“मृतक पूर्वजों का श्राद्ध वेद सम्मत और बुद्धि संगत नहीं है”

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Published on : 28 Sep, 19 06:09

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

“मृतक पूर्वजों का श्राद्ध वेद सम्मत और बुद्धि संगत नहीं है”

मध्यकाल में देश में मृतक पूवजों का श्राद्ध करने की अवैदिक परम्परा आरम्भ हुई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इसके पीछे एक कल्पना है जिसके अनुसार मरने के बाद आत्मा को पुनर्जन्म नहीं मिलता और आत्मा भटकती रहती है। ऐसा कल्पना व विचार करके इस प्रथा को आरम्भ किया गया प्रतीत होता है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में 15 दिन की अवधि में यह आत्मायें आकाश के किसी स्थान से धरती वा भारत भूमि पर उतरती हैं और अपनी सन्ततियों से एक समय के भोजन की अपेक्षा करती हैं। भोजन कर लेने के बाद इनकी आत्मा को शान्ति मिल जाती है। श्राद्ध की विधि में यह भी कहा जाता है कि इस दिन शुद्ध और मिष्ठान्न आदि बनाने चाहिये और कुत्ते, पशु, पक्षियों तथा कीड़ों का कुछ भाग निकाल कर अग्निहोत्र करना चाहिये। अग्निहोत्र के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा व दान से सन्तुष्ट करना चाहिये। इसके बाद परिवारजनों को स्वयं भोजन करना चाहिये। यदि किसी कारण पूर्वज व पितृ पक्ष के सदस्यों की मृत्यु की तिथि पर भोजन का यह आयोजन न हो तो अमास्या के दिन ही सभी पितरों को इस विधि से भोजन अवश्य कराना चाहिये जिससे मृतक पितृ सन्तुष्ट होकर चले जाते हैं और उन्हें शान्ति मिल जाति है। विचार करने पर इस पूरी कथा का केन्द्र मनुष्य के अज्ञान पर होना ही निश्चित होता है। हमें लगता है कि मध्यकाल में जब वेदज्ञान लुप्त हो गया था तो अज्ञान व अन्धविश्वासों के प्रसार के कारण इस प्रकार की कल्पनायें की गईं। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में अत्यन्त योग्य एवं ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न ऋषियों को परमात्मा से प्राप्त हुआ था। उन्होंने सृष्टि के आरम्भ में ही इस ज्ञान का अन्य लोगों में प्रचार किया जिससे वेद प्रचार की परम्परा का सूत्रपात हुआ और यह वेद प्रचार की परम्परा महाभारत युद्ध के समय तक अबाध गति से चली। महाभारत के समय में महर्षि वेदव्यास तथा उनके शिष्य ऋषि जैमिनी आदि थे। इस कारण तब तक देश में अविद्या व मिथ्या परम्पराओं का आरम्भ नहीं हो सका था। अन्धविश्वासों का कारण अज्ञान व अविद्या ही हुआ करती है। महाभारत युद्ध के बाद देश में अव्यवस्था का दौर आरम्भ हुआ जिसमें वेदों का अध्ययन अध्यापन समुचित रूप से न हो सका। परिणामतः अज्ञान व अन्धविश्वास तथा इन पर आधारित मिथ्या परम्पराओं की उत्पत्ति हुई जिनमें से मृतक श्राद्ध भी एक प्रथा है।

 

