कोटा के  रंगबिरंगे दशहरा मेले की है अर्वाचीन परंपराएं

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Published on : 04 Oct, 19 06:10

पहले होता था रावण और उसके परिवार के पुतलों का वध,आज होता हर पुतलों का दहन

कोटा के  रंगबिरंगे दशहरा मेले की है अर्वाचीन परंपराएं

कोटा (डॉ. प्रभात कुमार सिंघल) |  भारत मे कुल्लू,मैसूर,कोटा के दशहरा पर्व की अपनी शान है। कोटा का दशहरा जितना रंगबिरंगा है परम्पराए उतनी ही पुरानी है। रियासती परम्पराओं से लेकर वर्तमान समय तक समय-समय पर दशहरा का रूप बदलता रहा।पहले का तीन दिन का उत्सव आज विस्तार पा कर 25 दिन का हो गया। आइए डालते है एक नज़र।

          कोटा राज्य के इतिहास में दशहरा पर्व के अवसर पर विभिन्न धार्मिक उत्सवों का प्रारम्भ मध्यकालीन हाड़ा शासक महाराव दुर्जनशाल सिंह के समय से होना पाया जाता है। महाराव दुर्जनशाल हाड़ा (सन् 1723 से 1756) इतिहास प्रसिद्ध मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला के समकालीन थे। उनकी मुगल दरबार में काफी प्रतिष्ठा थी। महाराव दुर्जनशाल सिंह के शासन काल में कोटा का दशहरा पर्व बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था। मंदिरों पर तथा विभिन्न धार्मिक स्थानों पर अर्चन पूजन के कार्यक्रम पूर्ण श्रद्धा के साथ आयोजित करवाये जाते थे। राजसी शान शोकत बढ़ाने वाली विभिन्न प्रकार की सवारियां एवं दरीखाने के सुन्दर उत्सव महाराव दुर्जन शाल द्वारा ही कोटा में प्रारम्भ किये गए। कोटा इतिहास के जानकार फिरोज अहमद ने विस्तार से प्राचीन मेले की जानकारी प्रदान की। महाराव दुर्जनशाल सिंह द्वारा डाली गई इन परम्पराओं का निर्वाह आगे के उत्तराधिकारी हाड़ा शासक भी बराबर करते रहे।

          इस धार्मिक पर्व को अत्याधिक आकर्षक एवं रंगीन बनाने का सिलसिला लोक प्रिय नरेश महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय (सन् 1889 से 1940) के शासन काल में शुरू हुआ। महाराव उम्मेद सिंह केवल एक कुशल प्रशासक ही नहीं एक श्रद्धालु भक्त भी थे। कोटा का राष्ट्रीय मेला दशहरा आपकी ही देने है। मेले दशहरे का प्रारम्भ सन् 1892 ई. से माना जाता है। प्रारम्भ में यह मेला तीन दिवसीय लगता था। रावण वध के दिन अधिक चहल -पहल हुआ करती थी। हाड़़ौती के ग्रामीण लोग हजारों की संख्या में यहां आते थे। मेले में छोटी दुकानें तिरपालों में लगा करती थी। रावण वध के तीन दिन बाद गांव के लोग लोट जाया करते थे। उस समय एक बात प्रचलित थी, ‘रावण जी तीसरी और कोटा बाहरे तीसरो’ अर्थात् रावण मर गया और उसका तीसरा हो गया अब गांव के लोग लौट गये और मेले की भीड़ भी समाप्त हो गई। 

         धीरे- धीरे यह मेले एक सप्ताह का हुआ और दुकानों की संख्या बढ़ने लगी। मेले में कोटा से बाहर की दुकानें और व्यापारी आने लगे। सन् 1926-28 तक कोटा में नल बिजली के लगने के कारण महाराव उम्मेद सिंह ने इस मेले को भव्य रूप प्रदान करने के लिए, भारत के बड़े-बड़े नगरों के व्यापारियों को मेले में आमंत्रित करने हेतु आदेश जारी किये क्योंकि सन् 1921 में ही कोटा में नगर पालिका की स्थापना महाराव उम्मेद सिंह जी द्वारा कर दी गई थी। मेले की अधिकांश व्यवस्था का भार पालिका को सौंप दिया गया था। महाराव साहिब द्वारा व्यापारियों की अनेकानक सुविधाऐं प्रदान करने के कारण भारत के बड़े-बड़े शहरों हरियाणा, पंजाब, मद्रास, भागलपुर, दिल्ली, मथुरा, कानपुर, अहमदाबाद आदि में विभिन्न सामानों की दुकाने मेले में आने लगी। कई प्रसिद्ध मायावी की दुकाने मेले में आने लगी। सर्कस कंपनी आने से मेले की भव्यता में काफी वृद्धि हुई और यह मेला दिनों दिन आर्कषक बनता चला गया। सन् 1930-31 में यह मेला अपने पूर्ण यौवन पर आ चुका था।

