“परमात्मा ने मानव शरीर यज्ञ करने तथा यज्ञ से शुद्ध प्राणवायु का दान करने के लिये दिया हैः आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

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Published on : 23 Oct, 19 05:10

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“परमात्मा ने मानव शरीर यज्ञ करने तथा यज्ञ से शुद्ध प्राणवायु का दान करने के लिये दिया हैः आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून का पांच दिवसीय शरदुत्सव 16 अक्टूबर 2019 को आरम्भ हुआ था। रविवार 20 अक्टूबर, 2019 को पांच दिनों से चल रहे सामवेद पारायण यज्ञ की पूर्णाहुति सम्पन्न की गई। यह वृहद यज्ञ आर्यजगत के विख्यात विद्वान एवं गीतकार पं0 सत्यपाल पथिक जी के ब्रह्मत्व में हुआ। गुरुकुल पौंधा के दो ब्रह्मचारियों ने इस यज्ञ में सामवेद के मन्त्रों का सस्वर पाठ किया। यज्ञ में पं0 रुहेल सिंह आर्य तथा श्री आजाद सिंह आजाद के भजन तथा पं0 उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी के उपदेश होते रहे। आज पूर्णाहुतियज्ञ की एक विशेषता यह भी थी इसमें हिन्दी के अन्तर्राष्ट्रीय कवि डा0 सारस्वत मोहन मनीषी जी अपने कुछ कवि मित्रों के साथ उपस्थित हुए और सबने श्रद्धाभाव से यज्ञ में आहुतियां दीं। यज्ञ की समाप्ति पर सामूहिक यज्ञ प्रार्थना की गई। आर्य भजनोपदेशक पं0 रुहेलसिंह आर्य इस अवसर पर उपस्थित थे। उन्होंने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘वे बीते दिन बहुत याद आये, गईं बीत जवानी की अनमोल घडियां, जिन्हें याद करके आंसु बहाये, वे बीते हुए दिन बहुत याद आये।’ आपका यह गीत लोगों ने बहुत पसन्द किया। इसके बाद आशीवर्चन के रूप में पं0 सत्यपाल पथिक जी ने एक स्वरचित गीत सुनाया। भजन से पूर्व उन्होंने तीर्थ शब्द पर प्रकाश डाला। तीर्थ शब्द की विकृतियों की भी विद्वान वक्ता ने चर्चा की। उन्होंने कहा कि तीर्थ शब्द का अर्थ वेद के विद्वानों के धर्मतत्वों से युक्त जीवन का अभ्युदय करने व मोक्ष प्राप्ति के उपदेशों का श्रवण करना होता है। नदियों में स्नान करने से सुख की प्राप्ति सहित मोक्ष की प्राप्ति जैसी मान्यताओं को पथिक जी ने अविद्या व अज्ञान बताया। विद्वान पुरोहित एवं आचार्य पंडित सत्यपाल पथिक जी ने यज्ञ को सच्चा तीर्थ बताया। उन्होंने कहा कि जिस स्थान पर वेद की ऋचाओं का पाठ होता व उनके अर्थों पर चिन्तन एवं व्याख्यान होता है वह स्थान ही तीर्थ स्थल की संज्ञा को सार्थक करते हैं। पथिक जी ने कहा कि वैदिक साधन आश्रम तपोवन की भूमि वेद प्रेमियों, योगियों तथा आर्य विद्वानों की चरण रज से पवित्र यज्ञीय भूमि है। यह यज्ञ की धरती हैं जहां आश्रम की स्थापना के समय से निरन्तर वेद पारायण यज्ञ होते आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि इन यज्ञों का अपना ही महत्व है। इस तीर्थ पर सबको आना चाहिये और साधना करनी चाहिये। उन्होंने आशीर्वाद के रूप में अपनी एक स्वरचित रचना सुनाई जिसके बोल थे ‘हमारे देश में भगवन् भले इंसान पैदा कर, सकल सुख सम्पदा वाली सुखी सन्तान पैदा कर।’ यज्ञ की व्यवस्था व संचालन हरिद्वार से पधारे आर्य विद्वान श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने किया। उन्होंने कहा कि सबको सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना चाहिये। उन्होंने आर्यसमाज के वेद प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाने के लिये अनेक सुझाव दिये।

