“स्वाध्याय क्यों करना चाहिये?”

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Published on : 27 Jun, 19 06:06

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“स्वाध्याय क्यों करना चाहिये?”

मनुष्य को मनुष्य इस लिये कहा जाता है कि यह मननशील प्राणी है। पशुओं और मनुष्यों में ईश्वर ने यह भेद किया है कि पशु मनुष्य की भांति मनन व चिन्तन आदि नहीं कर सकते। मनन व चिन्तन करने के लिये मनुष्य को एक उत्कृष्ट भाषा की आवश्यकता होती है और इसके साथ ही सद्ज्ञान की आवश्यकता भी होती है। यदि परमात्मा ने भाषा और वेदों का ज्ञान न दिया होता तो मनुष्य भाषा के अभाव में विचार व चिन्तन नहीं कर सकता था। परमात्मा को इस बात का ज्ञान था, अतः उसने सृष्टि के आरम्भ काल में ही सृष्टि को बनाने के बाद अमैथुनी सृष्टि में मनुष्य को उत्पन्न किया और उन्हें अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों का बोध कराने के लिये वेदों का ज्ञान दिया जो वैदिक संसार की सबसे उत्कृष्ट भाषा संस्कृत में है। यह वैदिक संस्कृत भाषा ही संसार की सभी भाषाओं की जननी है। भाषा और ज्ञान का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। भाषा में ही ज्ञान निहित होता है। यदि भाषा न हो तो ज्ञान भी नहीं होता। इसी कारण जब बच्चा कुछ-कुछ समझने लगता है तो माता-पिता उसे विद्यालय वा पाठशाला में भेजते हैं जहां उसे प्रथम भाषा का ज्ञान कराया जाता है। भाषा के ज्ञान के साथ साधारण ज्ञान पुष्प, फलों, पशुओं एवं साधारण चीजों के चित्र दिखाकर भी ज्ञान कराया जाता है। इस ज्ञान के लिये भी भाषा का होना आवश्यक होता है।

 

                संसार में सबसे महत्वपूर्ण यह जानना है कि यह संसार किसने बनाया और किसके लिया बनाया है। संसार को क्यों बनाया गया, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं। आश्चर्य है कि संसार में भौतिक पदार्थों की प्राप्ति वा धन वैभव के लिये ही मनुष्य रात दिन पुरुषार्थ करता है और इन्हीं कार्यों को करते हुए अपना जीवन गवां देता है। उसे कभी इस संसार की रचना करने वाले परमात्मा और अपनी आत्मा एवं इस जैसी असंख्य आत्माओं जिनके लिये यह संसार बनाया गया है, उसे जानने के लिये अवसर ही नहीं मिलता है। यदि मनुष्य इन विषयों में जानना भी चाहे तो यह काम आसान नहीं है। संसार में अनेक अविद्यायुक्त मत-मतान्तर प्रचलित हैं। संसार के सभी लोग इन मत-मतानतरों के अनुयायी अपने-अपने माता-पिता के विश्वासों के अनुसार ही बन जाते हैं। यह मत-मतान्तर ईश्वर, जीवात्मा, संसार, मनुष्य के कर्तव्य, मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य तथा इनकी प्राप्ति आदि के उपायों को न तो स्वयं जानते हैं न अपने अनुयायियों को इन्हें जानने की स्वतन्त्रता देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य जन्म लेकर स्कूली शिक्षा प्राप्त करता है और इसके बाद धनोपार्जन, विवाह, सन्तानोत्पत्ति, सन्तानों की शिक्षा व उन्हें गृहस्थी बनाने को ही अपना प्रमुख उद्देश्य व कर्तव्य मानकर इस संसार से विदा हो जाता है। उसे यह पता नहीं चलता कि उसका जन्म किस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हुआ था। उस ओर हमारे अविद्यायुक्त मत-मतान्तर मनुष्य का ध्यान जाने ही नहीं देते। वैदिक धर्मियों का यह सौभाग्य है कि वह जीवन के सभी पहलुओं को यथार्थरूप में जानते हैं एवं उनके अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करने का प्रयास भी करते हैं। उनकी भावना है कि संसार के सभी लोग ईश्वर, जीवात्मा तथा इस जड़ भौतिक जगत को यथार्थ रूप में जानकर अपने वास्तविक कर्तव्यों ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों की सेवा-सत्कार सहित सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखते हुए किसी की अकारण हिंसा न करें। स्वयं भी सुखपूर्वक जीवें और अन्य प्राणियों को भी जीनें दें। वेदाज्ञा का पालन कर अपने इहलोक तथा परलोक को सफल बनायें। ऐसा करने से ही मनुष्य जीवन सफल होता है। सभी मनुष्यों को राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, श्रद्धानन्द, लेखराम, गुरुदत्त, हंसराज आदि महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये। इसके लिये इन महापुरुषों के जीवन चरितों का अध्ययन करना होगा। इससे मनुष्य जीवन का महत्व जाना जा सकता है और अपने जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर कर उसे लक्ष्य की ओर ले जाया जा सकता है।