          महाराव के शासन काल में मेले दशहरे की चहल -पहल पंचमी के दिन से ही प्रारम्भ हो जाया करती थी। उस समय कोटा का मेला दशहरा शहरपनाह के बाहर किशोरपुरा में विशाल मैदान में आयोजित होता था। परन्तु छोटी दुकानों का जमावड़ा गढ़ के सामने से ही प्रारम्भ हो जाता था। दशहरा मेले के अवसर पर महाराव यहां पर विशाल पशु मेला भी आयोजित होता था। यह मेला रावण वध के पूर्व प्रारम्भ होता था। आज भी दशहरे के अवसर पर पशु मेला भव्य रूप में लगता है। इस मेले में हाड़ौती ग्रामीणों के अलावा राजस्थान के तथा मध्यप्रदेश तक के व्यापारी पशु बेचने आते हैं। पशु मेले में गाय, भैंस, सांड, भेड़-बकरी, खच्चर, मुर्ग-मुर्गिया, ऊंट, घोडे़ आदि पशुओं का क्रय विक्रय होता है। पशु मेला भी दशहरे मेले का एक मुख्य आकर्षक हिस्सा है। इसमें ग्रामीण अंचलों की सुन्दर झांकी देखने को मिलती हैं, वर्तमान में पर्यटकों के लिए यह मेला अत्याधिक आकर्षक है।

            महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय के शासन काल में दशहरे पर्व के अवसर पर विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करवाये जाते थे। नवरात्रा स्थापना के प्रथम दिन आशापुरा देवी, डाढ़देवी माता, मनोरथ बालाजी (कोटा) कृष्ण अन्नपूर्णा (रामगढ़) कालभैरव (नान्ता) आदि के मंदिरों पर ब्राह्माणों को भेजकर पूजन व पाठ कराया जाता था, इन्हीं विचारों के अनुरूप क्षेत्रपाल जी व घांस भैरू का पूजन भी होता था। यह अर्चन पूजन महाराव द्वारा अपनी प्रजा की सुख शांति की कामना के लिए करवाया जाता था। 

पंचमी की सवारी 

        महाराव उम्मेद सिंह पंचमी के दिन पूरे लवाज में सवारी के साथ डाढ़देवी के मंदिर पर पूजन के लिए जाते थे। यहां पर महाराव की ओर से भैंसा और बकरा बलिदान किया जाता था। परन्तु बाद में महाराव द्वारा बलिदान ठीक प्रकार एक ही झटके में ना होने के कारण यह प्रथा बंद कर दी गई।

सप्तमी की सवारी

          सप्तमी के दिन महाराव कालभैरव (नान्ता) और करणीमाता (अभेड़ा) मंदिरों पूजन हेतु सवारी के साथ जाते थे। नावड़े से नदी पार करके महायान में बैठकर जाया करते थे। यहां पर भी महाराव द्वारा बकरे का बलिदान किया जाता था।

अष्ठमी पूजन की रस्म

          इस दिन महाराव गढ़ में स्थित अपनी कुल देवी    आशापुरा मंदिर पर पूजन करते थे। पुरोहित द्वारा पूजन रस्म को पूर्ण कराया जाता था। यह पूजन प्रातः सांय दोनों समय होता था। शाम के समय बृजनाथ जी मंदिर में भी पूजन व हवन की रस्म पूर्ण की जाती थी। दिन सांयकाल 6 बजे एक छोटा दरीखाना पोल दरवाजे के बाहर छोटे चबूतरे पर था। इसे डोडा का दरीखाना कहते थे। इसमें अहलकार और भाई बंधु बैठक के अनुसार महाराव साहिब और सभी लोग प्रचलित परिधानों को धारण किये होते थे। इस दिन बुर्ज पर तोप चलायी जाती थी और आतिशबाजी हुआ करती थी।

