शहर के ऐतिहासिक तपोभूमि लालीवाव मठ में गुरुपूर्णिमा महोत्सव के तहत प.पू. महामण्डलेश्वर हरिओमदासजी महाराज के सानिध्य में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के चौथे दिन शुक्रवार को पहले व्यासपीठ का पूजन और आरती हुई । श्रीमद् भागवत भगवान की आरती पापियों को पाप से है तारती.... । जैसे ही यह आरती शुरु हुई पण्डाल में उपस्थित श्रद्धालु अपने अपने स्थान पर खड़े होकर गाने लगे । कथा के आंरभ में सुभाष अग्रवाल, महेश राणा, गोपाल भाई, सियारामदासजी महाराज, दीपक तेली, डॉ. बंगाली, विनोद तेली, आदि द्वारा व्यासपीठ पर माल्यार्पण किया गया । इसके बाद बाल व्यास पण्डित अनिल कृष्णजी महाराज ने जोर से बोलना पड़ेगा.... राधे-राधे.... चतुर्थ दिन कथा शुरु की ।
साधु के आशीर्वाद से यशोदा को मिला मातृत्व सुख-पण्डित अनिल कृष्णजी महाराज
नंद-यशोदा प्रसंग की चर्चा करते हुए कथा व्यास ने एक कथा सुनायी, उन्होंने बताया कि पूर्व जन्म में नंद व यशोदा दोनों ब्राह्मण-ब्राह्मणी थी, दोनों कमाकर जीवन-यापन करते थे और प्रतिदिन अतिथि को खिलाकर ही भोजन करते थे, क्योंकि उनकी धारणा थी कि अतिथि वेश में कभी भी भगवान आ सकते हैं, एक दिन दोपहर का भोजन ग्रहण कर ब्राह्मण शाम की व्यवस्था में बहर गये इसी बीच एक साधु उनके घर पहुंचकर भोजन की इच्छा जतायी, ब्राह्मणी भोजन बनाकर संत के सामने रखा तो संत ने उस घर के छोटे बच्चे के साथ भोजन करने का आग्रह किया संत के बार-बार आग्रह करने पर ब्राह्मणी रो पड़ी, उन्होंने बताया कि आप जब मेरे घर पहुंचे, उस मसय घर में कुछ भी नहीं था तो वह पुत्र को गिरवी रखकर अनाज लायी, जिससे भोजन बनाकर आपका सत्कार कर रही हूँ, संत ने उस ब्राह्मणी को वचन दिया कि एक दिन ईश्वर स्वयं आपके घर आकर साढ़े ग्यारह वर्षो तक आपके सानिध्य में रहेंगे, अगले जन्म में वहीं ब्राह्मण नंद व ब्राह्मणी यशोदा बनकर संत के उस आशीर्वाद से परम आनंद सुख की प्राप्ति की ।
कान्हा की लीलाओं में भाव विभोर हुए भक्तगण
शुक्रवार को श्रीमद्भागवत कथा के अन्तर्गत श्रीकृष्ण जन्मोत्सव एवं बाल लीलाओं ने श्रद्धालुओं को आनंद रसों की बारिश से नहला दिया। बड़ी संख्या में उमड़े श्रद्धालु नर-नारी कान्हा की लीलाओं पर मंत्र मुग्ध हो उठे। श्री कृष्ण जन्मोत्सव के उल्लास में श्रद्धालुओं ने जमकर भजन-कीर्तनों पर झूमते हुए नृत्य का आनंद लिया।
घण्टे भर से अधिक समय तक श्री कृष्ण जन्मोल्लास में बधाइयां गायी गई और महिलाओं ने मंगल गीतों के साथ भगवान के अवतरण पर प्रसन्नता व्यक्त की। जैसे ही श्रीकृष्ण जन्म की कथा आरंभ हुई, जन्मोत्सव की बाल लीलाएं साकार हो उठी और पूरा पाण्डाल ‘‘नंद के आनंद भयो, जय कन्हैयालाल की, हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैयालाल की।’’ से गूंज उठा।
चौथे दिन बालव्यास श्री अनिलकृष्णजी महाराज ने श्रीकृष्ण जन्म आख्यान का परिचय दिया और भगवान श्रीकृष्ण को जगत का गुरु तथा भगवान श्री शिव को जगत का नाथ कहा गया है। इनके आराधन-भजन से वह सब कुछ प्राप्त हो सकता है जो एक मनुष्य पाना चाहता है।
उन्होंने कहा कि प्रभु की प्राप्ति किसी भी अवस्था में हो सकती है। इसके लिए जात-पात, नर-नारी, उम्र आदि का कोई भेद नहीं है। उमर इसमें कहीं आड़े नहीं आती। इसके लिए कथा और सत्संग सहज सुलभ मार्ग हैं। कथा का उद्देश्य हमेशा प्रभु को प्राप्त करना होता है।
