कृष्ण भक्त कोटा राज्य के शासक महाराव भीमसिंह प्रथम

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Published on : 24 Aug, 19 07:08

फ़िरोज़ अहमद इतिहासविद ने जैसा डॉ. प्रभात कुमार सिंघल को बताया

 कृष्ण भक्त कोटा राज्य के शासक महाराव भीमसिंह प्रथम

 महाराव भीमसिंह ने प्रथम ईसवी सन (1707 से 1720) तक कोटा राज्य पर शासन किया था। यह राव रामसिंह प्रथम के निधन के पश्चात कोटा की राजगद्दी पर बैठे थे। जब महाराव भीमसिंह कोटा राज्य के शासक बने उस समय मुग़ल दरबार में बहुत उथल-पुथल मची हुई थी। मुग़ल बादशाह औरंगजेब की 3 मार्च 1707 ईस्वी में मृत्यु हो गई थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में राजगद्दी के लिए युद्ध छिड़ गए थे जिसमें औरंगजेब के बड़े पुत्र शहज़ादा मोअज़्ज़म को गद्दी हासिल करने में सफलता मिली थी ‌।मोअज़्ज़म और आज़म के बीच धौलपुर और आगरा के बीच जाजव नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ था। इस युद्ध में कोटा राज्य के शासक राव राम सिंह हाडा ने औरंगजेब के छोटे पुत्र आज़म का पक्ष लेकर युद्ध किया था जिसमें आज़म भी मारा गया था और राव राम सिंह ने भी वीरगति पाई थी। आज़म को हराने के पश्चात मोअज़्ज़म  बहादुर शाह प्रथम के नाम से दिल्ली के तख्त पर 1707 ई०में बैठा था। इस समय बूंदी राज्य के शासक राव राजा बुधसिंह थे जो मुअज्जम (बहादुर शाह प्रथम) के कृपा पात्र थे। इन्होंने जाजव के युद्ध में मोअज़्ज़म बड़े भाई का पक्ष ग्रहण किया था। यहीं से बूंदी और कोटा राज्य में मतभेद उत्पन्न हुए थे। जब बहादुर शाह दिल्ली के तख्त पर बैठा तो उसे यह पता नहीं था कि राव राम सिंह हाडा के कोई पुत्र है।इसलिए उसने बूंदी राज्य के शासक बुध सिंह को कोटा राज्य को बूंदी में मिलाने की स्वीकृति दे दी थी बूंदी वालों ने दो बार कोटा को जीतने की कोशिश की परंतु वह सफल नहीं हुए महाराव भीमसिंह प्रथम ने बूंदी वालों को करारी शिकस्त दी थी उधर दिल्ली पर बहादुर शाह प्रथम 5 वर्ष यानी कि 1707 से 1712 तक राज्य करने के पश्चात मर गया उसके पश्चात बहादुर शाह का पुत्र जहां दार दिल्ली की गद्दी पर बैठा इसने कुछ ही महीनों दिल्ली पर शासन किया परंतु इसके भतीजे फर्रुख सियार ने सैयद बंधुओं की मदद से जहांदारशाह को युद्ध में मारकर दिल्ली के तख्त पर अधिकार किया था। सैयद बंधुओं का इसी समय मुग़ल दरबार में पदार्पण हुआ था यह दोनों भाई कुशल योद्धा और कूटनीतिज्ञ थे जब फर्रुख सियार ने दिल्ली के तख्त पर कब्ज़ा किया तब सैयद बंधुओं ने ही उसको सहायता देकर गद्दी पर बैठाया था सैयद बंधुओं ने जब फर्रूखसियार को गद्दी पर बैठा दिया तब इसने सैयद बंधुओं के बड़े भाई अब्दुल्लाह ख़ान उर्फ हसन को अपना वज़ीर और छोटे भाई हुसैन अली को दक्षिण का सूबेदार बना दिया। इन दोनों भाइयों का प्रभाव दिनों-दिन मुग़ल दरबार में बढ़ता गया और यह 'किंग मेकर' कहलाने लगे थे।