आशापुरा माताजी की सवारी 

         नवमी को सांयकाल लगभग पांच बजे महाराव उम्मेद सिंह अपने महल में स्थित कुल देवी आशापुरा जी का पूजन करते थे। उसके पश्चात् महाराव किशोरपुरा स्थित आशापुरा देवी के मन्दिर पर सवारी के साथ खांडा रखने जाते थे। खाँडा एक प्रकार का तलवार की तरह लम्बा होता है उससे पूजा होती है। सवारी में पूरे समय महाराव खांड़ा हाथ में रहते थे। मंदिर में पहुंचकर यहां माता जी की दरीखाने में हिस्सा लेते थे। यह दरीखाना एक प्रकार से पंचों की सलाह मशविरे से सम्बन्धित होता था जिसमें रावण पर युद्ध करने पर विचार किया जाता था। दरीखाना समाप्त होने पर मंदिर से एक मशालची द्वारा गढ़ के बुर्जो पर खड़े होकर तोपचियों को संकेत दिया जाता था तब तोपें चलायी जाती थी। यह तोपें गढ़ की बुर्जो एवं परकोटे की बुर्जो पर चलायी जाती थी। दरीखाने की समाप्ति के बाद सवारी गढ़ लौट आती थी। यहां आकर महाराव द्वारा हाथियापोल के बाहर चौक में हाथी घोड़ों के पूजन की रस्म पूरी करते थे। इसके पश्चात् राजमहल के चौक में शस्त्रों का पूजन होता था। इस अवसर पर भी 3 तोपें चलायी जाती थी। इस दिन महाराव भीमसिंह प्रथम के शस्त्रों का पूजन भी महाराव द्वारा किया जाता था। कड़क बिजली और धूलधाणी तोपों का पूजन पुराहितों द्वारा किया जाता था। तोपें कोटा राजस्व को बूंदी विजय के उपरांत प्राप्त हुई थी। रावण वध के समय दशहरा स्थल पर चलायी जाने वाली तोपों का भी इसी दिन पूजन होता था।

रंगबाड़ी के बालाजी की सवारी

              मिती आसोज सुदी दशमी को प्रभात में महाराव उम्मेदसिंह गढ़ में पधार भगवान बृजनाथ जी के दर्शन करते थे उसके पश्चात् सलहखाने में अपने वीर पूर्वज महाराव भीमसिंह प्रथम के चित्र का व कोटा राज्य चिन्ह गरूण जी का दर्शन करते थे। इस समय गढ़ के बाहर जलेब चौक में काफी चहल पहल हुआ करती थी। लगभग दस बजे गढ़ की सवारी का प्रस्थान होता था। इस सवारी को देखने काफी लोग उमड़ते थे। सवारी के रंगबाड़ी पहुंचने पर महाराव बालाजी का पूजन करते थे। उसके पश्चात् रंगबाड़ी स्थित भवानीशंकर बहमीं की बगीची में चौगान्या का आयोजन होता था। इस कार्यक्रम के तहत एक ताकतवर भैंसे को मदिरा पिलाकर तथा उसके शरीर पर चीरा देकर उसमें नमक भरकर मैदान में छोड़ दिया जाता था। इसके चारों और महाराव एवं उनके भाई बंधु अन्य राजपूत सरदार बैठक तथा सवारी में शामिल अन्य लोग खड़े रहकर इस कार्यक्रम का आनंद लेते थे। महाराव का इशारा जिस सरदार को होता था। उसे भैंस की गरदन एक ही बार में काटने हेतु भैसें के पीछे दौड़ना पड़ता था। यह कार्यक्रम एक प्रकार से क्षत्रियों के शक्ति परीक्षण का कार्यक्रम था। चौगन्य की समाप्ति के पश्चात् सवारी गढ़ की लौट आती थी। यह प्रथा महाराव शत्रुशाल द्वितीय के समय में भी प्रचालित थी।

 विजय दशमी की रावण वध सवारी

               विजय दशमी के दिन सांयकाल रावण वध की सवारी निकलती थी। यह सवारी सभी सवारियों से अधिक भव्य और आकर्षक होती थी। दोपहर तीन बजे से ही गढ़ में इस सवारी की तैयारी प्रारम्भ हो जाती थी। गढ़ महल में स्थित जलेब चौक में कोटा की फौजी पलटनों और सवारी में निकलने वाले लवाजमें की जमावत दर्शनीय होती थी। रावण वध के सुन्दर कार्यक्रम और इस आकर्षक सवारी को देखने के लिए कोटा नगर की ही नहीं वरन् समस्त हाड़ौती की जनता इसे देखने के लिए उमड़ती थी। गढ़ के आस पास तथा दशहरा स्थल तक दर्शकों की इतनी भीड़ रहती थी कि पैर रखने तक की जगह नहीं मिलती थी। उस समय के कुछ प्रत्यक्ष दर्शिर्यों का कहना है कि अब विजय दशमी के दिन रावण वध की सवारी में पहले जैसी भीड़ नहीं रहती।रावण वध की सवारी के पूर्व गढ़ में खेजड़ी (वृक्ष) पूजन की रस्म पूर्ण की जाती थी। मुरतबी निशानों का भी पूजन होता था। गोबर के रावण जी को खासा घोड़े से गोंदा जाता था। 

