“पूजा किसकी, क्यों व कैसे करें?”

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Published on : 26 Jun, 19 06:06

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“पूजा किसकी, क्यों व कैसे करें?”

पूजा शब्द का प्रयोग मूर्तिपूजा अथवा देवपूजा आदि के सन्दर्भ में किया जाता है। पूजा का अर्थ यथायोग्य आदर, सत्कार व सम्मान करना है। मूर्तिपूजा का अर्थ भी मूर्ति के जड़ता गुण को ध्यान में रखते हुए उसे यथायोग्य महत्व देना तथा उसके प्रति व्यवहार करना है। मूर्तियां जड़ व चेतन भेद से दो प्रकार की होती हैं। जड़ देवता की बात करें तो पृथिवी, अग्नि, जल वायु एवं आकाश आदि जड़ देवता कहलाते हैं। चेतन देवताओं में हमारे माता-पिता, आचार्य, परिवार एवं समाज के वृद्ध जन एवं पालतू पशु गो, अश्व, बकरी तथा भेड़ आदि आते हैं। इनकी पूजा का प्रकार हमें बुद्धि से विचार कर अथवा शास्त्रों की सहायता से करना होगा। जड़ पदार्थों में ज्ञान नहीं होता। उन्हें सुख व दुःख भी नहीं होता। उन्हें न भूख लगती है और न मनुष्यों के समान वस्त्रों की आवश्यकता होती है। अतः जड़ पदार्थों से निर्मित मूर्ति को भोग लगाना व वस्त्र पहनाना अविवेकपूर्ण कार्य है। यदि हम पत्थर व धातु की मूर्ति बना कर, उसे देवता या अन्य कोई नाम देकर, उस पर जल चढ़ायें, फल व फूल चढ़ायें, दूध चढ़ायें या सोना-चांदी आदि बहुमूल्य पदार्थ चढ़ायें, तो हमारे इस प्रकार के कृत्यों से उस पाषाण व धातु की मूर्ति को कोई लाभ व हानि नहीं होती। जड़ होने से उसे यह पता नहीं होता कि कोई मनुष्य उन्हें अमुक-अमुक पदार्थ भेंट कर रहा है अथवा चढ़ा रहा है और उन्हें जड़ोपासक मनुष्यों की इच्छाओं को पूरा करना है। किसी भी जड़ पदार्थ में किसी की इच्छा पूरी करने की क्षमता व सामर्थ्य नहीं होती है। वेदों तथा विद्वान ऋषियों के बनायें दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में कहीं भी ईश्वर व उसके किसी प्रतिनिधि की पाषाण व धातु की मूर्ति बनाकर उस पर फल-फूल, जल, दूध, सोना, चांदी, अन्न व उससे बने पदार्थ अर्पित करने व चढ़ाने का विधान नहीं है। अतः जड़ पदार्थों से बनी मूर्तियों की पूजा करना शास्त्र सम्मत नहीं है। इससे कोई लाभ इसलिये नहीं होता कि जड़ पदार्थ मूर्ति आदि न तो किसी पर प्रसन्न हो सकते हैं और न ही कुपित हो सकते हैं। जब उनमें ज्ञान व उसका स्रोत बुद्धि ही नहीं है, तो उससे कोई भी आशा व अभिलाषा करना अन्धविश्वास व मूर्खता ही कही जा सकती है। पाषाण मूर्तियों की पूजा यही हो सकती है कि हम कलात्मक दृष्टि से कुछ महापुरुषों की मूर्तियां बनायें और उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर स्थापित कर दें जिससे लोग उन मूर्तियों को देखकर उन पुरुषों के कार्यों को स्मरण कर सके। ऐसा हमारे देश सहित विश्व के अनेक देशों में होता है। कुछ समय पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी देशभक्त नेता सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति बनवाकर उसे गुजरात प्रान्त में स्थापित किया है। इस प्रकार मूर्ति बनाकर उनकी रक्षा करना जिससे कोई उसे हानि न पहुंचायें, इतना ही कार्य जड़ मूर्तिपूजा के अन्तर्गत आता है। किसी मनुष्य आदि की आकृति के सर्वथा अनुरुप प्रभावशाली मूर्ति बनाने वाले कलाकार की कला ही वस्तुतः मूर्तिपूजा कही जा सकती है। किसी मूर्ति पर जल, अन्न तथा फल-फूल व दुग्ध आदि चढ़ाने को मूर्तिपूजा नहीं कहा जा सकता। प्रामाणिक शास्त्र वेद एवं वेदानुकूल ग्रन्थों में वर्तमान के समान मूर्तिपूजा का कहीं विधान नहीं है। महर्षि दयानन्द ने 16 नवम्बर, 1869 को काशी में 30 से अधिक शीर्ष पण्डितों से शास्त्रार्थ किया था जिसमें कोई पण्डित वेदों से मूर्तिपूजा का समर्थक प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सका था। यह बता दें कि महाराज मनु ने अपनी मनुस्मृति में ‘वेदऽखिलो धर्म मूलम्’ कहकर समस्त वेद को धर्म का मूल व आधार घोषित किया है। वेदतर कोई ग्रन्थ धर्मग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। उनकी वही बातें धर्मानुकूल मानी जा सकती हैं कि जो वेद के अनुकूल हों।