यहीं से कोटा राज्य के शासक महाराव भीमसिंह प्रथम की उपलब्धियों का सिलसिला शुरू हुआ था। महाराव भीमसिंह ने स्थिति का लाभ उठाने के लिए फर्रूखसियार को गद्दी पर बैठाने के लिए समय सैयद बंधुओं को पूरा पूरा सहयोग दिया था। इस कारण उनकी मुग़ल दरबार में काफी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी बादशाह फर्रूखसियार से द्वारा उनको पांच हज़ारी मनसब प्रदान किया गया था तथा माही मरातिब भी इनको अता की गई थी। तथा बूंदी का पठार अर्थात मांडलगढ़ से बूंदी तक के इलाके और खींचीवाड़े  तथा उमटवाड़े का उनको पट्टा दिया गया था। इसी समय उनको गागरोन का किला भी सुपुर्द किया था। बादशाह फर्रुख सियार  ने महाराव भीमसिंह को बूंदी जीत लेने की इजाजत दे दी थी। उन्होंने दो बार बूंदी पर चढ़ाई की थी‌।सन 1713 ईस्वी में वे बूंदी जीतकर वहां का राजकोष, कपड़े जेवर, बर्तन, नक्कारे, केसरिया निशान जो बादशाह जहांगीर ने पूर्व वर्षों में बूंदी के शासक राव रतन को प्रदान किए थे। दूसरी चढ़ाई बूंदी पर भीम सिंह जी ने सन 1719 ईस्वी में की थी उस समय उन्होंने बूंदी में कोई राजसी चिन्ह नहीं छोड़ा था वह बूंदी से वहां के महल का छत्र उतरवाकर कोटा ले आए थे जो कोटा के राज महल के ऊपर लगाया गया था। धूलधाणी और कड़क बिजली तोपे बूंदी की जनानी ड्योढ़ी के किवाड़ जो बोलसरी कोटा की ड्योढ़ी पर लगाए गए और तोपें कोटा के कोर्ट पर स्थापित की गई। बूंदी राज महल के दरवाजे के दो पत्थर के हाथियों की विशाल मूर्तियां कोटा लाकर गढ़ के हाथिया पोल दरवाज़े पर लगाई गईं। बूंदी राज्य में विजय की दुहाई फेर कर वहां कोटा की ओर से प्रतिनिधि के रूप में धा भाई भगवान दास को नियुक्त किया था। मुग़ल दरबार में सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त होने के पश्चात महाराव भीमसिंह ने अपनी शक्ति के बल पर कोटा राज्य के आसपास की छोटी रियासतों पर अधिकार किया था। उन्होंने शिवपुर बड़ौदे पर जहां गौड़ राजपूतों का शासन था मनोहर थाना विजय जहां चक्रसेन भील का शासन था।उमट वाड़ा की विजय और शाहाबाद को विजय कर कोटा राज्य का विस्तार किया था।

 महाराव भीमसिंह कृष्ण के अनन्य भक्त

                 महाराव भीमसिंह प्रथम धार्मिक प्रवृत्ति के शासक थे। वह कृष्ण के अनन्य भक्त थे उन्होंने गोसाई जी से वल्लभ मत की परंपरा के अनुसार वल्लभ मत की दीक्षा ग्रहण की थी‌। वह मंदिरों के लिए भूमि दान करने में भी अग्रणी थे उन्होंने कोटा के गढ़ में बृजनाथ जी का मंदिर बनवाया था‌। बांरा में सांवला जी का मंदिर निर्मित करवाया था। कोटा के गढ़ में कृष्ण महल, बारहदरी, भीम विलास, कृष्ण भंडार, सलेह खाने के महल बनवाये थे।

