“ऋषि दयानन्द ने जातिगत आधार पर किसी के हाथ का भोजन खाने व जल पीने में भेदभाव नहीं कियाः उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

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Published on : 19 Oct, 19 05:10

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“ऋषि दयानन्द ने जातिगत आधार पर किसी के हाथ का भोजन खाने व जल पीने में भेदभाव नहीं कियाः उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ”

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के पांच दिवसीय शरदुत्सव के दूसरे दिन दिनांक 17-10-2019 को प्रातः 10.00 बजे से आश्रम के सभागार में भव्य सत्संग का आयोजन सम्पन्न हुआ। इस आयोजन में आश्रम में पधारे स्त्री-पुरुष-श्रद्धालुओं सहित आश्रम द्वारा संचालित विद्यालय ‘तपोवन विद्या निकेतन’ के बच्चे एवं उनकी शिक्षिाकायें भी उपस्थित थी। सत्संग के व्याख्यानों का शीर्षक था ‘महर्षि दयानन्द जी के जीवन की विशेषतायें’। कार्यक्रम का आरम्भ पं0 सत्यपाल पथिक जी के भजनों से हुआ। उन्होंने कई भजन प्रस्तुत किये। इसके बाद आर्य विद्वान पं0 शैलेश मुनि सत्यार्थी जी का व्याख्यान हुआ। हमें कुछ समय के लिये अपनी चिकित्सा हेतु चिकित्सक के पास जाना पड़ा जिस कारण हम श्रद्धेय पथिक जी के भजनों और श्री सत्यार्थी जी के व्याख्यान की अधिकांश बातों से वंचित रहे। हमने आचार्य सत्यार्थी जी का आंशिक व्याख्यान सुना। उसमें उन्होंने स्वामी दयानन्द जी का धन्यवाद किया। इस धन्यवाद का प्रमुख कारण ऋषि दयानन्द जी का आर्यसमाज की स्थापना करना था। वैदिक विद्वान आचार्य शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने ऋषि दयानन्द के अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का महत्व भी घर्मप्रेमी श्रोताओं को बताया। उन्होंने वेद पढ़ने की प्रेरणा की। आर्यसमाज की विशेषताओं पर विद्वान वक्ता ने प्रकाश डाला और श्रद्धालुओं को प्रेरणा की कि वह आर्यसमाज के सत्संगों में सपरिवार जाया करें। इससे उनके पारिवारिक जीवन में प्रसन्नता एवं सुखों की वृद्धि होगी। आचार्य सत्यार्थी जी बहुत प्रभावशाली व्याख्यान देते हैं। उनका जीवन भी कथनी और करनी में एकता का उदाहरण है।

 

                सत्संग में दूसरा व्याख्यान प्रवर वैदिक विद्वान पं0 उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी का हुआ। आचार्य जी ने ऋषि पतंजलि का वर्णन कर योगदर्शन में बताये यम व नियमों का उल्लेख किया। आचार्य जी ने पांच यमों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की चर्चा की। उन्होंने श्रोताओं को पांच नियमों शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्रणिधान के महत्व को भी बताया। आचार्य जी ने कहा कि संसार में कुछ महापुरुषों ने इन यम व नियमों में बताये दस में से केवल एक गुण को ही धारण किया और उन्हें विश्व में प्रसिद्धि मिली। उन्होंने बताया कि राजा हरिश्चन्द्र जी ने सत्य तथा महावीर स्वामी ने अहिंसा के गुण को धारण किया था। इसके कारण वह आज भी प्रसिद्ध एवं चर्चित हैं। महाभारत कालीन भीष्म को उन्होंने ब्रह्मचर्य का धारण करने वाला तथा ऋषि कणाद को अपरिग्रह का आदर्श महापुरुष बताया। उन्होंने कहा कि इन सभी महापुरुषों का यश एक-एक गुण धारण करने पर भी विगत सहस्रों वर्षों से लोगों के मन व मस्तिष्क में विद्यमान है।

 

                आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि यम व नियम में बताये गये 10 गुण ऋषि दयानन्द के जीवन में पराकाष्ठा के स्तर की उच्च स्थिति में थे। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने इन अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि यम व नियमों को धारण कर हमारे सामने अद्भुद उदाहरण प्रस्तुत किया है। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द अपने जीवन में अधिकांश समय बिना वस्त्र धारण किये एक कौपीन मात्र को पहन कर रहे। वह एक ही कौपीन रखते थे और उसी को धोकर बदल लेते थे। उन्होंने अपरिग्रह का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द का अस्तेय के व्रत का पालन करना भी अद्भुद था। आचार्य जी ने ऋषि जीवन की उस घटना का उल्लेख किया जब वह भूखे थे परन्तु एक बाग के स्वामी की बिना अनुमति के उन्होंने अपनी क्षुधा शान्ति के लिये बाग में से एक बैगन तोड़ना तक उचित नहीं समझा था। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि के जीवन में अस्तेय गुण की भी पराकाष्ठा थी। विद्वान वक्ता श्री कुलश्रेष्ठ ने आगे कहा कि शौच, सन्तोष, तप आदि गुण भी उनके जीवन में आदर्श स्थिति को प्राप्त थे। आचार्य जी ने ऋषि के जीवन में ईश्वर प्रणिधान तथा स्वाध्याय के गुणों की भी चर्चा की और कहा कि इन गुणों में देश व विश्व में उनके समान कोई विद्वान व महापुरुष नहीं था। ऋषि दयानन्द सबसे महान, श्रेष्ठ व ज्येष्ठ थे। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द में केवल शारीरिक बल ही नहीं था अपितु बौद्धिक बल भी अपार था।