 

                अपने जीवन के अनुभव के आधार पर हम यह सम्रझते हैं कि मनुष्य को अपनी मातृभाषा सहित अन्य भाषायें पढ़ते हुए वैदिक संस्कृत भाषा का व्याकरण अवश्य पढ़ना चाहिये जिससे वह ईश्वरीय ज्ञान चार वेदों सहित अपने पूर्वज ऋषियों के दर्शन, उपनिषद व अन्य ग्रन्थों को पढ़ कर सत्य ज्ञान को प्राप्त कर सके। यदि हम संस्कृत नहीं पढ़ेगे तो हमें इन ग्रन्थों के अनुवादों पर निर्भर रहना पड़ेगा जिससे वह लाभ नहीं होगा जो संस्कृत भाषा का व्याकरण पढ़कर वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से होता है। ऋषि दयानन्द के समय में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन प्रायः बन्द हो चुका है। ऋषि दयानन्द ने जहां-जहां जिस प्रकार से संस्कृत व्याकरण, भाषा और वैदिक साहित्य का अध्ययन किया वह आश्चर्यजनक है। आर्ष संस्कृत व्याकरण पाणिनी की अष्टाध्यायी तथा ऋषि पतंजलि के महाभाष्य सहित महर्षि यास्क के निरुक्त एवं निघण्टु आदि अनेक ग्रन्थों को पढ़कर ऋषि दयानन्द वैदिक सहित्य के भीतर गहराई से प्रविष्ट हुए। उन्होंने विपुल वैदिक साहित्य भण्डार के जो सत्यार्थ प्राप्त किये वह उनसे पूर्व किसी विद्वान को प्राप्त नहीं हुए थे। इसका कारण यह है कि वैदिक आध्यात्मिक एवं सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये जो पुरुषार्थ ऋषि दयानन्द जी ने किया, वैसा पुरुषार्थ करते हुए हम अन्य किसी विद्वान व धर्माचार्य को नहीं पाते। ऋषि दयानन्द ने योगाभ्यास के माध्यम से ईश्वर साक्षात्कार करने सहित ईश्वर, जीव, प्रकृति एवं वेद के ज्ञान को यथार्थ रूप में जानकर उसे अपने जीवन व आचरण में धारण किया था।

 

                संसार के कल्याण के लिये ऋषि दयानन्द ने वेद एवं वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार तथा धर्म के नाम पर अविद्या का खण्डन करना उचित समझा। उनका सारा जीवन ही आध्यात्मिक जगत की सच्चाईयों सहित मनुष्यों के वैदिक ज्ञान के आधार पर आचरण के सुधार में व्यतीत हुआ और इसी कार्य को करते हुए उन्होंने अपने जीवन का बलिदान किया। सत्य ज्ञान के प्रचार के लिये उन्होंने अपना सारा जीवन लगाया। वह मौखिक रूप से प्रवचन, उपदेश एवं व्याख्यानों द्वारा प्रचार तो करते ही थे, इसके साथ वार्तालाप, शंका-समाधान, शास्त्र-चर्चा सहित शास्त्रार्थ आदि के द्वारा भी उन्होंने ईश्वर प्रदत्त वेदों की सत्य मान्यताओं का प्रचार किया। वह जिन मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करते थे उसको स्थायीत्व देने के लिये उन्होंने वैदिक मान्यताओं को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, वेदविरुद्धमत खण्डन, गोकरुणानिधि आदि अनेक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया जो आज भी हमारा मार्गदर्शन करता है और आशा है कि सृष्टि की प्रलय तक वा सुदीर्घकाल तक सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता की पूर्ति करता रहेगा। महर्षि दयानन्द ने संस्कृत भाषा के प्रचार के लिये अपने जीवन काल में कुछ स्थानों पर संस्कृत पाठशालाओं की स्थापनायें भी की थीं।