 महाराव भीमसिंह कृष्ण भक्त होने के साथ-साथ अन्य धर्मों के प्रति भी काफी उदार थे वह एक बार वराह प्रतिमा के दर्शन करने डिग्गी भी गए थे। मंदिरों में तेल भोग के लिए भी दान करते थे महाराव भीमसिंह कोटा राज्य के शासकों में महाराव की पदवी पाने वाले प्रथम शासक थे जिनको मुगल बादशाह द्वारा महाराव की पदवी से सम्मानित किया गया था इनके पूर्व शासकों के नाम के आगे राव की पदवी थी शुरु शुरु में तो बादशाह फर्रूखसियार से भीम सिंह के संबंध अच्छे बने रहे परंतु बाद में जब आमेर के सवाई जयसिंह के कहने पर बादशाह फ़र्रूखसियार सियार ने बूंदी के शासक बुद्ध सिंह को बारां और मऊ के परगने लौटा दिए तो इससे भी उनके संबंध फर्रूखसियार से ख़राब हो गए और सैयद बंधुओं को भी फर्रूखसियार के षड्यंत्रों का पता लग चुका था कि वह सैयद बंधुओं को मरवाना चाहता है ऐसी स्थिति में सैयद हुसैन अली ने फर्रूखसियार को गद्दी से हटाने की योजना बनाई और उसकी हत्या का षड्यंत्र भी रचा गया। इस षड्यंत्र में उसने अपने साथ जोधपुर के राजा अजीत सिंह किशनगढ़ के राजसिंह और कोटा के भीमसिंह को भी शामिल किया परंतु योजना को अंजाम देने के पूर्व सैयद हुसैन अली ने देखा कि बूंदी के शासक राव राजा बुद्धसिंह और जयसिंह आमेर उसके षड्यंत्र को विफल कर सकते हैं इसलिए उसने बुद्धसिंह को जो दिल्ली में ही थे उनके डेरे पर हमला करवाया जिसमें बुद्धसिंह के कई वीर मारे गए बुद्धसिंह युक्ति से लाहोरी दरवाज़े से निकल कर भाग गए इसके बाद सैयद बंधु ने बादशाह फ़र्रूखसियार को जो महल में छुपा हुआ था पकड़ कर बाहर निकाला उसकी आंखें फोड़ दी गई और बाद में हत्या कर दी गई। इसके पश्चात सैयद बंधुओं ने बहादुर शाह प्रथम के पुत्र बेदार दिल को रफ़ीउद्दरजात के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठाया‌। परंतु रफ़ीउद्दरजात  ने 4 माह बाद गद्दी छोड़ दी। इसके बाद दूसरे पौत्र रफीउद दौला को गद्दी पर बैठाया यह क्षय रोगी था। इसलिए सितंबर 1719 में मर गया। इसके बाद बहादुर शाह के अन्य पुत्र मोहम्मद शाह को दिल्ली के तख्त पर बैठाया गया यही मोहम्मद शाह भारतीय मुग़ल इतिहास में 'मोहम्मद शाह रंगीला' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह बड़ा चालाक था इसको तख्त पर तो सैयद बंधुओं ने बैठाया था परंतु इसी ने आगे चलकर दोनों सय्यद बंधुओं को मरवा डाला और उनसे मुक्ति पाई परंतु इसके बाद मुग़ल शासन में ढिलाई प्रारंभ हो गई जगह-जगह विद्रोह होने लग गए दक्षिण का सूबेदार चिन कुलिच खां (निजामुल् मुल्क) स्वतंत्र शासक बनने की चेष्टा करने लगा बाद के वर्षों में यही निजाम हैदराबाद बना।

जब  सात्विक भाव जागा 

           बादशाह फर्रुख सियार की हत्या के पश्चात जब कोटा के महाराव भीमसिंह दिल्ली से कोटा आ रहे थे तो उन्होंने रास्ते में मथुरा में यमुना स्नान किया यहीं पर उनके मन में सात्विक भाव जागा और वह भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में रम गए उन्होंने अपने राज्य कोटा को भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया।उन्होंने अपना नाम भी कृष्णदास रख लिया और कोटा राज्य के अधिकारियों को आदेश दिया कि वह सभी सरकारी आदेशों पर जय गोपाल की सील लगावें। उन्होंने कोटा का नाम भी नंद ग्राम कर दिया था उस समय की सील का एक लिफाफा आज भी कोटा के प्रसिद्ध डाक टिकट संग्रहकर्ता श्री नरेंद्र जैरथ के पास मौजूद है जब महाराव भीमसिंह मथुरा में कृष्ण भक्ति में लीन थे तभी उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुएबूंदी के शासक बुध सिंह के सेनापति सालिम सिंह ने कोटा को जीतने के लिए चढ़ाई कर दी इससे नगर में भय व्याप्त हो गया जैसे तैसे कोटा के मंत्रियों और अहलकारों ने इसकी सूचना महाराव भीमसिंह तक पहुंचाई समाचार मिलते ही महाराव भीमसिंह बिना समय गवाए मथुरा से द्रुतगति से कोटा के लिए रवाना हुए। जब सालिम सिंह को पता चला कि महाराव भीमसिंह कोटा आ रहे हैं तो अपनी फौज का घेरा उठाकर भागने लगा परंतु महाराव भीमसिंह ने उसका बूंदी तक पीछा किया और पुन: बूंदी विजय कर वहां अपने नाम की दुहाई फिरवाई और अपना प्रतिनिधि वहां नियुक्त कर कोटा लौटे उनके जीवित रहने तक बूंदी पर उनका अधिकार रहा था।