 

                आचार्य जी ने स्वामी दयानन्द और मुंशीराम जिज्ञासु जी के संवादों का भी विस्तार से उल्लेख किया और बताया कि ऋषि दयानन्द ने उनके नास्तिक विचारों से युक्त सभी प्रश्नों का समाधान किया था। मुशीराम जी ने उन्हें कहा था कि यद्यपि वह निरुत्तर हो गये हैं तथापि उनकी आत्मा में ईश्वर के अस्तित्व के प्रति विश्वास पैदा नहीं हुआ। इसका ऋषि दयानन्द ने बहुत ही महत्वपूर्ण उत्तर दिया था। ऋषि दयानन्द ने कहा था कि मुंशीराम! मैंने तर्क व युक्ति से तुम्हारे सभी प्रश्नों का समाधान कर दिया है। ईश्वर पर तुम्हारा विश्वास तभी सम्भव है जब ईश्वर तुम पर कृपा करेंगे अर्थात् ईश्वर ही तुम्हें अपने अस्तित्व का विश्वास करा सकते हैं। आचार्य श्री कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि स्वाध्याय में ऋषि दयानन्द के समान कोई मनुष्य या महापुरुष नहीं था।

 

                विद्वान आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि स्वामी दयानन्द ने जन्मना जातिवाद को देश व समाज के लिये हितकर व न्यायसंगत स्वीकार नहीं किया। उन्होंने पुरुषार्थ व कर्म के महत्व को समाज में स्थापित किया। ऋषि दयानन्द ने स्त्री, पुरुष, दलित व सभी मनुष्यों को वेदाध्ययन का समानाधिकार दिया जो कि उन दिनों नहीं था। आचार्य जी ने कहा कि महात्मा मुंशीराम जी ने हरिद्वार के कांगड़ी ग्राम में देश का प्रथम गुरुकुल खोला था। इस गुरुकुल में जातिवाद को हटाकर सभी परिवारों व समुदायों के बच्चों को प्रविष्ट कराया था। इस गुरुकुल में पढ़कर सभी जातियों के बच्चे स्नातक बने। इन स्नातकों ने आर्यसमाज का कर्मकाण्डीय पुरोहित बनकर ब्राह्मण परिवारों सहित सभी लोगों के नामकरण तथा विवाह संस्कार कराये। महात्मा मुंशीराम संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द बने। उन्होंने सभी जातियों के बच्चों को वेदों की शिक्षा देकर ब्राह्मण बनाया। आर्यसमाज के इन पुरोहित ने सभी जाति व वर्णों के विवाह आदि संस्कारों को सम्पन्न कराया। सभी वर्णों के लोगों ने आर्यसमाज के इन पुरोहितों को पैर छूये। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी ने जन्मना जाति व्यवस्था को बदल दिया। उन्होंने कहा कि यह इतना बड़ा काम था जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में प्रचलित सभी अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं को भी दूर किया। आचार्य जी ने कहा कि पौराणिक लोग भी आर्यसमाज के पुरोहितों से उनकी जाति पूछे बिना संस्कार कराते थे। इसका कारण आर्यसमाज के पुरोहितों का शुद्ध मन्त्रोच्चार होता था जो पौराणिक पुरोहित नहीं कर पाते थे।

 