 

                वेदों का संगठित रूप से प्रचार करने के लिये उन्होंने श्रेष्ठ समाज अर्थात् आर्यसमाज की स्थापना भी 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी। आर्यसमाज से पूरा विश्व एवं सभी मत-मतान्तर लाभान्वित हुए हैं। उन्हें अपनी मान्यताओं को तर्क व युक्ति के आधार पर स्थापित करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने अपनी मान्यताओं को तर्क पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास भी किया है परन्तु झूठ को तर्क से सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस कारण उन्हें इस कार्य में पूर्ण सफलता मिलना सम्भव नहीं था। वेदों के प्रकाश में आर्यसमाज ने सनातन धर्म की मान्यताओं में सुधार करने का पूरा प्रयत्न किया और इस कारण उसने असत्य व अज्ञान पर आधारित मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध तथा अवतारवाद के सिद्धान्त का त्याग किया। इसके साथ ही आर्यसमाज ने सामाजिक असमानता, छुआछूत, ऊंच-नीच, अन्याय व पक्षपात का भी विरोध किया। स्त्री-शूद्रों सहित मानवमात्र को वेदाधिकार प्रदान किया। पूर्ण युवावस्था में गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर जांति-पांति के भेदभावों से रहित वर-वधू की सहमति से विवाह आदि का प्रचार कर उसे समाज में स्थापित किया। आर्यसमाज ने बताया कि वर्णव्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर मनुष्य के ज्ञान व बल सहित उसके आचरण व चरित्र आदि की योग्यता के आधार पर होती है। एक अनपढ़ व विद्याहीन मनुष्य ब्राह्मण कदापि नही हो सकता। वैश्य के लिये वाणिज्य, व्यापार व कृषि कार्यों में दक्ष होने सहित इन कार्यों को करने वाला भी होना चाहिये। क्षत्रिय भी वही हो सकता है कि जो ज्ञान व बल में उत्तम हो तथा देश व समाज की रक्षा के लिये सेना, सुरक्षा बलों व पुलिस आदि विभागों में कार्य करता हो। शूद्र का अर्थ आज की परिस्थितियों में ज्ञान व शिक्षा की कमी वाला ऐसा मनुष्य जो श्रम के कार्य करता है, उस श्रमिक को कह सकते हैं। यह व्यक्ति किसी भी वर्ण या परिवार में जन्मा हुआ हो सकता है। गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित सभी वर्ण व मनुष्य देश व समाज को उन्नति की ओर ले जाते हैं जिससे सबका हित व कल्याण निहित होता है। आर्यसमाज यह भी मानता है कि जिस प्रकार से सभी डाक्टरों के बेटे डाक्टर तथा इंजीनियरों क पुत्र इंजीनियर नहीं होते, उसी प्रकार से यह आवश्यक नहीं है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य आदि के सभी पुत्र व पुत्रियां भी उन्हीं के वर्णों के अनुरुप हों। वेदपाठी व वेदज्ञानी ब्राह्मण के उस पुत्र को जो वेदाध्ययन से शून्य है, उससे पिता वाले कार्य नहीं लिये जा सकते। इस कारण से दोनों का वर्ण एक नहीं हो सकता। हमने इन पंक्तियों को लिखते हुए, स्वाध्याय के महत्व से इतर कुछ सार्थक चर्चायें भी की हैं जिससे पाठक वैदिक विचारधारा को समझ सकें व उसे ग्रहण कर सकें।

 