महाराव भीमसिंह की वीरगति

      बादशाह फ़र्रुख सियार की हत्या के पश्चात भी सैयद बंधु निश्चिंत नहीं हुए थे। चिनकुलिच खां ( निज़ाम) जो फर्रूखसियार के शासन के समय दक्षिण का सूबेदार बनाया गया था वह वहां सैयद बंधुओं के विरुद्ध अपनी शक्ति बढ़ा रहा था। उसने वहां अच्छी व्यवस्था बनाकर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था जब इसका पता सैयद बंधुओं को लगा तो उन्होंने उसको दक्षिण की सूबेदारी से हटाकर पहले मुरादाबाद, बाद में मालवा का सूबेदार बना दिया। इससे वह सैयद बंधुओं का विरोधी हो गया और सैयदों  के विरुद्ध सैनिक तैयारी करने लगा। अतः सैयदों ने निज़ाम को अपने रास्ते से हटाने तथा उसे पराजित करने की योजना बनाई उन्होंने दिलावर खां कोटा के भीम सिंह के नेतृत्व में एक बड़ी मुग़ल फौज निज़ामुल्मुल्क पर चढ़ाई करने हेतु मालवा रवाना की इस समय सैयद बंधुओं ने विजय प्राप्ति के पश्चात महाराव भीमसिंह को सात हजारी मनसब तथा माही मरातिब देने का लालच भी दिया परंतु युद्ध टला नहीं। निजाम असीरगढ़ और बुरहानपुर के क़िलों पर पहले ही कब्जा कर चुका था। और वह अब युद्ध करके ही निर्णय करना चाहता था‌ इस समय निज़ाम ने युद्ध से पहले महाराव भीमसिंह कोटा को समझाया कि आप मेरे पगड़ी बदल भाई हैं इसलिए आप आमेर के जयसिंहऔर सैयदों के कहने पर मुझसे युद्ध ना करें यह आपस में लड़ा कर आप को नष्ट करना चाहते हैं। परंतु महाराव भीमसिंह ने क्षत्रिय धर्म तथा अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निज़ाम को पत्र लिखा कि कल हम तुम पर हमला करेंगे।  बुरहानपुर के पास पुरवाई गांव के मैदान में युद्ध प्रारंभ हुआ निज़ाम ने झाड़ियों के पीछे तोपें छिपाकर मोर्चा बांधा। महाराव भीमसिंह जैसे ही हाथी पर बैठकर अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़े प्रातः काल का समय था निज़ाम की तोप का एक गोला महाराव भीमसिंह को लगा महाराव भीमसिंह ने तोप  के गोले से 19 जून 1720 ईस्वी को वीरगति पाई। इस युद्ध में निज़ाम विजयी रहा। पुरवाई के इस युद्ध में नरवर के राजा गजसिंह और दिलावर ख़ां भी मारे गए।

 एक कुशल योद्धा के रूप में 

          महाराव भीमसिंह एक वीर साहसी और धैर्यवान शासक थे ।उनके शरीर पर कई युद्धों में भाग लेने के कारण घाव के कई निशान थे। कुरवाई के युद्ध में वीरगति के पश्चात लोग उनके घावों को देखकर आश्चर्यचकित हो गए थे। महाराव भीमसिंह ने अधिकांश युद्ध हाथी पर बैठकर किए थे वह युद्ध के समय हाथी के ओहदे पर अपने सामने भगवान बृजनाथ की प्रतिमा को रखते थे। कुरवाई के युद्ध के दौरान बृजनाथ जी की प्रतिमा युद्ध के मैदान में गिर गई थी और निज़ाम के पास पहुंच गई थी निज़ाम ने उसे संभाल कर रखा बाद में हैदराबाद के एक सेठ ने निज़ाम से वह प्रतिमा प्राप्त कर एक मंदिर बनवाकर उस में स्थापित कर दी थी। जिसे बाद में महाराव दुर्जन शाल सिंह ई० सन (17 023 से 1756) के शासनकाल में यह कोटा मंगवाई गई और पुन: बृजनाथ जी के मंदिर में स्थापित की गई जो वर्तमान में मौजूद है ‌।


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