                आर्यसमाज के विद्वानों ने मृतक श्राद्ध को वेद विरुद्ध होने से इसे अवैदिक कर्म, प्रथा व परम्परा माना है। आर्यसमाज का कोई अनुयायी इस प्रथा को नहीं मानता और इसका सम्पादन करता है। वह जानता है कि उसके सभी पूर्वज मृत्यु के तुरन्त बाद अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से अपने योग्य मनुष्यादि आदि अनेक योनियों में से किसी एक योनि में जन्म पाते रहे हैं। जन्म-मृत्यु का होना एक प्रकार से जीवात्मा का स्वाभाविक गुण व कर्म है। यह ईश्वरीय विधान है। गीता में कृष्ण जी ने कहा है कि जन्म लेने वाली आत्मा की मृत्यु और मृतक आत्मा का जन्म होना घ्रुव व अटल सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त पर विचार करने पर यह सुनिश्चित होता है कि मृत्यु के बाद पुनर्जन्म हो जाने के कारण मृतक आत्मा को उसके पूर्व परिवार के सदस्यों से किसी प्रकार के भोजन, वस्त्र व आवास आदि सुविधाओं की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई ऐसा सोचता है कि हमारे श्राद्ध करने से हमारे द्वारा ब्राह्मण व पशु-पक्षियों आदि को कराया गया भोजन मृतक पितरों के पास पहुंचता है तो यह घोर अविद्या है। हमें वेद प्रमाण एवं ऋषियों की वेदसम्मत परम्पराओं व सिद्धान्तों के विपरीत किसी बात को नहीं मानना चाहिये। ऐसा करना हमारा नास्तिक होना सिद्ध करता है। ईश्वर में विश्वास रखना और उसके वेदज्ञान के अनुरूप आचरण करना ही हमारा धर्म है। हमें अपने अल्पज्ञानी, मृतक श्राद्ध का प्रमाण प्रस्तुत करने में असमर्थ तथा अपनी बात को सत्य, तर्क व युक्तियों से सिद्ध न कर सकने वाले पूर्वजों व वर्तमान में इन बातों के समर्थक लोगों की ऐसी मिथ्या बातों को स्वीकार नहीं करना चाहिये। यह ध्यान रखनी चाहिये कि हम जो भी कर्म करते हैं उसके कर्ता होने के कारण इससे मिलने वाला सुख व दुःख हमें ही मिलना है। कोई मनुष्य दुःख नहीं चाहता। दुःख अधिकांशतः हमारे असत्य व मिथ्या आचरणों का ही परिणाम होता है। अतः हमें मृतक श्राद्ध पर गम्भीरता से विचार व चिन्तन करना चाहिये और इसके सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद यदि उसमें तथ्य लगे, तभी स्वीकार करना चाहिये और न लगे तो छोड़ देना चाहिये।

 

                हम समाज में देखते हैं कि हमारे बन्धु बिना किसी प्रकार का विचार व चिन्तन किये सभी प्रचलित अच्छी व बुरी प्रथाओं का अनुगमन करते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है। हमारी अतीत की सभी समस्याओं व दुःखों का कारण हमारे ऐसे ही कृत्य व परस्पर मतभेद होना रहा है। यदि अब भी ऐसा ही करेंगे तो आने वाले समय में इनके दुष्परिणामों को हमें व हमारी भावी पीढ़ियों को भोगना पड़ेगा। तब वह हमें ही दोष देंगे जैसा कि हम अपने अज्ञानी व मिथ्या परम्पराओं को चलाने वाले पूर्वजों को देते हैं। यदि भारत के बलवान व अजेय नरेश पृथिवीराज चैहान ने मुहम्मद गौरी को युद्ध में पराजित कर उसे क्षमादान न दिया होता तो आज उनके वंशज हिन्दुओं वा आर्यों की यह दुर्दशा न होती। ऐसी ही अनेक गलतियां हमारे पूर्वजों ने तब की जब विदेशी विधर्मी हमारे किसी एक राजा पर आक्रमण करते थे तो अपने छोटे मोटे विवादों व अन्धविश्वासों के कारण हम एक जुट होकर उसका विरोध करने के स्थान पर स्वयं को उससे अलग थलग रखते थे जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारे विधर्मी शत्रुओं ने एक-एक कर हमारे सभी हिन्दू राजओं को मारा, काटा व पराजित किया तथा हमारी बहिन व बेटियों को दूषित किया। हमें इतना होने पर भी अकल नहीं आई और उसी मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं। हम ऐसे पूर्वजों के अज्ञानता के कार्यों को आंखे बन्द कर स्वीकार नहीं कर सकते और किसी भी करना नहीं चाहिये। उन्नति एवं सफलता प्राप्त करने के लिये हमें अपने सभी दोष व दुर्गुणों सहित दुव्यसनों को दूर करना ही होगा। श्राद्ध भी एक प्रकार की असत्य, अज्ञानतापूर्ण एवं दूषित परम्परा हैं। इससे समाज कमजोर होता है। दूर दराज के गांवों व वनों आदि में रहने वाला एक निर्धन व्यक्ति कर्ज लेकर श्राद्ध की परम्परा का निर्वाह करता है जिससे वह भविष्य में उबर नहीं पाता। हमने स्थानीय ज्योन्सार बाबर में बधुंआ युवाओं को देखा व अपने पिता से सुना है जिनके पिता ने कुछ पैसे लिये और उनकी कई पीढ़ियों ने उन सेठ, साहूकारों व जमीदारों के यहां मजदूरी व गुलामी की और मात्र थोड़े से भोजन व एक दो जोड़ी फटे पुराने वस्त्रों में ही अपनी पूरी जिंदगी गुजारी। हम कृतज्ञ हैं ऋषि दयानन्द के जिन्होंने हमें अविद्या, अन्धविश्वास एवं मिथ्या परम्पराओं के महारोग से बचाया। हम ऋषि दयानन्द और ईश्वर को इस उपकार के लिये स्मरण कर उनका धन्यवाद करते हैं।