भगवान को पाने के लिए आसक्ति के परित्याग पर जोर देते हुए पण्डित अनिलकृष्ण ने कहा कि आसक्ति छोड़कर परमात्मा में मन लगाना चाहिए।
पण्डित अनिलकृष्णजी महाराज ने जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति के लिए कर्मों के क्षय को अनिवार्य शर्त बताते हुए कहा कि जब तक कर्म है, तब तक आवागमन का चक्र बना रहता है। कर्म को समाप्त करने पर ही जन्म-मरण का बंधन समाप्त हो सकता है।
पण्डित अनिलकृष्णजी ने कहा कि ईश्वरीय विधान को नहीं मानने वाले, उल्लंघन व विरोध करने वाले लोग दूसरे जन्म में कष्ट पाते हैं ओर नरक की योनि भुगतनी पड़ती है। पूजा करने वक्त क्रोध नहीं करना चाहिए क्रोध से नैतिक मूल्य नष्ट हो जाते है । अजामील का हृदय परिवर्तन संतो के समागम से उसके पुत्र का नाम नारायण रखकर अंतीम समय में उसका उद्धार हुआ । गुरु के मागदर्शन से ही देवताओं ने नारायण कवच धारण कर वापस अपना राज्य स्थापित किया । गुरुआज्ञा का पालन प्रत्येक प्राणी को अपने जीवन में करना चाहिए ।
भक्त प्रह्लाद का उदाहरण देते हुए पण्डित अनिलकृष्णजी ने कहा कि उसे माँ के गर्भ से ही ईश्वरीय संस्कारों का बोध था और इसीलिये उसने पिता को भी सर्वव्यापी प्रभु के बारे में बताया। यही सर्वव्यापी ईश्वर पत्थर के खंभे से प्रकट हुआ।
समुद्र मंथन वर्णन - विष का पान भगवान ने शंकर ने अपना मुंह खोल रा शब्दा का उच्चारण कर जहर को मुंह में डाला एवं म बोलकर मंुह को बंद कर दिया अर्थात राम की अपने हृदय में आस्था को धारणकर जहर पी लिया एवं निलकण्ठेश्वर महादेव कहलाए ।
लालीवाव मठ व्यास पीठ से अपने उद्बोधन में कहा कि संसार भर में भारतभूमि सर्वश्रेष्ठ है। यह धर्म भूमि, कर्मभूमि है जहाँ ऋषि-मुनियों ने जन्म लेकर अपनी तपस्या, सद्कर्मों, जन एवं ईश्वर स्मरण कर मोक्ष प्राप्त किया। इसी भूमि पर अवतरण के लिए देवता भी लालालित रहते हैं ।
पुण्यार्जन बहुत जरुरी - ज्ञानार्जन और धनार्जन के साथ पुण्यार्जन को जरुरी बताते हुए उन्होंने कहा कि पुण्य मूल पूंजी है । माता-पिता की सेवा, अतिथि सत्कार और जरुरतमंद की मदद आदि से भी पुण्य मिलता है ।
जहां आस्था है वहां रास्ता है - महामण्डलेश्वर हरिओमदासजी महाराज
भागवत कथा के दौरान आशीवर्चन के रुप में हरिओमदासजी महाराज ने कहा मनुष्य वासनाओं में फंसा रहता है । परोपकार ही पुण्य है । आस्था में ही प्रभु की प्राप्ति का रास्ता है । यह कहना महाराज श्री ने कहा कि भक्त उसे कहते है।, जिस भय नहीं होता । मनुष्य तभी डरता है, जब उसकी ईश्वर से दूरी होती है । जब मनुष्य भगवान से प्रीत लगा लेता है, तो उसे सारे सुखों का स्त्रोत प्राप्त हो जाता है । भगवान फूल की माला सजाने से नहीं बल्कि विश्वास से मिलते है । जहां आस्था है, वहीं रास्ता है । उन्होंने कहा कि ज्ञान का अर्थ जानना तथा भक्ति का अर्थ मानना है । भक्ति स्वतंत्र होती है । जिस व्यक्ति ने अपने मन के विकारों को शुद्ध कर लिया, वह भक्ति प्राप्त कर लेता है । भक्ति ईश्वर का दूसरा नाम है । परोपकार ही पुण्य की परिभाषा है ।
शुक्रवार को कथा में वड़ोदरा मण्डल के श्री महंत श्री शंकरदासजी महाराज, हरिदासजी महाराज, रामदासजी महाराज आदि सतों का सानिध्य एवं आशीवर्चन प्राप्त हुआ । इसके पश्चात् भागवतजी की आरती ‘‘भागवत भगवान की है आरती पापियों को पाप से है तारती और ओम जय शिव ओमकारा, सामूहिक उतारी गई । उसके पश्चात प्रसाद वितरण किया गया । संचालक शांतिलालजी भावसार द्वारा किया गया ।