“शरीर नाशवान तथा आत्मा अविनाशी व अमर हैः पं0 नरेशदत्त आर्य”

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Published on : 12 Sep, 19 06:09

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“शरीर नाशवान तथा आत्मा अविनाशी व अमर हैः पं0 नरेशदत्त आर्य”

आज प्रातः 8.00 बजे से वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून के मंत्री श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी के निवास स्थान पर आरम्भ अथर्ववेद पारायण यज्ञ की पूर्णाहुति के साथ 2 सितम्बर, 2019 से आरम्भ आयोजन निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। यज्ञ की पूर्णाहुति सहित पं0 नरेशदत्त आर्य जी की श्री कृष्ण जी के महाभारत पर आधारित जीवन चरित्र की कथा भी आज समाप्त हो गई। इस आयोजन में कुछ अन्य प्रस्तुतियां भी हुईं। यज्ञ की ब्रह्मा द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल, देहरादून की आचार्या डा0 अन्नपूर्णा जी थी। उनकी चार शिष्याओं ने यज्ञ में अथर्ववेद की संहिता पुस्तक से मन्त्रोच्चार किया। श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी सहित उनके अनेक परिवारजन यजमान बने। दून विहार कालोनी, राजपुर रोड के शर्मा जी के पड़ोसी इस यज्ञ में बड़ी संख्या में आयोजन के दसों दिन सम्मिलित होते रहे। आज आयोजन की समाप्ति पर सभी आगन्तुक लोगों के लिये विशेष प्रसाद व भोजन की व्यवस्था भी की गई थी। वैदिक साधन आश्रम के अधिकांश स्टाफ के सदस्यों सहित देहरादून आर्यसमाज से जुड़े लोग भी अथर्ववेद पारायण यज्ञ में सम्मलित होते रहे। यज्ञ की पूर्णाहुति होने पर यज्ञ की ब्रह्मा आचार्या डा0 अन्नपूर्णा जी ने यजमान श्री प्रेमप्रकाश शर्मा व उनके परिवार के सभी सदस्यों को अपनी शुभकामनायें दीं। राष्ट्रीय प्रार्थना के मन्त्र से भी यज्ञ में आहुति दी गई। डा0 अन्नपूर्णा जी ने कहा कि परमात्मा हमारे देश को दुःख दारिद्रय से रहित तथा सुख व समृद्धि से सम्पन्न राष्ट्र बनाये। हमारा राष्ट्र उन्नति व यश को प्राप्त हो तथा अपने सभी शत्रुओं पर हम व हमारा राष्ट्र विजय प्राप्त करे। हमारे देश के देशभक्त नेता और प्रधानमंत्री जी के कुशलक्षेम, स्वास्थ्य, दीर्घायु तथा सफलताओं के लिये भी यज्ञ में आहुति देने के साथ ईश्वर से प्रार्थना की गई। डा0 अन्नपूर्णा जी ने कहा कि परमात्मा हमारे सभी यजमानों को बल, बुद्धि, शक्ति व दीर्घायु प्रदान करे। हमारे यजमान अदीन तथा स्वालम्बी हों। वह जीवन में दैनिक यज्ञ करते रहंे। उन्होंने कार्यक्रम में उपस्थित सभी श्रद्धालुओं को अपना आशीर्वाद दिया। आचार्या जी ने कहा कि जो गुरुओं का आदर तथा सम्मान करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है। इस लिये सभी को अपने बड़ों का आदर व सम्मान अवश्य करना चाहिये। आचार्या जी ने आगे कहा कि हमने दस दिनों तक इस अथर्ववेद पारायण यज्ञ में तप किया है। गर्मी का मौसम था। कभी कभी वर्षा भी हो जाती थी। विद्युत जाने से पंखे आदि भी नहीं चलते थे। ऐसी स्थिति में सबने यज्ञ को पूरी श्रद्धा से सम्पादित किया है। आचार्या जी ने कहा कि इस तप का परमात्मा आप सबको सुख रूपी फल देंगे।

 

