“देश के प्रति कर्तव्य और धर्म परस्पर पूरक हैं”

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Published on : 13 Jun, 19 08:06

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“देश के प्रति कर्तव्य और धर्म परस्पर पूरक हैं”

मनुष्य का जन्म माता-पिता से होता है जो किसी देश में निवास करते हैं। हो सकता है कि माता-पिता उस देश के नागरिक हों या प्रवासी भी हो सकते हैं। यदि नागरिक हैं तो बच्चा भी उस देश का नागरिक हो जाता है। माता-पिता और उनकी सन्तान का कर्तव्य है कि अपने देश के प्रति सच्ची निष्ठा एवं समर्पण की भावना रखें। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे माता-पिता और पूर्वजों ने देश में ही जन्म लिया और वहां की भाषा, धर्म, संस्कृति तथा परम्पराओं से लाभ उठाया होता है। मनुष्य का शरीर पंच-महाभूतों से मिलकर बना होता है। यह पंचभूत पृथिवी, अग्नि, वायु, जल और आकाश होते हैं। प्रत्येंक मनुष्य का शरीर जिस देश की भूमि व जल-वायु आदि से बना होता है उसके प्रति सच्ची निष्ठा व समर्पण तो होना ही चाहिये। आजकल धर्म का स्थान मत-मतान्तरों ने ले लिया है। मत-मतान्तर न भी हों तो मनुष्य का जीवन बना रहता है परन्तु देश न हो तो मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। धर्म तो कर्तव्य व सत्य का पर्याय शब्द है। सनातन वैदिक धर्म सत्य के पालन की उदात्त भावना को अपने भीतर संजोए हुए है। वेद की शिक्षा है कि ‘भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं’। यह शिक्षा अथर्ववेद की है। मेरा धर्म है कि मैं जिस देश में उत्पन्न हुआ हूं उसे अपनी मातृभूमि मान कर उसका स्तवन एवं उसकी उन्नति में संलग्न रहूं। अथर्ववेद की शिक्षा परमात्मा ने की है। अतः सभी मनुष्यों का धर्म है कि वह अपने देश व मातृभूमि को अपनी माता के ही समान सम्मान व आदर प्रदान करें व उसकी उन्नति व रक्षा के लिये अपने प्राण न्योछावर करने के लिये तत्पर रहें जैसे कि पं0 रामप्रसाद बिस्मिल, पं0 चन्द्र शेखर आजाद, वीर भगत सिंह, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आदि ने किया। जो मनुष्य मातृभूमि को अपने मत व सम्प्रदाय से छोटा मानते हैं वह न्याय नहीं करते ऐसा हम समझते हैं।

भारत भूमि में हमारा जन्म हुआ है। हमें इस बात का गौरव है कि सृष्टि के आरम्भ काल से हमारे सभी पूर्वज इसी भारत भूमि में निवास करते रहे और इस देश की मिट्टी व पंचमहाभूतों से उनके शरीर बने थे। सत्य सनातन वैदिक धर्म और संस्कृति ही उनका आचार और व्यवहार था। यदि यह देश और हमारे पूर्वज न होते तो हमारा अस्तित्व न होता। हमारा अस्तित्व इस देश और हमारे पूवजों के कारण है। परमात्मा ने इस सृष्टि और भूमि को बनाया है। उसी ने हमारे पूर्वजन्मों के कर्मानुसार हमें इस देश में जन्म दिया है। हम परमात्मा के आभारी हैं। उस परमात्मा जिसने इस सृष्टि को उत्पन्न किया है, इसका पालन कर रहा है तथा जिसनें हमें जन्म दिया है, उसके भी हम समान रूप से व कुछ अधिक आभारी व ऋणी हैं। यदि परमात्मा हमें जन्म न देता तो हमारा जन्म न हो पाता। अतः परमात्मा का हमारे ऊपर ऋण है जिसे हमें उतारना है। यह ऋण ईश्वर के प्रति आदर व सम्मान का भाव रखने के साथ उसकी वेदाज्ञाओं का पालन करके ही उतारा जा सकता है। हम जानते हैं कि ईश्वर एक है। ईश्वर के अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव होने के कारण उसके अनन्त नाम हो सकते हैं व हैं। अतः नाम के कारण परस्पर विरोध नहीं होना चाहिये। संसार के सभी मनुष्यों का ईश्वर एक है। वह हमें व हमारी आत्मा को ज्ञान प्राप्त कर सत्यासत्य का निर्णय करने की प्रेरणा करता है और सत्य को स्वीकार करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म होता है। ऋषि दयानन्द ने परीक्षा कर पाया था कि सभी मत-मतान्तर व उनके आचार्य सत्यासत्य की परीक्षा कर सत्य को स्वीकार करने के सिद्धान्त पर आरुढ़ नहीं हैं। यदि होते तो ऋषि दयानन्द ने इसके लिये जो प्रयत्न किये थे, सभी लोग उसमें सहयोग करते और सत्य की परीक्षा कर, असत्य का त्याग और सत्य को स्वीकार करते। यह कार्य सभी ज्ञानी व विद्वान मनुष्यों का है कि वह सत्यासत्य का अध्ययन व अनुसंधान करते रहें व इसका प्रचार करते रहें जिससे कालान्तर में असत्य मत मतान्तर अपनी अविद्या से युक्त मान्यताओं को त्याग कर परमात्मा द्वारा वेदों में प्रदान की गईं सत्य मान्यताओं को स्वीकार कर संसार से अविद्या का नाश करने में सहयोगी हों।