 

                यज्ञोपदेश आगरा से पधारे विद्वान पं0 उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने दिया। आचार्य जी ने प्रश्न किया कि परमात्मा ने जीवात्मा को शरीर क्यों दिया? वह कौन है जिसने आत्मा को शरीर से युक्त किया है? आचार्य जी ने कहा कि वह सत्ता अद्श्य एवं निराकार है। उसी ने आत्मा को शरीर प्रदान किया है। हमारा मानव शरीर यज्ञ करने के प्रदान किया गया है। ईश्वर हमारी इस सृष्टि का पालन व पोषण कर रहा है। उन्होंने कहा कि ईश्वर के बनाये पदार्थ सूर्य, पृथिवी व चन्द्र आदि भी तो यज्ञ ही तो कर रहे हैं। हमारे शरीर में भी यज्ञ चल रहा है। आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने अग्निहोत्र को भी यज्ञ बताया। यज्ञ प्रकृति में सन्तुलन पैदा करता है। मनुष्य का शरीर धर्म तथा परोपकार करने के लिये मिला है। विद्वान आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने मानव शरीर की अनेक विशेषतायें बताई। उन्होंने कहा कि परमात्मा ने हमारे शरीरों में पांच ज्ञान तथा पांच कर्मेन्दियां दी हैं।

 

                आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि आप यज्ञ तब कर पाओगे जब आप ज्ञानी व स्वस्थ होंगे। ज्ञानी व्यक्ति ही स्वस्थ होता है। उन्होंने कहा कि जब तक व्यक्ति आर्यसमाज और वेद से नहीं जुड़ता तब तक वह सत्यासत्य को नहीं जान सकता। विद्वान आचार्य ने बताया कि अज्ञानी मनुष्य पाप करता है। मनुष्य के पाप कर्म बिना उनका भोग किए नष्ट नहीं होते। किया गया पाप विस्तार को प्राप्त होकर आकाश में चला जाता है। वहां वह फसलों की तरह से पकता है। पकने के बाद वह फिर लौट कर उस आत्मा के पास आता है जिसने पाप किया होता है। आत्मा का पाप उसी आत्मा पर गिरता है। पाप कत्र्ता का पीछा करता है और उसको कर्म के अनुरूप पीड़ा देता है। आचार्य जी ने कहा कि बहुत से तथाकथित धार्मिक सन्त इन दिनों जेलों में पड़े हुए हैं। उन्होंने उनके पूर्व जीवन व कार्यों पर प्रकाश डाला। आचार्य जी के अनुसार उन सन्तों के पापों ने उनका पीछा किया जिससे वह बच नहीं सके। ईश्वर जीव के कर्मों के अनुसार उन्हें भिन्न भिन्न योनियों में घुमाता है। पापियों के कर्म पापी को जेल में पहुंचाते हैं और उसे दुःख देते हैं। आचार्य जी ने कहा कि इन सन्तों ने वेद की वाणी पर विश्वास नहीं किया। ईश्वर के डण्डे के सम्मुख कोई सहायक नहीं होता। ईश्वर हमारे सभी कर्मों का साक्षी होता है। विद्वान आचार्य ने बताया कि पांच हजार वर्ष बाद ऋषि दयानन्द इस भारत की धरती पर आये। ऋषि दयानन्द ने मनुष्यों को अपने कर्मों को सत्यासत्य का विचार करने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि मनुष्य सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहें। ऋषि दयानन्द ने देश व विश्व में कर्म की महत्ता को स्थापित किया। जिस मनुष्य के जीवन में सत्य नहीं होगा उसे ईश्वर व उसका वरदान प्राप्त नहीं हो सकता।

 

                आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान श्री उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि मनुष्य जो कर्म करता है वह किसी भी प्रकार से क्षमा नहीं होते। किसी मत का कोई आचार्य किसी मनुष्य के किसी एक कर्म को भी क्षमा नहीं करा सकता। आचार्य जी ने कर्म की प्रबलता का उदाहरण देते हुए बताया कि जेलों में पड़े सन्तों ने सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकीलों तक को अपनी जमानत कराने के लिये खड़ा किया, उन्होंने मोटी मोटी फीसे दीं परन्तु उन्हें जमानत नहीं मिली। आचार्य जी ने जीवन में संगतिकरण की भी व्याख्या की। राष्ट्र कल्याण के लिये हमें संगतिकरण आना चाहिये। उन्होंने बताया कि अज्ञान, अन्धविश्वास तथा मिथ्या सामाजिक परम्पराओं के कारण हमारा राष्ट्र विभाजित होता चला गया। आचार्य जी ने वैदिक सनातन धर्मियों से अपने सभी मतभेदों तथा भेदभावों को दूर करने तथा भुलाने सहित सभी अन्धविश्वासों तथा मिथ्या परम्पराओं का उन्मूलन करने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि हमें सभी मनुष्यों से समानता का व्यवहार करना चाहिये भले ही वह कोई भी छोटा काम क्यों न करते हों। सफाई करने वाले बन्धुओं को भी हमें अपनत्व तथा बंधुत्व की भावना का परिचय देना चाहिये।

 

                आचार्य श्री उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने वीरता व देशभक्ति के पर्याय यशस्वी हिन्दू राजा महाराणा प्रताप के जीवन की चर्चा की। उन्होंने धनाभाव के कारण महाराणा प्रताप जी के मन में आये संधि के विचारों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि ऐसे समय में भामाशाह ने आकर अपना समस्त धन व सम्पत्ति राष्ट्ररक्षा के लिये समर्पित कर दी जिससे धर्म एवं संस्कृति सहित देश की रक्षा हो सकी। आचार्य जी ने श्रोताओं को कहा कि संसार के सभी कार्य धन से चल रहे हैं। उन्होंने सभी धर्म एवं सत्संग प्रेमी बन्धुओं को आश्रम के कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिये दान देने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि आप अपने धन को पीड़ितों की सेवा में लगा दो। आचार्य जी ने कहा कि दानशील मनुष्यों पर परमात्मा धन की वर्षा करते हैं। दानी मनुष्य का धन कम नहीं होता अपितु बढ़ता है। आचार्य जी ने ईश्वर की वाणी वेद के स्वाध्याय की प्रेरणा के साथ वेदवाणी पर विश्वास करने को कहा। उन्होंने पुनः कहा कि हमें यह मानव शरीर यज्ञ करने और अपने बन्धुओं को शुद्ध प्राण वायु का दान करने के लिये मिला है। इसी के साथ उन्होंने अपने व्याख्यान को विराम दिया। आचार्य जी के प्रवचन के बाद कार्यक्रम का संचालन कर रहे श्री शैलेशमुनि सत्यार्थी जी ने लोगों द्वारा आश्रम को दिये दान की घोषणा की।

 

                आश्रम के मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी ने आश्रम में पधारे विद्वानों एवं श्रोताओं का धन्यवाद किया। उन्होंने आचार्य कुलश्रेष्ठ जी के विद्वतापूर्ण व्याख्यानों की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि हमने यहां जो सुना है उस पर आचरण करें। उन्होंने अपनी भावना प्रस्तुत करते हुए कहा कि हमें वेदों में दी गई ईश्वरीय आज्ञा के अनुसार नित्यप्रति अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये। शर्मा जी ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन से प्रेरणा लेने की भी सलाह दी। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में ज्ञानी व योग्य ऋषिभक्त आर्यसमाज का पदाधिकारी बनना नहीं चाहते। श्री शर्मा जी ने सभी आर्यों को अपने घरों पर ओ३म् का ध्वज लगाने की प्रेरणा भी की। उन्होंने समाज विरोधी विचारधारा के लोगों द्वारा आर्यसमाजों पर कब्जा किये जाने से भी लोगों को आगाह किया। इस प्रकार से सामवेद पारायण की पूर्णाहुति सम्पन्न की गई। इसके बाद का कार्यक्रम आश्रम के वृहद एवं भव्य सभागार में हुआ जिसकी जानकारी हम एक अन्य लेख के द्वारा प्रस्तुत करेंगे। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य

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