                यज्ञ की ब्रह्मा आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी के आशीर्वाद के बाद कन्या गुरुकुल की चार कन्याओं ने समवेत स्वरों में एक भजन गाया जिसके बोल थे ‘वेदों यह सार ऋषियों ने निकाला है, मनुष्य का तन एक सुन्दर यज्ञशाला है।। भाग्य से नर तन मिला है यज्ञ करने के लिये। ईश्वर के आनन्द सागर में उतरने के लिये। पथिक यहां आनन्द दुनियां से निराला है। मनुष्य का तन एक सुन्दर यज्ञशाला है।।’ इन्हीं कन्याओं ने एक और भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘जगत के रंग क्या देखूं तेरा दीदार काफी है। करूं मैं प्यार किस किस से प्रभुवर तेरा ही प्यार काफी है।।’ डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि यह ऋषि दयानन्द जी की ही देन है कि आज वेद विदुषी नारी यज्ञ की ब्रह्मा बनती है। मध्यकाल व उसके बाद नारियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। गुरुकुल की कन्याओं ने तीसरा भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘तुमने किसी पहाड़ को रोते हुए देखा है? तुमने किसी पहाड़ को पिघलते हुए देखा है? छोटी बहिन की मौत ने सबको बड़ा सताया। आंखों से अपनी एक भी आंसु नहीं बहाया। चाचा की मौत पर तो दरिया निकल गया है। तुमने किसी पहाड़ को पिघलते हुए देखा है।।’ डा. अन्नपूर्णा जी ने ऋषि दयानन्द जी के समय में स्त्रियों की दुर्दशा का चित्रण किया। उन्होंने कहा कि माताओं की स्थिति देख कर ऋषि दयानन्द रोये थे। आचार्या जी ने कहा हम ऋषि दयानन्द को कोटि कोटि नमन करते हैं।

 

                सुप्रसिद्ध भजनोपदेशक पंडित नरेशदत्त आर्य ने श्री कृष्ण कथा का समापन करते हुए एक भजन प्रस्तुत किया। भजन के बोल थे ‘भक्ति करो उसी की जिसने जगत रचाया। कण कण में जो रम रहा है फिर भी नजर न आया।।’ पंडित जी ने श्रोताओं से पूछा जी कि श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश क्यों दिया था। उन्होंने स्वयं इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया कि हम उन दिनों वेद और उपनिषदों के ज्ञान को भूलते चले जा रहे थे। इसलिये श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को वेद और योग शास्त्र के प्रमाण देकर उसका अज्ञान दूर किया था। पंडित जी ने कहा कि लोग गर्म चीज को छूकर देखते हैं कि वह गर्म है अथवा नहीं। कृष्ण जी के समय में लोग अपने मुंह बन्द करके बैठे हुए थे। कृष्ण जी ने अपने मुंह को खोलकर, उन्हें उपदेश देकर, उनके अज्ञान को दूर किया था। ऋषि दयानन्द के अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर सत्यासत्य का निर्णय हो जाता है। पंडित जी ने कहा कि जो विविध प्रकार के लोक व लोकान्तरों की रचना करता है और उन्हें प्रकाशित करता है वह ईश्वर विराट है। परमात्मा ब्रह्माण्ड के सभी अनन्त सूयों को अपने प्रकाश से प्रकाशित कर रहा है। उन्होंने कहा कि सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के 108 नाम लिखे हैं। कृष्ण जी ने उसी ईश्वर के विराट स्वरूप का अर्जुन को दर्शन कराया था।

 