            सायं 6 बजे के लगभग गढ़ से सवारी का प्रस्थान होता था महाराव हाथिया पोल बाहर पधारकर खासा हाथी पर सोने की तीतरी वाले हौदे में विराजते थे। पीछे कवासी में उनके भाई बंधु महाराज को चंवर ढुलाते थे बैठते थे। उस समय तीन तोपों के फायर होते थे। सवारी का पूरे लवाजमें के साथ प्रस्थान होता था। महाराज के प्रारम्भिक शासन के वर्षो में यह सवारी सैलारगाजी दरवाजे के होकर गुजरती थी, परन्तु बाद में महाराव उम्मेदसिंह द्वारा हवामहल में नये विशाल दरवाजे का निर्माण कराने के बाद सवारियां यहां से निकलने लगी और सैलारगाजीं दरवाजे की तरफ दीवार बना दी गई। जैसे ही सवारी गढ़ के बाहर चौक में आती थी उस समय कुछ देर तक महाराव सवारी के साथ यहां ठहरते थे और हरकारों द्वारा यह बात सिद्ध करवायी जाती थी कि रावण समझ जा, मान रहा है या नहीं। रावण के हठ की औपचारिकता पूर्ण होने के पश्चात् फिर सवारी प्रस्थान करती थी। सवारी जैसे-जैसे आगे बढ़ती थी तब कई तोपें गढ़ की बुर्जो पर चलायी जाती थी। इतिहास कार डॉ. जगत नारायण श्रीवास्तव जी ने उनकी पुस्तक ‘‘महाराव उम्मेदसिंह द्वितीय और उनका समय’’ में विजयदशमी की रावणवध वाली सवारी की जमावत का इस प्रकार वर्णन किया है। सबसे आगे निशान का हाथी, जिस पर नेगी कोटा राज्य के निशान वाला झंड़ा (गरूड) लिए बैठा हुआ होता था व साथ का सरदार। इसके पीछे मक्कारे का घोड़ा, फिर निशान का दूसरा हाथी जिस पर साथ का सरदार, इसके पीछे गढ़ जापता के जवान, फिर डोर की हथनी, जमना का निशान का खासा घोड़ा फिर उम्मेद इन्फेन्ट्री (सेना के जवान) खासा घोड़ा सुनहरी साज का। इसके पीछे जाँगढ़, भाँड, धोला, हरकारा, चौबदार, मिरधा, नकीब, चंवर बरदार, सलहरवान का बांस जलूसी, संख्या - 4, बल्लभ फरेरा लिए हुए जेठी, संख्या-4, खांसा बन्दूकाँ-2, चँवर-2, मोरछल-2, तरवार-1, छतरी-1, अडाणी करणी-1, पासवान साथ का सरदार, जमींदार आगे पैदल, उसके पश्चात् श्री जी हजूर बहादुर महायान, पर आठ व्यक्ति उठाते थे। यहां उल्लेखनीय है कि महाराव साहिब वृद्धाअवस्था के कारण अपने शासन के वर्षो में महायान में बैठकर आने लगे। पहले हाथी पर आते थे। महायान के साथ जाप्ता के पीछे भाले सरदार, गंगा जल की, गंगा जल वाला व पहरा का सिपाही, तामझाम-2, मरातिब के हाथी-2, नौबत (बजने वाला ...)-2 इस सवारी में जम्बूर खाना के सवार ... शामिल होते थे। रेतवाली में कुछ समय के लिए विश्राम करती थी तब तोपे चलायी जाती थी। कोगबाण चलाये जाते थे। जैसे ही सवारी रावण वध स्थल पर पहुंचती थी तब लंका के बाहर लगे तोरण पर कोरड़ा मारते थे उसके पश्चात् महाराव महाराज कुमार को साथ लेकर पुरोहित राम-सीता जी के पाने व शमी पूजन करायी जाती थी एवं पश्चात् महाराव साहिब और महाराजा कुमार को तीर चलाने की रस्म पूरी करते थे। उमराव भी रावण पर तीर चलाते थे। 

