्यार्थप्रकाश का नौवां समुल्लास पढ़ना चाहिये। इसमें ऋषि दयानन्द ने मोक्ष के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है। इससे मोक्ष का स्वरूप व महत्व का ज्ञान होता है और मोक्ष के प्रति रुचि भी उत्पन्न हो सकती है।

 

                एक शंका यह हो सकती है मोक्ष में जीवात्मा का मनुष्य के समान शरीर नहीं होता तो वह बिना शरीर के सुख वा आनन्द का भोग किस प्रकार से करता है। इसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में दिया है। वह कहते हैं कि मोक्ष में जीव के साथ उसके सत्यसंकल्प आदि स्वाभाविक गुण सामर्थ्य सब रहते हैं। केवल भौतिक शरीर नहीं रहता। मोक्ष में जीवात्मा के साथ अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब वह सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गन्ध के लिये घ्राण, संकल्प विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिये बुद्धि, स्मरण करने के लिये चित्त और अहंकार के अर्थ अहंकाररूप अपनी स्वशक्ति के आधार रहकर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य करता है उसी प्रकार अपनी शक्ति से मुक्ति में जीव सब आनन्द भोग लेता है। मोक्ष में जीवात्मा चौबीस प्रकार की सामथ्र्य व शक्तियों से युक्त रहता है। ये सामर्थ्य वा शक्तियां हैं बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, स्वादन और गन्ध ग्रहण तथा ज्ञान। अपनी इन्हीं शक्तियों से जीव मुक्तावस्था में भी आनन्द का भोग करता है।

 

                एक प्रश्न व शंका यह भी हो सकती है कि जीव को सुख भोगने के लिये शरीर वा ज्ञान एवं कर्म इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। अतः मोक्ष अवस्था में जीव बिना शरीर व इन्द्रियों के आनन्द का भोग नहीं कर सकता। इसका उत्तर ऋषि के अनुसार यह है कि जो जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य ज्ञान और अनन्त आनन्दस्वरूप परमात्मा को जानता है। वह उस व्यापकरूप ब्रह्म में स्थित होके उस ‘विपश्चित्’ अनन्तविद्यायुक्त ब्रह्म के साथ कामों (इच्छाओं वा कामनाओं) को प्राप्त होता है अर्थात् जिस-जिस आनन्द की कामना करता है उस-उस आनन्द को प्राप्त होता है। इसी को मुक्ति कहते हैं। ऋषि बताते हैं कि जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है वैसे परमेश्वर के आधार मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोकलोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं, और नहीं दीखते, उन सब में घूमता है। वह सब पदार्थों को जो कि उस के ज्ञान के आगे हैं सब को देखता है। जीव में जितना ज्ञान अधिक होता है उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से वह पूर्ण ज्ञानी होकर उस को सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है।

 

                ऋषि दयानन्द ने बताया है कि जीवात्मा की मोक्ष अवस्था सुख विशेष अवस्था होने के कारण से स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंस कर दुःखविशेष भोग करना नरक कहलाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है। ‘स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः’ ‘अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति’ अर्थात् जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति से आनन्द है वही विशेष स्वर्ग अर्थात् मोक्ष कहलाता है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति को जाने और जीवात्मा के कर्म-फल बन्धन को जानकर उससे होने वाले दुःखों की निवृत्ति के उपाय करे। हम यह अनुभव करते हैं कि मनुष्य को सुख भले ही कम मिलें परन्तु दुःख नहीं होना चाहिये। मनुष्य को जन्म लेने में दस माह तक माता के गर्भ में गुप अन्धेरे में उलटा लटकना पड़ता है। मल-मूत्र के मार्ग से वह इस संसार में आता है। इसके बाद भी उसे अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को झेलना पड़ता है। अतः मनुष्य योनि में भी दुःखों की कोई कमी नहीं है। अतः दुःखों से बचने का एकमात्र उपाय मोक्ष ही बचता है। ऋषि की यह महती कृपा हम सब पर है कि उन्होंने दुःखों की निवृत्ति के साधनों सहित मोक्ष का स्वरूप हमें बताया है। धन्य है ऋषि दयानन्द। संसार के मनुष्य कभी उनके ऋणों से उऋण नहीं हो सकते। उन्होंने न केवल अपने समय के मनुष्यों पर उपकार किये थे अपितु पशु-पक्षियों आदि पर अहिंसा वा बलिवैश्वदेवयज्ञ का सन्देश देकर उन पर भी उपकार किये थे। भावी पीढ़ियां भी उनके उपकार से उपकृत हैं। हमें वेदपथ पर चलना है और संसार का उपकार करना है। इसी में हमारा हित एवं कल्याण है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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