                पंडित नरेशदत्त आर्य ने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘भक्तिहीन सब सुख ऐसे लवण बिना बहुव्यंजन जैसे।’ उन्होंने कहा कि भगवान की भक्ति करने का तरीका होता है। ऋषि दयानन्द ने देश के लोगों को भक्ति के उस तरीके को समझाया था। कृष्ण जी ने अर्जुन को जो समझाया, उसी का समर्थन ऋषि दयानन्द जी ने किया है। आचार्य जी ने कहा कि गुरु वह होता है जिसे हम अपने से बड़ा मानते हैं। यदि ज्ञानी अपने आप को पूर्ण मान लेता है तो उसका पतन आरम्भ हो जाता है। अपने को अपूर्ण मानने वाला व्यक्ति अपना ज्ञान बढ़ाते हुए उत्तरोत्तर अपने ज्ञान, स्वभाव व व्यवहार की उन्नति करता है। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द के कहने से अपनी पुस्तकों को नदी में बहा दिया था। कृष्ण जी ने अर्जुन को कहा कि जो उनके जैसी दिनचर्या का पालन करते हैं वही उनके भक्त हैं। श्री आर्य जी ने ऋषि दयानन्द के बरेली प्रवास का प्रकरण सुनाया। उन्होंने कहा कि महात्मा मुंशीराम जी ने अपनी युवावस्था में ही ऋषि दयानन्द से प्रभावित होकर उनकी दिनचर्या की खोज की थी। इसका वर्णन महात्मा मुंशीराम जी ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ में किया है। महात्मा मुंशीराम जी को बताया गया था कि ऋषि दयानन्द प्रातः उठकर परमात्मा का ध्यान करते हैं। उन्होंने कहा कि राम भी सन्ध्या करते थे। आप क्या करते हैं? आचार्य नरेशदत्त जी ने कहा कि हमने भगवान को अपने जैसा बना दिया है। हमें भगवान जैसा बनना था परन्तु हम उसके जैसे नहीं बने हैं। आचार्य जी ने कहा कि ईश्वर की उपासना करने से मृत्यु आदि का दुःख नहीं होता। ईश्वर को भूल जाने से ही मनुष्य मृत्यु के दुःख से त्रस्त होता है। पं0 नरेशदत्त आर्य ने कहा कि ईश्वर पर ऋषि दयानन्द की भांति पूर्ण विश्वास करने वाला व्यक्ति भक्त कहता है कि हे ईश्वर, तूने अच्छी लीला की, तेरी इच्छा पूर्ण हों।

 

                पं. नरेशदत्त आर्य जी ने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘‘जब तेरी डोली (अर्थी) निकाली जायेगी, बिन मुहुरत ही उठा ली जायेगी। औषधालय है दयानन्द का यहां निर्भयता की ओषधी पीकर जहां। मौत भी चेरी बना ली जायेगी। मेरा क्या बिगड़ेगा खाली जायेगी, जब तेरी डोली निकालेगी जायेगी।।” विद्वान वक्ता ने कहा कि जो मनुष्य अकर्मण्य है, निठल्ला है, वह मरे हुए मनुष्य के समान होता है। कृष्ण जी ने अर्जुन को उपदेश देकर विवेकहीन अर्जुन को जीवित कर दिया था। आचार्य जी ने श्रोताओं को ऋषि दयानन्द के वह शब्द स्मरण कराये जिसमें उन्होंने घोषणा की थी ‘तुम मेरे शरीर को मिटा सकते हो परन्तु मेरी आत्मा को नहीं मिटा सकते।’ नरेशदत्त जी ने कहा कि ऋषि ने जो कहा था वह सत्य कहा था। ऋषि दयानन्द ने कभी असत्य वचन नहीं कहे। पंडित नरेश दत्त जी ने कृष्ण जी के शब्द सुनाये जिसमें वह कहते हैं कि जो मनुष्य दूसरों से ईष्र्या, अभिमान, द्वेष आदि रखता है उसको ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। योगेश्वर श्री कृष्ण देश को चक्रवर्ती राज्य बनाना चाहते थे। उन्होंने कहा है कि इस कार्य में जो उनका सहयोगी है वही उनका भक्त है। पंडित जी ने बताया कि उनके पिता ने उन्हें कहा था कि तुम अपने एक पुत्र को आर्यसमाज का भजनोपदेशक अवश्य बनाना। नरेशदत्त जी ने कहा कि बच्चों के अपने संस्कार होते हैं। वह बनेंगे या नहीं, उस समय कह पाना कठिन था। इसलिये मैंने उन्हें आश्वासन दिया था कि मैं जिस व्यक्ति को भी भजनोपदेशक बनाऊंगा उसे अपने पुत्र के समान मानूंगा। पं0 नरेशदत्त आर्य ने बताया कि वर्तमान समय में उनके बनाये 10 भजनोपदेशक शिष्य आर्यसमाज को अपनी सेवायें दे रहे हैं। वह सभी उनके पुत्र के समान हैं। उनके अपने दो औरस पुत्र भी भजनोपदेशक हैं।