                मनुष्य को अपने स्कूल व कालेज के अध्ययन के साथ अपने भीतर वैदिक साहित्य के अध्ययन की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिये। यदि यह कार्य बाल जीवन से ही आरम्भ हो जाये तो अच्छा है अन्यथा युवावस्था से तो वेद व वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय को नियमित रूप से आरम्भ करना चाहिये। जो व्यक्ति जितना अधिक स्वाध्याय करेगा उसे उतना ही लाभ होगा। आज स्वाध्याय के लिये सहस्रों की संख्या में उत्तम ग्रन्थ विद्यमान हैं। स्कूलों व  कालेजों में अध्ययन करते हुए इनके नाम का बोध तक नहीं कराया जाता। ऐसा मत-मतान्तरों के भय से हमारे राजनीतिक नेता नहीं करते। वोट बैंक भी ऐसा करने से उन्हें रोकता व डराता रहा है। ऐसे कार्यों से मनुष्यता का कल्याण नहीं हो सकता। विज्ञान की तरह आध्यात्मिक ज्ञान भी सर्वत्र एक समान व एक प्रकार का ही होता है। सभी मतों के धार्मिक व सामाजिक नियम प्रायः समान ही होने चाहिये तभी उनके सभी अनुयायियों को लाभ हो सकता है। वेदों व वैदिक साहित्य में ईश्वर व जीवात्मा आदि के जिस सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है, वह मत-मतान्तरों की पुस्तकों में न होने से उनके अनुयायियों को इस विषय के सत्यज्ञान से वंचित होना पड़ता है। अतः सबको सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में तत्पर रहना चाहिये। सत्य को ग्रहण करना व कराना ईश्वर की आज्ञा का पालन है। हमें इस कारण वेद, वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द एवं वैदिक विद्वानों के साहित्य का अध्ययन व स्वाध्याय करना है जिससे हम अपने आत्मा, मन व बुद्धि सहित अपने अन्तःकरण का पूर्ण विकास कर सकें। यदि हम न्यूनतम प्रतिदिन एक घंटा स्वाध्याय का व्रत व संकल्प कर लें तो हम प्रतिदिन 10 पृष्ठ तो पढ़ ही सकते हैं। ऐसा करने से हम एक वर्ष में 3650 पृष्ठ आसानी से पढ़ सकते हैं। इस प्रकार अध्ययन करने से हम प्रतिवर्ष 500 पृष्ठों के सात या आठ ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं। इससे अनुमान लगा सकते हैं कि हम ज्ञान की दृष्टि से कहां से कहां तक दूरी तय कर सकते हैं। जो व्यक्ति स्वाध्याय नहीं करता उसकी तुलना में स्वाध्याय करने वाला मनुष्य कहीं अधिक अपनी आत्मा व बुद्धि का विकास करने में सफल होता है, यह प्रत्यक्ष है।

 

                स्वाध्याय एवं अध्ययन करने से ज्ञान की भूख व पिपासा में वृद्धि होती जाती है। हमने अपने जीवन में प्रतिदिन सात-आठ घण्टों तक स्वाध्याय किया है। जिस पुस्तक का अध्ययन आरम्भ करते थे उसे अन्त तक पढ़कर उसके बाद दूसरी पुस्तक आरम्भ करते थे। वर्षों तक हमने ऐसा किया है। जो लोग वृद्धावस्था में अध्ययन की योजना बनाते हैं उनका वह मनोरथ सिद्ध होने की आशा कम ही होती है। अनेक रोगों व शारीरिक बल की कमी के कारण अध्ययन नहीं हो पाता। वृद्धावस्था में आंखों में भी विकार आ सकते हैं व आ जाते हैं। वृद्धावस्था में अध्ययन करते भी हैं, तो तब शेष जीवन कुछ वर्षों का ही बचता है जिससे उतना लाभ नहीं होता जो युवावस्था में स्वाध्याय करने से होता है। हमें प्रयास करना चाहिये कि हम जीवन के आरम्भ के दिनों में ही सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, 6 दर्शन, 11 उपनिषद, खगोल ज्योतिष, विशुद्ध मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, महाभारत सहित चार वेदों पर ऋषि दयानन्द सहित पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार एवं आचार्य डॉ0 रामनाथवेदालंकार आदि आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों को पढ़ ले। इससे आत्मा की उन्नति होने सहित जीवन का कल्याण भी होगा। ईश्वर का सहाय मिलेगा जिससे व्यवसाय आदि में उन्नति एवं सन्तानों की शिक्षा एवं शिक्षणेत्तर जीवन में भी उन्नति की आशा बनती है। इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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