“मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर और आत्मा को जानना व उपासना करना है”

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Published on : 14 Sep, 19 04:09

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर और आत्मा को जानना व उपासना करना है”

हमें परमात्मा ने मनुष्य जन्म दिया है। हम ईश्वर और आत्मा को पूर्णतः से नहीं जानते हैं। क्या हमें इन दोनों सत्ताओं के यथार्थ स्वरूप को जानना चाहिये अथवा नहीं? यदि जानना चाहिये तो क्यों? और यदि नहीं जानना चाहिये तो क्यों नहीं? इन प्रश्नों पर विचार करना इसलिये भी आवश्यक है कि हमारी आत्मा ज्ञान व कर्म करने की सामथ्र्य से युक्त है। आत्मा हर अज्ञात वस्तु व सत्ता के विषय में जानना चाहती है। परमात्मा ने हमें जन्म दिया है, माता-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना, ताऊ-चाचा, ताई-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी सहित भाई व बहिन, मित्र व पड़ोसी आदि सहित हमारा शरीर और इसमें अनेक इन्द्रियां आदि भी निःशुल्क दी हैं। वह हमारा परम मित्र और जन्म-जन्मान्तर का साथी भी है। हम किसी से थोड़ी सी भी सहायता लेते हैं तो उसे धन्यवाद कहते हैं। क्या ईश्वर ने हमारे प्रति जो उपकार किये हैं उसके लिये हमें उसे जानना और उसका धन्यवाद नहीं करना चाहिये? कुछ अज्ञानी लोग हो सकते हैं जो कह सकते हैं कि जब परमात्मा को हमने देखा ही नहीं है तो फिर उसको जानने व धन्यवाद करने की क्या आवश्यकता है? इसका कई प्रकार से उत्तर दिया जा सकता है। हमने अपने पितामह व पितामही व उनसे पूर्व के सम्बन्धियों को नहीं देखा। अन्य अनेक सम्बन्धियों को भी नहीं देखा है तथापि हम सभी का होना अनुमान से स्वीकार करते हैं। वायु को भी हमने नहीं देखा है। हम कभी सूर्य व चन्द्रमा पर नहीं गये और न हमने उनका परिमाण देखा है फिर भी विज्ञान की पुस्तकों में इन विषयों की आवश्यक जानकारी को पढ़कर वा देखकर हम विश्वास कर लेते हैं कि यह बातें सत्य हैं। इसी प्रकार ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि व संसार के बारे में परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों में ज्ञान दिया है। सृष्टि के आदि काल से हमारे देश में वेदों का ज्ञान रखने वाले व प्रचार करने वाले ऋषि-मुनि-योगी व विद्वान होते आये हैं। वह सभी ईश्वर को वेद के अनुरूप सत्ता व स्वरूप वाला स्वीकार करते रहे हैं।

 

       ईश्वर का अस्तित्व इसी बात से सिद्ध होता है कि हमारी यह सृष्टि सहित हमारा शरीर बिना किसी कर्ता के स्वयं बनने वाली वस्तु नहीं है अपितु यह एक अत्यन्त विज्ञ एवं शक्ति से युक्त सर्वव्यापक सत्ता के द्वारा अस्तित्व में आया है। हम एक साधारण वस्तु को देखते हैं तो कहते हैं कि यह जिसने भी बनाई है वह अच्छा कारीगर है। बिना कारीगर के वस्तु को देखकर ही हम निश्चयात्मक रूप से कारीगर होने का विश्वास करते हैं तो इस महान व विविध अनन्त गुणों से युक्त सृष्टि को जिसको बनाने का प्रयोजन भी है, जिसका उपादान कारण प्रकृति है, जो स्वतः कदापि नहीं बन सकती, यही सब बातें ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध कर देती हैं। अतः संसार में ईश्वर का होना साधारण युक्तियों से भी सिद्ध होता है। ईश्वर को हम वेद, उपनिषद तथा दर्शनों का अध्ययन करके भी जान सकते हैं। आजकल हमें वेद, दर्शन व उपनिषदों के हिन्दी भाष्य सुलभ हैं। इनसे ईश्वर व जीवात्मा का यथोचित ज्ञान होता है। हमारे अनेक ग्रन्थों में प्रक्षेप होने से उनमें मिथ्या बातों का भी समावेश है जिससे साधारण मनुष्य की बुद्धि भ्रमित हो जाती है। अतः हमें प्रामाणिक भाष्य व टीकाओं का ही अध्ययन करना चाहिये और कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये जिससे कि हम भ्रम का शिकार न हों।

 