 

                पं0 नरेशदत्त आर्य ने कहा कि आज लोगों को मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे तथा चर्च आदि में जाते हुए डर लगता है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में सभी मतों के अनुयायी सत्य आचरण से दूर हैं। आचार्य नरेशदत्त आर्य ने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘जग में वेदों की जब तक निशानी रहे, ऋषि दयानन्द की अमर ये कहानी रहे। प्यारा ऋषिवर प्यारा ऋषिवर।।’ नरेशदत्त जी ने श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी के संकल्प एवं कार्यों की प्रशंसा की और कहा कि इन्होंने अकेले इतना बड़ा अथर्ववेद पारायण यज्ञ रचा कर एक प्रेरणादायक महान कार्य किया है। मैं भी इनकी प्रेरणा से इनके समान ऐसे कार्य करने का प्रयत्न करूंगा। इसके साथ ही उन्होंने शर्मा जी सहित यज्ञ की ब्रह्मा, सभी यजमानों एवं श्रोताओं का धन्यवाद कर अपनी वाणी को विराम दिया।

 

                मुख्य यजमान श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने भी श्रोताओं को सम्बोधित किया। उन्होंने अथर्ववेद यज्ञ तथा कृष्ण जी की कथा के निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिये ईश्वर सहित यज्ञ की ब्रह्मा डा0 अन्नपूर्णा जी, उनकी शिष्याओं, सहित पं. नरेशदत्त आर्य एवं उनके दो सहयोगियों का धन्यवाद किया। उन्होंने कहा कि पंडित नरेशदत्त आर्य ने श्री कृष्ण जी के चरित्र को ऋषि दयानन्द जी के चरित्र के साथ जोड़कर प्रस्तुत करके एक महनीय कार्य किया है। शर्मा जी ने कहा कि दयानन्द जी शायद कृष्ण जी से भी आगे थे। दयानन्द जी बाल ब्रह्मचारी थे तथा उन्हें विरोधियों के द्वारा 17 बार विषपान कराया गया था। स्वामी दयानन्द ने बहुत ही विपरीत समय में देश का मार्गदर्शन किया और वैदिक धर्म एवं संस्कृति की विधर्मियों से रक्षा की। हम ऋषि दयानन्द के ऋणी हैं। हमारी मातायें एवं बेटियां पुरुषों के बराबर काम कर रही हैं। शर्मा जी ने अपने परिवार के सदस्यों का भी उनके इस धर्मयुक्त कार्य में सहयोग करने के लिये धन्यवाद किया। उन्होंने कहा कि हमने जो यह यज्ञ एवं कथा का आयोजन कराया है, इसमें हमारा अपना कुछ नहीं है। हमने जो कुछ किया है वह हमें ईश्वर का प्रदान किया हुआ था। ईश्वर ने ही यज्ञ की सब वस्तुयें बनाई हैं। यदि वह न बनाता तो हम यज्ञ न कर पाते। उन्होंने ईश्वर का कोटि कोटि धन्यवाद किया। शर्मा जी प्रत्येक दिन अपने निवास पर 8.00 बजे प्रातः यज्ञ करते हैं। उन्होंने सभी कालोनी निवासियों को अपने निवास पर यज्ञ में आमंत्रित किया। उन्होंने कहा कि यदि आप संकेत करेंगे तो हम आपको यज्ञ करना भी सिखायेंगे। हम आपके घर पर आकर यज्ञ की सभी वस्तुयें स्वयं लाकर भी यज्ञ कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि घर-घर में यज्ञ होने चाहियें। इससे लोग बीमार नहीं होंगे। शर्मा जी ने कहा कि सभी मत व पन्थ के लोग हमारे बन्धु हैं। उन्होंने कहा कि जिसको जैसी शिक्षा दी जाती है वह व्यक्ति वैसा ही बनता है। शर्मा जी व उनके परिवार के सदस्यों पुत्री, दामाद, दौहित्रों ने पंडित नरेशदत्त आर्य व उनके दो सहयोगियों को दक्षिणा व वस्त्र आदि देकर सम्मानित किया। इसी प्रकार यज्ञ की ब्रह्मा डा0 अन्नपूर्णा जी और उनकी चार शिष्याओं को भी दक्षिणा एवं वस्त्र आदि से युक्त एक-एक बैग देकर सम्मनित किया गया।