                आर्य विद्वान श्री उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने नारी जाति पर ऋषि दयानन्द के उपकारों पर भी प्रकाश डाला। उनका सबसे बड़ा उपकार नारी को शिक्षा व वेदाध्ययन का अधिकार दिलाना है। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने अन्धविश्वासों को दूर करने के लिये अनेक तर्क दिये जिनका उत्तर कोई मतावलम्बी नहीं दे सका। आचार्य जी ने यजुर्वेद के मन्त्र ‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदीनी जनेभ्यः’ की चर्चा कर कहा कि ईश्वर के बनाये इस वेदमन्त्र में ईश्वर ने सभी मनुष्यों को वेद पढ़ने, सुनने व उसका प्रचार करने का अधिकार दिया है। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा के वेद व अन्य सभी पदार्थों पर उसके सभी पुत्र-पुत्रियों का अधिकार है। आचार्य जी ने शास्त्रीय व्यवस्था से भी सभी लोगों को परिचित कराया जिसमें कहा गया है कि जन्म के समय सब मनुष्य वा शिशु शूद्र होते हैं। संस्कारों के अनुसार उकना वर्ण निर्धारित होता है और योग्यता के अनुसार वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होते हैं। विद्वान आचार्य ने आगे कहा कि सभी मत-पन्थों के ग्रन्थ अंधविश्वासों से भरे पड़े हैं। सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द ने तर्क एवं युक्तियों से सिद्ध किया है कि वेद ही ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। उन्होंने बताया कि 1.96 अरब वर्ष पूर्व ईश्वर ने वेदों का आविर्भाव किया था। आचार्य जी ने श्रोताओं को ऋषि दयानन्द जी की अन्य अनेक विशेषतायें भी बताईं।

 

                आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने ऋषि दयानन्द के जीवन की उस घटना का भी विस्तार से वर्णन किया जिसमें वह एक नाई द्वारा भोजनार्थ रोटी लाने पर वह उसे स्वीकार कर लेते हैं। ब्राह्मण पण्डितों द्वारा नाई की जाति के आधार पर विरोध करने पर वह कहते हैं कि रोटी गेहूं की है, नाई सत्य का आचरण करता है, उसकी भावनायें पवित्र हैं तो फिर रोटी में अशुद्धि कहां से आ गई। इस उत्तर ने पौराणिक पण्डितों को निरुत्तर कर दिया था। स्वामी दयानन्द जी ने नाई द्वारा भक्तिभाव में भर लाई गई रोटी को प्रेमपूर्वक ग्रहण कर एक आदर्श प्रस्तुत किया। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने जातिगत आधार पर किसी के हाथ का भोजन खाने व जल पीने में भेदभाव नहीं किया। आचार्य जी ने उन दिनों की एक घटना सुनाई जिसमें एक स्कूल के कुछ बच्चे अज्ञानवतावश किसी मुसलमान के पियाऊ का जल पी लेते हैं और वह व्यक्ति कहता है कि तुम जल पीने के कारण अशुद्ध जो जाने से अब हिन्दू न होकर मुसलमान हो गये हो। इसका प्रत्युत्तर देने के लिए आर्यसमाज का एक तर्कशील अनुयायी उन सब बच्चों को अधिक मात्रा में पानी पिलाता है और उन्हें मूत्र विसर्जन करवाकर उस मुसलमान व हिन्दू बन्धुओं को कहता है कि पेशाब के द्वारा पूरा मुस्लिम पानी बह गया है। अब यह हिन्दू जल पीकर पुनः शुद्ध हैं और हमेशा रहेंगे। आर्यसमाज ने समाज को यह भी सन्देश दिया कि मिथ्या परम्पराओं को नहीं मानना चाहिये। इससे समाज, जाति व धर्म को हानि होती है। आर्यसमाज के कारण ही धर्म एवं संस्कृति बच सकी है। आचार्य जी ने इसे धर्मरक्षा की एक बड़ी घटना बताया।

 

                आचार्य जी ने अपने सम्बोधन में जातिवाद की विकृतियों की अनेक बातें सुनाईं। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने जाट, गुजर, यादव, ठाकुर, क्षत्रिय व सभी जातियों के बन्धुओं को यज्ञोपवीत प्रदान किये थे जिसका पौराणिक भाई विरोध करते थे। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के जीवन की अनेक विशेषताओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि देश, समाज और वैदिक धर्म एवं संस्कृति पर ऋषि दयानन्द के अनेक उपकार हैं। उन्होंने कहा कि वाणी ऋषि दयानन्द के गुणों एवं उपकारों का वर्णन करने में असमर्थ है। आचार्य कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने नारियों को भी वेदों के आधार पर यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार दिया। उन्होंने कहा कि नारी यज्ञ की ब्रह्मा बन सकती है। इसी के साथ आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने अपने वक्तव्य को विराम दिया। कार्यक्रम का संचालन कर रहे श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने ऋषि दयानन्द द्वारा भूख से व्याकुलता की स्थिति में भी बिना भूमि के स्वामी की अनुमति के बैगन तोड़ना उचित नहीं समझा था, इस घटना का विस्तार से परिचय दिया। उन्होंने बच्चों को आर्यसमाज के सत्संग में ले जाने की प्रेरणा भी की। श्री सत्यार्थी जी ने कहा कि यदि आप बच्चों को वैदिक संस्कार नहीं देंगे तो भविष्य में आप पछतायेंगे। इसके बाद शान्ति पाठ किया गया और सत्संग हुआ। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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