  चेतन मूर्तियों में हमारे माता, पिता, आचार्य, राजा, विद्वान, सच्चे धर्म प्रचारक यथा ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम जी आदि आते हैं। इनमें भी जो जीवित हैं उनकी पूजा, उनकी सत्य आज्ञाओं का पालन करके, उन्हें भोजन, वस्त्र, आवास, ओषधि, धन एवं आवश्यकता की वस्तुयें देकर तथा उनकी सेवा आदि कर की जा सकती है। गो आदि पशु भी हमारे देवता हैं। इनसे हमें दुग्ध व दुग्ध से बनने वाले पदार्थ, उनकी मृत्यु के बाद चर्म, गोमूत्र व गोबर जो किसान के लिये बहुमूल्य खाद होता है, इसी प्रकार से बकरी से भी गुणकारी दुग्धादि का लाभ तथा अश्व एवं हाथी से भी अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। इन पशुओं को भोजन व चारा देना, उन्हें निवास के लिए छत देना तथा उनकी रक्षा सहित उनकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना मनुष्य का कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य पालन ही इन चेतन देवों की पूजा कही जाती है। इसी प्रकार से जड़ देवताओं में अग्नि का सदुपयोग करना, दुरुपयोग न करना, अग्नि का प्रयोग यज्ञादि में करना तथा भोजन आदि पकाने में करना आदि भी एक प्रकार से अग्नि की पूजा है। इसी प्रकार से वायु को प्रदुषित न करना व उसे शुद्ध करने के लिये अग्निहोत्र करना भी वायु की पूजा होती है। आश्चर्य है कि हमारे पुजारी व पण्डित हमारे बन्धुओं को वायु व जल की शुद्धि करने वाले अग्निहोत्र के अनुष्ठान व वेद की आज्ञाओं के बारे न तो बताते हैं और न ही स्वयं ध्यान दते हैं। अन्न का सदुपयोग करना व भूखे लोगों को अन्न प्रदान करना भी एक प्रकार से अन्न की पूजा कही जा सकती है। हमारे किसान बीज से अन्न का उत्पादन करते हैं और उससे अपना तथा शेष देशवासियों का पालन करते हैं। किसानों का यह कार्य भी एक प्रकार से अन्न की पूजा के समान है। इस प्रकार से यह जड़ व चेतन मनुष्यों व प्राणियों की पूजा होती है।