 

                जीवात्मा जन्म-मरण धर्मा है। हम संसार में आये हैं तो इससे पहले कहीं मरे हैं। यदि हम न मरते तो हमारा जन्म भी न होता। हम यहां जन्में हैं और शिशु, बालक तथा युवा हुए और अब वृद्धावस्था में चल रहे हैं। कुछ समय बाद हमारी मृत्यु होनी सुनिश्चित है। मृत्यु के बाद परमात्मा हमें हमारे कर्मों व प्रवृत्ति के पुनर्जन्म देगा। हम प्रतिदिन लोगों को मरते व जन्म लेते देखते हैं। यह परम्परा यह बताती है कि मृत्यु का परिणाम जन्म और जन्म का परिणाम मृत्यु होता है। जब मृत्यु के बाद शरीर नहीं रहेगा तो हमें भोजन व वस्त्र आदि किसी वस्तु की आवश्यकता भी नहीं होगी। जब हमारी मृतक आत्मा का जन्म हो जायेगा तो वहां उसे नये माता-पिता व भाई-बन्धु आदि मिलेंगे। उसके भोजन में दुग्ध, आहार व वस्त्र आदि की जो भी आवश्यकता होगी वह उसका नया परिवार व माता-पिता पूरी करेंगे। अतः पूर्वजन्म के सगे सम्बन्धियों को हमारा श्राद्ध करने की किंचित आवश्यकता नहीं है। अगर हम इस बात को समझ जाते हैं तभी हम मनुष्य अर्थात् मननशील प्राणी सिद्ध होते हैं अन्यथा नहीं। अतः हमें सोच विचार कर मृतक श्राद्ध की प्रथा को छोड़ देना चाहिये। इससे हम अपने जीवन को उत्तम व सुखद बना सकेंगे।

 

                आजकल देखते हैं कि श्राद्ध के पन्द्रह दिनों में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। यदि किसी की पुत्री व पुत्र का विवाह होना है व उसका किसी परिवार में सम्बन्ध होना है तो कहा जाता है कि श्राद्ध के दिनों में हम ऐसा कोई विचार व कार्य नहीं कर सकते। इन मिथ्या विश्वासों से हमारा जीवन क्रम भंग होता है। परमात्मा की ओर से यह विधान नहीं है अपितु यह अज्ञानी लोगों द्वारा बनाई गई परम्परायें हैं। इससे प्रत्यक्ष हानि होती है। समय की हानि ही सबसे बड़ी हानि होती है। धन को मनुष्य कमा सकता है परन्तु बीता समय को कोई भी मनुष्य वापिस नहीं ला सकता। हजारों व करोड़ो रुपये व्यय करके भी हम अपने पुराने किसी पल को वापिस नहीं ला सकते। यह समय की कीमत है। अतः हमें मृतक श्राद्ध का शीघ्रातिशीघ्र त्याग कर देना चाहिये और समाज के सभी वृद्ध लोगों सहित अपने परिवार के वृद्ध लोगों की तन, मन व धन सहित पूरी श्रद्धा व भक्ति से सेवा शुश्रुषा करनी चाहिये। इसी से हमारा व हमारी आर्य हिन्दू जाति का कल्याण होगा। हमने यह शब्द पूरी सदाशयता से लिखे हैं। हम आशा करते हैं कि इसी भावना से हमारे मित्र इस लेख को पढ़ेगे और लाभ उठायेंगे। ओ३म् शम्।

                -मनमोहन कुमार आर्य

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