                ऋषि दयानन्द के समय में हमारा देश व विश्व अविद्या से ग्रस्त था। ईश्वर के अस्तित्व, स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव सहित आत्मा का यथार्थ व निश्चयात्मक ज्ञान उपलब्ध नहीं होता था। ऋषि दयानन्द ने इस अभाव की पूर्ति सन् 1874 में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखकर की थी जिसका प्रकाशन सन् 1875 में हुआ था। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर ईश्वर व जीवात्मा सहित मनुष्य की सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। संसार में सत्यार्थप्रकाश के समान महत्वपूर्ण ग्रन्थ दूसरा कोई नहीं है। सत्यार्थप्रकाश के 14 समुल्लासों में प्रत्येक समुल्लास एक से बढ़कर एक हैं। प्रथम दस समुल्लास मण्डनात्मक हैं जिनमें वैदिक मान्यताओं के आधार पर मनुष्य की सभी शंकाओं का युक्ति व तर्क के आधार पर सन्तोषजनक समाधान व उत्तर दिया गया है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन हम एक सप्ताह में इस ग्रन्थ को पढ़कर कर सकते हैं। यह ऐसा ग्रन्थ है जिसे हमें बार-बार पढ़ना चाहिये। पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने इसका लगभग 18 बार अध्ययन किया था। वह कहते थे कि मैं जब-जब इसका अध्ययन करता हूं मुझे अनेक विषयों के नये अर्थों का बोध वा ज्ञान होता है जो पहले नहीं हुआ था। लाला लाजपतराय जी, पं0 लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी, महात्मा हंसराज जी, स्वामी दर्शनानन्द जी आदि ऋषि दयानन्द के समकालीन अनेक महापुरुषों ने इस ग्रन्थ का अध्ययन किया था और इसे उपयेागी व इसके अध्ययन को मनुष्य के अनिवार्य पाया था। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से सभी विषयों की भ्रान्तियां दूर होती है और उनका यथार्थ ज्ञान उपलब्ध होता है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से मनुष्य विद्वान एवं आस्तिक बनता है। सत्यार्थप्रकाश में प्रत्येक सिद्धान्त व मान्यता के समर्थन में अनेक तर्क एवं युक्तियां दी गई हैं। विज्ञान भी तर्क एवं युक्तियों के आधार पर ही सत्य सिद्धान्तों व प्रकृति के नियमों की खोज करता है। वेद एवं दर्शनों में भी जो बातें कही गई हैं वह सभी तर्क एवं युक्तिसंगत हैं और अकाट्य भी हैं। अतः वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय वा अध्ययन प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करना चाहिये।

 

                हमें ईश्वर और अपनी आत्मा को क्यों जानना चाहिये? हम आत्मा हैं और हमारा शरीर नाशवान है। हमारा शरीर पंचभौतिक तत्वों से मिलकर बना है जिसका कालान्तर में मृत्यु के द्वारा अवसान होना है। हम शरीर नहीं है अपितु आत्मा है। आत्मा क्या है, यह कब व कैसे अस्तित्व में आया, इसको सुख व दुःख क्यों होते हैं, सुख व दुःख के कारण क्या हैं, दुःखों को हम दूर कैसे कर सकते हैं, मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त कर सकते हैं, जन्म व मरण से मुक्ति के क्या उपाय हैं आदि अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमें वेद और सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मिलता है। हमारा सौभाग्य है कि हमें सत्यार्थप्रकाश जैसा विश्व का सर्वोत्तम ग्रन्थ उपलब्ध है। यदि हम इसका अध्ययन नहीं करते तो हम आंखे होते हुए भी अन्धे कहे जा सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश एक प्रकार से ईश्वर व आत्मा को जानने वाली आंख के समान है। आत्मा का ज्ञान हो जाने पर हम इसकी उन्नति के उपाय कर सकते हैं। आत्मा की उन्नति अविद्या के नाश तथा विद्या की वृद्धि से होती है। यह कार्य वेदाध्ययन तथा अधिकांशतः सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से हो जाता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा चेतन सत्ता है। यह अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर, अविनाशी है। आत्मा जन्म-मरण धर्मा है। कर्म के बन्धनों के कारण मनुष्य अनेक योनियों में जन्म लेते व मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। जीवात्मा के लिये ही परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की है। ईश्वर व आत्मा का ज्ञान हो जाने तथा ईश्वर की उपासना कर उसमें सफलता प्राप्त करने अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार करने पर मनुष्य की जन्म व मरण से मुक्ति हो जाती है। इसे मोक्ष भी कहते हैं। मोक्ष में जीवात्मा बिना जन्म लिये ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भोग करता है। मोक्ष के विषय में सत्यार्थप्रकाश के नवें समुल्लास में विस्तार से वर्णन किया गया है। इसे वहां देखा जा सकता है। मोक्ष की एक शर्त यह भी होती है कि जीवात्मा को योगाभ्यास के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना होता है। ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मोक्ष में जाने का प्रवेश द्वार है। ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में होता है। यह केवल वैदिक रीति से ही किया जा सकता है। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिये मनुष्य को वैदिक धर्म और योग को अपनाना अपरिहार्य है।

 

                ईश्वर का स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव का वर्णन भी सत्यार्थप्रकाश एवं वेदों में सुलभ होता है। वेदों के अध्ययन के आधार पर ऋषि दयानन्द जी ने बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय एवं सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। ईश्वर के इस स्वरूप को जानकर वैदिक रीति से सन्ध्या वा ध्यान करने से मनुष्य दुर्गुणों से दूर होता जाता व ईश्वर के निकट होता जाता है। इससे मनुष्य का जीवन शुद्ध व पवित्र बनता है और ईश्वर के साक्षात्कार के लिये पात्र बनता है। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य को प्रातः व सायं न्यून से न्यून एक घंटा साधना व उपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे वह सन्ध्या के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ईश्वर को जानने से हमें उसका आशीर्वाद व सहाय प्राप्त होता है। अतः ईश्वर को जानना व उपासना करना हमारे लिये अत्यन्त लाभकारी है। यदि हम ईश्वर व आत्मा को नहीं जानेंगे तो हम उपासना नहीं कर पायेंगे जिससे हम आध्यात्मिक ज्ञान सहित ईश्वर के सहाय और शुभ कर्मों से दूर रहने के कारण अपने जन्म-जन्मान्तर में उन्नति के स्थान पर अवनति को प्राप्त होंगे। अतः इस हानि को दूर करने के लिये हमें ईश्वर व जीवात्मा सहित जड़ जगत को भी जानना है और इसका त्यागपूर्वक भोग करते हुए मृत्यु से पार मोक्ष में जाना है। ऐसा करेंगे तभी हमारा जीवन सफल होगा। इति ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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