“ऋषि दयानन्द का आर्यसमाज में धर्मोन्नति विषय पर एक उपदेश का सार”

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Published on : 09 Sep, 19 07:09

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“ऋषि दयानन्द का आर्यसमाज में धर्मोन्नति विषय पर एक उपदेश का सार”

ऋषि दयानन्द ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई के काकड़वाड़ी मुहल्ले वा स्थान पर प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की थी। जनवरी 1882 से जून 1882 के मध्य ऋषि दयानन्द के आर्यसमाज के साप्ताहिक अधिवेशनों में उपदेश हुए थे जिनका सारांश एक कार्यवाही रजिस्टर में लिखा गया था। पं0 युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस रजिस्टर को प्राप्त कर इस रजिस्टर में लिखे हुए ऋषि दयानन्द के उपदेशों को अपने सम्पादकीय सहित वेदवाणी मासिक पत्रिका सहित पृथक से भी प्रकाशित किया था। इसके साथ ऋषि जीवन विषयक कुछ अन्य महत्वपूर्ण सामग्री को भी पुस्तक में प्रकाशित किया था। इसी कार्यवाही रजिस्टर से ही हम आज ऋषि दयानन्द के एक उपदेश की जानकारी को रजिस्टर के अनुसार दे रहे हैं। यह उपदेश आर्यसमाज में 6 जनवरी 1882 ई0 को हुआ था। इस उपदेश को प्रस्तुत करने से पूर्व हम इस सामग्री विषयक पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी कुछ पंक्तियां भी प्रस्तुत कर रहे हैं। पं0 मीमांसक जी लिखते हैं कि आज से लगभग 16-17 वर्ष पूर्व आर्यसमाज काकड़वाड़ी, बम्बई के पुरोहित एवं आचार्य स्व0 श्री पं0 ऋषिमित्र जी ने मुझे लिखा था कि ‘मुझे आर्यसमाज की रद्दी में से आर्यसमाज के साप्ताहिक अधिवेशनों की कार्यवाही का एक रजिस्टर मिला है, उस में ऋषि दयानन्द के व्याख्यानों का सार संगृहीत है।’ मीमांसक जी उसी समय से इस कार्यवाही को देखने की उत्कण्ठा रही, परन्तु कुछ समय तक वह बम्बई न जा सके और कुछ वर्षों के अनन्तर श्री पं0 ऋषिमित्र जी का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् बहुत वर्षों तक वह रजिस्टर गुम सा रहा और अन्त में आर्यसमाज को प्राप्त हुआ।

 

                जनवरी 1981 में पं0 युधिष्ठिर मीमांसक जी को बम्बई जाना पड़ा। विशेष कारणवश वह 3 दिन आर्यसमाज काकड़वाड़ी में ठहरे। इसी समय अपने मित्र श्री पं0 दयाशंकर जी वेदोपदेशक, जो इसी आर्यसमाज से सम्बद्ध थे, से आर्यसमाज की उक्त कार्यवाही के रजिस्टर की बात की। उन्होंने कहा कि वह रजिस्टर इस समय आर्यसमाज में विद्यमान है। उन्होंने श्री माननीय मन्त्री जी से कह कर उसे दिखाने की व्यवस्था कर दी। उसे पढ़कर मीमांसक जी को प्रबल इच्छा हुई कि ऋषि दयानन्द के बम्बई-निवास काल के समय की साप्ताहिक अधिवेशनों की कार्यवाही को प्राप्त करके उसमें ऋषि के उपदेशों के जो सारांश संगृहीत हैं, उन्हें बम्बई-प्रवचन के नाम से प्रकाशित कर देना चाहिये, अन्यथा इस रजिस्टर में लिखे अमूल्य विचार नष्ट हो जायेंगे। इसके अनुसार मीमांसक जी ने ‘ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से संबद्ध महत्वपूर्ण अभिलेख’ नामक एक पुस्तक का प्रकाशन किया। इस पुस्तक में ऋषि दयानन्द विषयक महत्वपूर्ण सामग्री 11 शीषकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है। वेदवाणी के आकार की इस पुस्तक की कुल पृष्ठ संख्या 140 है। पुस्तक का मूल्य प्रकाशन के समय 8 रुपये था जिसे बाद में संशोधित कर 10 रुपये किया गया था।

 

                ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज काकड़वाड़ी में 8 जनवरी 1882 ईसवी को जो उपदेश दिया था, उसका आर्यसमाज के कार्यवाही रजिस्टर में वर्णन किया गया है। पौष शुक्ल पक्ष 12, रविवार, सं0 1938, ता0 1 जनवरी 1882 ईसवी। इस दिन नियमानुसार इस समाज की सभा साढ़े पांच बजे इसी स्थान पर हुई थी। सर्वप्रथम नियमानुसार परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना की गई। तत्पश्चात् गायक ने स्तुति-गायन किया। तदनन्तर समाचार पत्र में दी गई सूचना अनुसार जगत्-प्रसिद्ध पण्डित दयानन्द सरस्वती स्वामीजी (आर्यसमाज के संस्थापक), जो कृपापूर्वक बम्बई नगरी में पधारे हैं, उन्होंने समाज को पवित्र कर ‘‘धर्मोन्नति” विषय पर सरस, मनोवेधक भाषण दिया। इस भाषण का प्रत्येक शब्द लिखने योग्य था, परन्तु हम लोगों में से कोई शार्टहैंड से लिखनेवाला न होने के कारण यह लाभ नहीं मिल रहा है और इस अमूल्य भाषण की सुगन्ध सबको प्राप्त नहीं हो रही है। स्वामी जी ने धर्माधर्म के विषय में, लोगों को किस प्रकार विवेक पूर्वक विचार करना चाहिये, यह अपने भाषण में भली भांति स्पष्ट किया था। साथ ही भारतवर्ष में धर्म सम्बन्धी महद् विचार में लोग कितने पिछड़े हुए हैं, मतवादी लोगों ने स्वार्थवश धर्म के नाम पर जाल फैलाकर जनता को किस प्रकार नष्ट भ्रष्ट कर दिया है, उसे सत्वहीन बनाकर अज्ञान की स्थिति में कैसे पहुंचा दिया है। इत्यादि के सम्बन्ध में स्वामी जी ने विवेचन करके इनका वास्तविक चित्र श्रोताओं के हृदय पर अत्यन्त उत्तम प्रभाव पड़ा हुआ दिखाई दे रहा था। भाषण के मुद्दे अत्यन्त ध्यान देने योग्य तथा मनन करने योग्य थे। इस देश में ऐसे विचार परिप्लुत भाषण प्रत्येक स्थान पर होने की आवश्यकता प्रतीत होती है। धर्माधर्म सम्बन्धी विचार किये बिना लोग सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकते, न उनमें पारस्परिक प्रेम ही स्थापित हो सकता है। इसके बिना इस देश की उन्नति होने की आशा अथवा सम्भावना भी नहीं है। इस प्रकार के अनेक पुरुष अपने देश में उत्पन्न हों और उनके द्वारा सदुपदेश प्राप्त हों, इसके लिए सर्वशक्तिमान् परम दयालु परमात्मा की सच्चे अन्तःकरण से प्रार्थना करनी चाहिये। यह भाषण पूर्ण होने के पश्चात गायक ने नियमानुसार पुनः प्रार्थना-गायन किया। तत्पश्चात् साढ़े बात बजे सभा विसर्जित हुई।

 

                इस कार्यवाही रजिस्टर में उपलब्ध 23 उपदेशों के सारांश मीमांसक जी की पुस्तक में संग्रहीत हंै। हमें अवसर मिला तो हम किसी अन्य किसी किंचित विस्तृत उपदेश को भी लेखरूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। पं0 मीमांसक जी ने अपने जीवन काल में ऋषि दयानन्द के जीवन विषयक सामग्री के संग्रह एवं प्रकाशन का जो अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया वह प्रशंसनीय एवं वन्दनीय है। सम्पूर्ण आर्यजगत इन कार्यों के लिए उनका ऋणी है। ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों को भी पं0 मीमांसक जी ने चार भागों में प्रकाशित किया था। इसका लाभ उठाकर परोपकारिणी सभा ने दो खण्डों में ऋषि दयानन्द के पत्रों का प्रकाशित कुछ वर्ष पूर्व किया है। ऋषि दयानन्द के सभी प्रमुख ग्रन्थों पर मीमांसक जी ने सटिप्पण संस्करण प्रकाशित किये जिनका स्वाध्यायशील पाठकों के लिये अत्यन्त महत्व है। आपने दयानन्दीय लघुग्रन्थ संग्रह का भी एक विशालकाय संस्करण सम्पादित कर प्रकाशित किया था। ऋषि दयानन्द के शास्त्रार्थ एवं उपदेशों का भी एक संग्रह प्रकाशित हुआ जो पुराने पाठकों के संग्रहों में सुलभ है। अन्य अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी ऋषिभक्त मीमांसक जी ने लिखे हैं। हमारा सौभाग्य रहा कि हमें कई बार पं0 मीमासंक जी के साक्षात् दर्शन करने का अवसर मिला। हमने उनसे पत्रव्यवहार भी किया और उन्होंने उत्तर भी दिये थे। आर्यसमाज में अनेक विद्वानों ने समय-समय इतना साहित्य सृजन किया है कि उनका प्रकाशन एवं संग्रहएक कठिन कार्य है। यदि इस समस्त साहित्य को पीडीएफ रूप में कोई सभा संग्रहित कर ले तो यह आर्यसमाज की महत्वपूर्ण सेवा होने सहित वर्तमान समय की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी।

 

                हमने इस लेख में जो सामग्री प्रस्तुत की है, पाठक उसको पसन्द करेंगे, ऐसी आशा हम करते हैं। ओ३म् शम्।

                -मनमोहन कुमार आर्य

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