 

                डा0 अन्नपूर्णा जी ने कहा कि हमारे ग्रन्थों रामायण, महाभारत एवं मनुस्मृति आदि में हमारे ही लोगों ने मिलावट की है परन्तु वेद इससे सर्वथा बचे रहे हैं। ऐसा हमारे ऋषियों व पूर्वजों के प्रयासों से सम्भव हो सका है। उन्होंने कहा कि गुरुकुलों के कारण हमारे वेद सुरक्षित हैं। वहां उपस्थित एक शिष्या के बारे में उन्होंने कहा कि इसे पूरा सामवेद कण्ठ अर्थात् स्मरण है। उन्होंने यह भी बताया कि उनके गुरुकुल की तीन छात्राओं को एक-एक वेद कण्ठ है। गुरुकुलों के जिन छात्र व छात्राओं के द्वारा वेद कण्ठ किये गये हैं उनसे वेदों की रक्षा होती है। यदि कोई हमारे वेदों की पुस्तकों को नष्ट भी कर दे तब भी इन कण्ठ किये हुए गुरुकुल के छात्र-छात्रायें उन्हें लिखकर वेदों को पुनः प्रकाशित कर सकते हैं। मंच पर उपस्थित गुरुकुल की छात्राओं ने ऋग्वेद के एक मन्त्र का सस्वर पाठ सुनाया जिसे सुनकर सभी श्रोता मन्त्र मुग्ध हो गये। इसको हमने अपने मोबाइल में वीडियों बनाकर रिकार्ड भी किया है जिसे हम अपने मित्रों से फेस बुक पर शेयर कर रहे हैं। आचार्या जी ने कहा कि आर्यसमाज से इतर वेद, धर्म व संस्कृति की रक्षा करने वाला देश में कौन है? इसका उत्तर है कि कोई नहीं है। उन्होंने श्रोताओं का आह्वान किया कि आप गुरुकुलों की रक्षा करो जिससे वेद और वैदिक धर्म की रक्षा हो सकती है। आचार्या जी ने कहा कि टीवी देखने से संस्कार बिगड़ता है और आंखे भी खराब होती है। आचार्या जी ने बताया कि हमारे गुरुकुल के बच्चों के खेल अन्य बच्चों से भिन्न हैं। हमारे बच्चे अष्टाध्यायी तथा वेद मन्त्रों की अन्ताक्षरी खेलती हैं। उन्होंने अपनी चार छात्राओं से वेद मन्त्रों से अन्ताक्षरी का सजीव प्रस्तुतिकरण भी कराया जिसे देखकर सभी श्रोता मन्त्रमुग्ध हुए।

 