हमने देश व मनुष्य की जन्मभूमि की चर्चा की है। अब धर्म के सत्य स्वरूप पर भी विचार करते हैं। धर्म जिसे धारण किया जाता है, उसका नाम है। मनुष्य को क्या धारण करना चाहिये। मनुष्य को अपना शरीर स्वस्थ रखना चाहिये। अतः स्वास्थ्य के नियमों का धारण व पालन करना सभी मनुष्य का धर्म है। मनुष्य को अज्ञानी नहीं अपितु ज्ञानी होने से सुख प्राप्त होता है। इससे न केवल ज्ञानी मनुष्य को लाभ होता है अपितु उसके संगी-साथियों व समाज के लोगों को भी लाभ होता है। अतः सुख व उन्नति का साधक विद्या व ज्ञान की प्राप्ति भी मनुष्य का धर्म सिद्ध होता है। ज्ञान व विद्या की प्राप्ति करते हुए सभी मनुष्यों को विचार करते रहना चाहिये कि संसार की उत्पत्ति किससे व कब हुई? यह संसार किसके द्वारा चल रहा है? किसने इस संसार को धारण किया हुआ है? कौन इसका पालन कर रहा है? ईश्वर है या नहीं? यदि नहीं है तो संसार कैसे बना? क्या संसार अपने आप बन सकता है? यदि बन सकता है तो इसका प्रमाण क्या है? वेदों का ज्ञान कब व किससे प्राप्त हुआ? क्या वेद ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान है? वेदों की बातें ज्ञान व विज्ञान के अनुरूप हैं या नहीं? यदि अनुरूप हैं तो इसे सबको मानना चाहिये और यदि नहीं तो वह कौन सी बातें हैं जो सत्य नहीं हैं और जिसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये? हम समझते हैं कि ऐसे सहस्रों प्रश्न हो सकते हैं परन्तु इनका उत्तर वही होगा जो ऋषि दयानन्द को प्राप्त हुआ था और जिसका उल्लेख उन्होंने अपने ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि में किया है।

वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि संसार में चेतन व जड़ दो प्रकार के पदार्थ है। चेतन पदार्थ भी दो प्रकार के हैं एक परमात्मा और दूसरा जीवात्मा। परमात्मा एक है और वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी है। जीवात्मा संख्या में अनन्त हैं। यह सत्य व चेतन होने सहित एकदेशी, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान्, जन्म-मरणधर्मा, कर्मों को करने वाला तथा उनके फलों का भोक्ता है। ईश्वर व जीवात्मा अनादि, अमर, नित्य व अविनाशी सत्तायें हैं। जीवात्माओं अनन्त इस लिये कहते हैं कि मनुष्य जीवात्माओं की गणना नहीं कर सकता। ईश्वर के ज्ञान में जीवात्मायें सीमित संख्या में है। ईश्वर को प्रत्येक जीवात्मा और उसके प्रत्येक कर्म का ज्ञान होता है। वह सबको उनके कर्मानुसार जन्म, सुख-दुःख व मृत्यु की व्यवस्था सहित पुनर्जन्म आदि का प्रबन्ध व व्यवस्था भी करता है। ईश्वर सभी जीवात्माओं पर अनादि काल से सृष्टि की रचना व पालन, जन्म व कर्मानुसार सुख व दुःख देकर व्यवस्था करता चला आ रहा है। इस कारण से परमात्मा सभी मनुष्यों के द्वारा जिसमें सभी मत-मतान्तर सम्मिलित हैं, उपासनीय है। मनुष्य का धर्म है कि वह प्रातः व सायं परमात्मा के गुण, कर्म व स्वभावों को स्मरण कर उसका धन्यवाद करे। उसका अधिक समय तक ध्यान करे और स्वयं को भूल कर ईश्वर के स्वरूप में खो जाये। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का चिन्तन व ध्यान ही उपासना है। मनुष्य का कर्तव्य और धर्म यह भी है कि वह सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखे। अकारण किसी प्राणी की हिंसा न करे। अकारण हिंसा करना अधर्म व पाप होता है। यह एक प्रकार से परमात्मा की आज्ञा को भंग करना है। मनुष्य को प्रकृति व इसके वायु, जल तथा स्थल सभी को स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखना चाहिये। अनायास उसके कारण वायु व जल आदि में जो विकार व प्रदुषण होते है, उसके निवारण के लिये उसे अग्निहोत्र-यज्ञ की विधि से वायु व जल की शुद्धि करनी चाहिये। वैदिक आज्ञाओं का पालन ही धर्म होता है और वेदों में जिन कार्यों का निषेध किया है वह कार्य अकरणीय व अधर्म के अन्तर्गत आते हैं। यह भी ध्यान रखना चाहिये संसार के सभी मनुष्यों का धर्म एक है। संसार में जो धर्म के नाम पर सम्प्रदाय हैं वह धर्म नहीं अपितु मत व मतान्तर हैं। सभी मतों में अविद्यायुक्त बातें व परम्परायें हैं। इसी कारण से उनका अस्तित्व है। इसका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में कराया है। सबको सत्यार्थप्रकाश पढ़कर ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण करना चाहिये। हम समझते हैं कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि भी सभी मनुष्य व मतों तथा उनके आचार्यों का कर्तव्य व धर्म है। यह बात अलग है कि कौन इस सिद्धान्त व कर्तव्य का पालन करता है और कौन नहीं।

धर्म कभी देशहित व देश के प्रति देशवासियों व नागरिकों के कर्तव्य पालन में बाधक नहीं होता। वैदिक धर्म के बारे में तो यह बात दावे से कह सकते हैं कि वैदिक धर्म ऐसा धर्म है जो देश के प्रति मनुष्यों के कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा व आज्ञा करता है। हमें ईश्वर की उपासना, सामाजिक कर्तव्यों का पालन तथा देश हित के कार्य करते हुए ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिये। देश और धर्म दोनों परस्पर पूरक हैं। यदि कहीं कभी विरोधाभाष दृष्टिगोचर हो तो देश के प्रति अपने कर्तव्यों को प्रथम स्थान देना चाहिये। यह भी बता दें कि वैदिक धर्म का पालन करने से मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। उसका इहलोक और परलोक दोनों सुधरता है। वैदिक मत व धर्म से श्रेष्ठ अन्य कोई मत या सिद्धान्त नहीं है। ऋषि दयानन्द ने सभी मतों के लोगों को वैदिक धर्म का अध्ययन कर इसे जानने व अन्य मतों से तुलना करने की प्रेरणा की है और सत्य को ग्रहण और असत्य को छोड़ने का आह्वान किया था। इसे अपना कर ही देश व समाज उन्नत व सुदृण हो सकते हैं। देश व धर्म विषयक इस चर्चा को यहीं पर यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 


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