            उस समय मैदान पर रावण व उसके परिवार के सदस्यों की प्रतिमाऐं बनाई  जाती थी। ये प्रतिमाएं रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ, सूर्पणनका एवं खरदूषण की होती थी। इन सभी प्रतिमाओं के सिर लकड़ी व मिट्टी बनाये जाते थे। जिन पर चितेरों द्वारा चित्रों से इनको सजाया जाता था। पंचमी के लिए झंडा लगाया जाता था। उस समय रावण का सिर 80 मन लकडि़यों को गूंथ कर व अन्य प्रतिमाओं के सिर 40-20 मन लकडि़यों के बनाये जाते थे। रावण की नाक इतनी बड़ी बनायी जाती थी कि उनमें एक बकरा या कुत्ता आसानी से घुस सकता था। रावण पर तीर चलाने से पूर्व रावण को एक बार फिर समझाया जाता था कि  वे युद्ध ना करे, समझ जाये, परन्तु रावण की प्रतिमा के पीछे बैठा व्यक्ति रावण की ओर से ना मानू, ना मानू कहता था तब तीर चलाये जाते थे जिससे रावण के पेट में रखा अमृत रूपी लाल रंग का घड़ा फूट जाता था और रावण मरने लगता था। उसके पश्चात् रावण व अन्य प्रतिमाओं के सिर धीरे-धीरे हाथी से खिंचवा कर नीचे गिरा दिये जाते थे। जैसे ही रावण मरता था तब रावण के पीछे मैदान में 19 तोपें चलायी जाती थी जिससे सारा नगर गूंज उठता था। रावण का एवं अन्य प्रतिमाओं के सिर गिरते ही निम्न वर्ग के लोग लकडि़यों के लिए छिना झपटी करते थे ये दृश्य बड़ा ही मनोरंजक होता था। उस समय रावण के पीछे जो तोपें चलायी जाती थी वे नो दुर्गो, नारायण बाण, नगीना, बलमदेज, ढाईसेरी, ऊनधरी - सूंधरी, सो कण्डे, कीनाले आदि थी। महाराव उम्मेद सिंह के शासन काल में भाई बंधुओं उमरावों सरदारों तथा गणमान्य लोगों को रावण वध का दृश्य देखने हेतु इस स्थल पर कलात्मक तिबारियां बनी हुई थी जो रियासत समाप्त होने के पश्चात् नगर पालिका कोटा द्वारा हटा दी गई। 

       इसके पश्चात् नगर पालिका कोटा द्वारा रावण जी के स्थान पर लोगों को रावण वध देखने हेतु पत्थर की सीढि़यों का निर्माण दायें व बांयी और करवाया गया था। उनको सन् 76 के पश्चात् शहर की बढ़ती जनसंख्या और भीड बढ़ने के कारण इसे भी तुड़वा दिया गया।रावण वध के पश्चात् सवारी वापस गढ़ लौट जाती थी। उस समय गढ़ में महाराज की ओर से पान के बीड़ों का एक छोटा सुन्दर दरीखाना आयोजित होता था, जिसमें महाराणा के भाई बंधु सरदार व जागीरदार शिरकत करते थे। महाराव उम्मेद सिंह काल में विजयदशमी की सवारी के विशेष आकर्षणों में जयपुर राज्य का पंचरंगा झंडा भी हुआ करता था जो इस सवारी में निकाला जाता था। इसे एक व्यक्ति हाथ में लेकर हाथी पर बैठकर चलता।

             वर्ष 1964 से अतिशबाजी से बना रावण का पुतला बनाया जाता है जिसकी लम्बाई 70 फुट के लगभग होती है। विजयादशमी के दिन इस रावण के पुतले को जलाकर मारा जाता है। गढ़ से हथी पर लक्ष्मीनाथ जी की शोभा यात्रा गाजे बाजे के साथ लोक कलाओं के प्रदर्शन के साथ रावण दहन स्थल पर पहुचती है। वहाँ ज्वारे की पूजा के साथ रावण दहन की रस्म पूरी की जाती है। इस अवसर को खूबसूरत बनाने के लिए नगर निगम द्वारा आकर्षक आतिशाबाजी भी करवायी जाती है। वर्तमान में शहर को गुंजाने वाली तोपों का प्रचलन समाप्त हो गया। इनके स्थान पर कोगबांण चलाये जाते हैं। वर्तमान में अब नगर निगम के श्रीरामरंग मंच पर प्रतिवर्ष मथुरा की प्रसिद्ध मंडलियों द्वारा रामलीला का सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया जाता है। निगर की ओर से जनता के मनोरंजन के लिये विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। अखिल भारतीय कवि सम्मेलन एवं मुशायरा भी सम्पन्न होता है। कोटा का यह मेला अपनी भव्यता के साथ लगभग 25 दिन से अधिक तक चलता है। मेले में भारत के विभिन्न राज्यों से दुकाने आती है।सर्कस सहित मनोरंजन के साधन लुभाते हैं।अब दशहरा मैदान को दिल्ली के प्रगति मैदान की तर्ज पर विकसित किया गया है।


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