                वैदिक साधन आश्रम तपोवन के पुरोहित पं0 सूरत राम जी ने भी श्रोताओं को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि मनुष्य का शरीर एक पवित्र यज्ञशाला है। उन्होंने कहा कि यह बात सत्य है कि हमारा शरीर एक यज्ञशाला ही है। आचार्य जी ने एक वेदमन्त्र का उच्चारण किया। उन्होंने कहा कि परमात्मा ने सभी मनुष्यों के शरीरों में सात ऋषि स्थापित किये हैं। मनुष्य का शरीर ईश्वर की अद्भुद रचना है। उन्होंने कहा कि जहां देव न हो वहां यज्ञ हो ही नहीं सकता। हमारे शरीर रूपी यज्ञशाला में सात ऋषि हैं जो इसे चला रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां तथा पांच कर्मेन्द्रियां हैं। हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां पांच देव हैं। प्राण व आत्मा को मिलाकर यह सात देव हो जाते हैं। यह सात देव बिना प्रमाद किये हमारे शरीर रूपी यज्ञशाला की रक्षा कर रहे हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियां हमें सांसारिक ज्ञान की उपलब्धि कराती हैं। यह पांच देव आत्मा के सहायक बन कर उसे ज्ञान प्रदान करते हैं। शरीर में आत्मा सात देवों में सबसे बड़ा देव है। यदि ज्ञानेन्द्रियां आत्मा को ज्ञान न करायें तो आत्मा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती। पं0 सूरत राम जी ने कहा कि मनुष्य की आंखों में बड़े-2 पर्वत, झीले और सागर समा जाते हैं। यह चक्षु हमारी आत्मा को दृश्य का ज्ञान पहुंचाता है। पंडित सूरत राम जी षडरसों की चर्चा की। मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त आदि 6 रस होते हैं। हम जो भोजन करते हैं उनमें यह 6 रस होते हैं। रसना इन्द्रिय देव है। रसों की अनुभूति रसना देवता आत्मा को कराता है। पंडित जी ने आगे कहा कि गन्ध भी सुगन्ध व दुर्गन्ध भेद से दो प्रकार की होती है। हमारी नासिका भी एक देव है जो सुगन्ध व दुर्गन्ध का ज्ञान आत्मा को कराती है। आचार्य सूरत राम जी ने स्पर्श इन्द्रिय की चर्चा की और इसके महत्व पर प्रकाश डाला।

 

                पं. सूरत राम जी ने कहा कि हमारे श्रोत्र भी देव हंै जो हमें शब्द का ज्ञान कराते हैं। यदि परमात्मा ने हमारी शरीर रूपी यज्ञशाला को श्रोत्र न दिये होते तो हम प्रवचन, गीत तथा भजन आदि कुछ भी न सुन पाते। उन्होंने कहा कि इन सभी इन्द्रियों का महत्व है। सब छः देवों का स्वामी आत्मा है। आचार्य जी ने शरीर की तीन अवस्थाओं जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति की चर्चा की और इन पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि निद्रा व सुषुप्ति अवस्था में भी हमारे कान और प्राण काम करते रहते हैं। हमें सोते हुए भी सुख की अनुभूति होती है इसीलिये जागने पर हम कहते हैं कि मुझे अच्छी नींद आयी। पं0 सूरत राम जी ने कहा कि यह सात ऋषि हमारे शरीर को चलाते हैं। यह कहकर उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया। इसके बाद वैदिक साधन आश्रम तपोवन से पधारे 88 वर्षीय साधक श्री ज्ञान चन्द जी ने कुछ कविता की पंक्तियों के माध्यम से जीवन विषयक उत्तम सन्देश दिये। उन्होंने कहा कि जो जलती रहे उसे आग कहते हैं। जब वह बुझ जाये तो उसे राख या खाक कहते हैं। जो अज्ञान के अन्धकार को मिटा दे उसे आर्यसमाज कहते हैं। इसके बाद श्री सत्यप्रिय जी साधक ने एक भजन सुनाया। आर्य पुरोहित पं0 वेदवसु जी का अथर्ववेद के एक मन्त्र पर व्याख्यान हुआ। यज्ञ की ब्रह्मा डा0 अन्नपूर्णा जी ने भी अपने आशीवर्चन कहे। शान्तिपाठ के साथ अथर्ववेद पारायण यज्ञ एवं श्री कृष्ण जी की कथा का समापन हुआ। इसके बाद सभी श्रोताओं ने विशेष भोजन का आनन्द लिया। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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