हमारे इस संसार तथा मनुष्य आदि प्राणियों को परमात्मा ने बनाया है। वही हमारे लिये इस भूमि में किसानों के द्वारा अन्न का उत्पादन करता है। किसान बीज बोता है और खेतों में पानी व खाद देने सहित खेत की निराई व गुड़ाई करता है। फसल पक जाने पर किसान उसकी कटाई करता है। किसान के इन कार्यों के अतिरिक्त बीज से पौधा व उसमें अन्न के दाने आदि उत्पन्न करना यह समस्त कार्य परमात्मा करता है। परमात्मा ने ही हमें माता-पिता, भाई-बन्धु-भगिनी, मानव-समाज तथा ऋषियों का उत्तम देश आर्यावर्त्त वा भारत दिया है। उसी ने सृष्टि में हमारे लिये वायु, जल व अग्नि आदि पदार्थों को बनाया है। हमें मानव शरीर सहित आंख, नाक, कान, मुंह व त्वचा आदि कर्म एवं ज्ञानेन्द्रियां दी हैं। हमारे शरीर के भीतर मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार इस अन्तःकरण चतुष्टय को बनाया है। इनसे अतिरिक्त भी हमारे शरीर के भीतर की रचना विशेष होने सहित आश्चर्यजनक भी है जिसे मनुष्य व चिकित्सक भी पूर्णरूपेण जानने में असमर्थ हैं। इस शरीर से हम नाना प्रकार से सुख भोगते हैं। अतः उस सृष्टिकर्ता ईश्वर के लिये हमें कृतज्ञता ज्ञापित करने सहित उसके गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना हमारा कर्तव्य बनता है। यह स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही ईश्वर की पूजा व भक्ति कही जाती है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वरीय ज्ञान वेद के आधार पर सन्ध्या एवं ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना के मन्त्र व विधि लिखकर उनका हिन्दी अनुवाद भी किया है। इसका अर्थ सहित चिन्तन व ईश्वर की स्तुति करते हुए उसके स्वरूप में खो जाने को ही भक्ति व पूजा कहते हैं। इसका समय प्रातः व सायं सूर्योदय व सायं सूर्यास्त के समय होता है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से वह हर क्षण व हर पल हमारे साथ रहता है। हम जब भी चाहें, उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित ईश्वर के ओ३म् नाम तथा गायत्री मंत्र का जप कर अपने मन व आत्मा को शुद्ध व पवित्र कर सकते हैं और ऐसा करने से ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य भी कुछ मात्रा में पूरा होता है।

अतः वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित दर्शन एवं उपनिषद आदि का अध्ययन करते हुए हमें ईश्वर के यथार्थस्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना एवं भक्ति अवश्य करनी चाहिये। यही ईश्वर की पूजा है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से हमारे शरीर सहित आत्मा के भीतर भी विद्यमान है। हम आत्मा हैं। अतः हमें अपनी आत्मा में ही ईश्वर का ध्यान करना चाहिये। आत्मा में ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है। ईश्वर के साक्षात्कार का अन्य कोई स्थान नहीं है। जब आत्मा से इतर स्थानों पर ईश्वर के दर्शन, साक्षात्कार, प्राप्ति या उपलब्धि होनी ही नहीं है तो फिर हम कहीं और क्यों जायें और जड़ मूर्तियों की पूजा क्यों करें? महर्षि पतंजलि के योगदर्शन में उपासना वा योग के आठ अंग कहे गये हैं। यह अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन आठ अंगों को जानकर उपासना, भक्ति व पूजा करने से ही मनुष्य को ईश्वर की अनुभूति वा साक्षात्कार होता है। यह साक्षात्कार ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य कर्म-फल बन्धन से मुक्त होकर जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त होते हैं और मृत्यु होने पर जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष धाम को प्राप्त होते हैं। मोक्ष में जीवात्मा ईश्वर के आनन्द व अमृतमय सान्निध्य में 31 नील वर्षों से भी अधिक अवधि तक विद्यमान रहती है। मोक्ष की अवधि में आत्मा को किसी प्रकार का लेशमात्र भी दुःख नहीं होता अपितु ईश्वर के सान्निध्य में ईश्वर का पूर्ण आनन्द जीवात्मा को प्राप्त होता है। यही सच्ची ईश्वर की पूजा है और यही ईश्वर पूजा का लक्ष्य होता है। यह लाभ पाषाण आदि मूर्ति बनाकर पूजा करने से कदापि नहीं हो सकता।

 

                पूजा वा उपासना ईश्वर सहित माता-पिता, आचार्य एवं परिवार तथा देश के ज्ञानीजनोंकी की जाती है। इससे हमारा उनके प्रति ऋण उतरता है और हमें उनसे ज्ञान व स्वास्थ्य प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त होता है। ईश्वर की पूजा वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थ दर्शन एवं उपनिषदों का स्वाध्याय करते हुए करेंगे तो वह लाभकारी होगी। महाभारत के बाद समय-समय पर समाज के अनेकानेक मनुष्यों द्वारा जो पूजा की पद्धतियां प्रचलित की गई हैं वह वैदिक पूजा पद्धति के सम्मुख अपूर्ण एवं अविद्या से युक्त हैं। जो लाभ योगदर्शन की विधि के अनुसार ईश्वर की उपासना, ध्यान, भक्ति एवं साधना आदि से होता है, समाधि की प्राप्ति होती है, वह अन्यथा नहीं हो सकता। अतः ईश्वर की पूजा व उपासना के लिये वेद एवं योगदर्शन की शरण में ही हमें जाना होगा, तभी हमारा यह मनुष्य जीवन सफल होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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