“ईश्वर हमारा सबसे अधिक हितैषी एवं जन्म-जन्मान्तर का साथी है”

( 6144 बार पढ़ी गयी)
Published on : 03 May, 19 05:05

“ईश्वर हमारा सबसे अधिक हितैषी एवं जन्म-जन्मान्तर का साथी है”

“ईश्वर हमारा सबसे अधिक हितैषी एवं जन्म-जन्मान्तर का साथी है”

  हम इस बने बनाये संसार में रहते हैं। हमें मित्रों, हितैशियों, सहयोगियों सुख-दुःख बांटने वालें सज्जन संस्कारित मनुष्यों की आवश्यकता पड़ती है। हमारे परिवार के लोग हमारे सहयोगी रहते हैं। कुछ यदा-कदा विरोधी भी हो सकते हैं हो जाते हैं। हमारे माता-पिता, पत्नी एवं बच्चे प्रायः सहयोगी रहते ही हैं। भाई बहिन भी सहयोगी रहते हैं परन्तु अपवाद स्वरूप इनमें परस्पर मधुरता कम होती भी देखने को मिलती है। ऐसी स्थिति में यह विचार आता है कि हमारा सबसे अधिक हितैशी उपकारी कौन है? जब हम इस विषय में विचार करते हैं तो हमें एक सत्ता ईश्वर का नाम भी स्मरण आता है। अन्यों की तो बात नहीं परन्तु वैदिक धर्मी और स्वाध्यायशील आर्यसमाजी बन्धु इस विषय को अधिक अच्छी तरह से समझते हैं। एक वेद मन्त्र है जिसमें कहा गया है कि हे ईश्वर! तू ही हमारा माता पिता है। हम आपके पुत्र पुत्रियां हैं। एक मन्त्र में ईश्वर को मित्र, वरुण, अर्यमा, राजा, ज्ञान दाता आदि कहा है। हमारे एक मित्र प्रा0 अनूप सिंह जी ने एक बार एक पारिवारिक सत्संग में एक प्रवचन किया था। सत्संग में एक वेदमंत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था कि ईश्वर हमारा शाश्वत मित्र है। वह कभी हमारा साथ नहीं छोड़ता। ईश्वर जीवात्मा अनादि सत्तायें हैं। दोनों अनादि काल से एक साथ रह रही हैं और अनन्त काल तक इसी प्रकार से साथ रहेंगी। ईश्वर मनुष्य का व्याप्य-व्यापक और स्वामी सेवक का सम्बन्ध है। ईश्वर हमारी जीवात्मा के भीतर भी व्यापक है। इसलिये उसे सर्वान्तर्यामी कहा जाता है। वह हमारी आत्मा, मन हृदय के भावों को जानता है। हमें सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी वह करता है। वह हमारे पूरे अतीत से परिचित है। उसने ही हमारे लिये इस सृष्टि को बनाया है। उसी ने हमारे पूर्वजों को ज्ञान दिया था। उसी परमात्मा से हमें स्वाभाविक ज्ञान भी मिलता है। स्वाभाविक ज्ञान अनेक प्राणी योनियों में भिन्न भिन्न प्रकार का देखने को मिलता है। मनुष्य गौरेया का घोसला नहीं बना सकता। गौरेया अपने स्वाभाविक ज्ञान से यह कार्य करती है। उसे अन्य पक्षियों को उड़ना आता है। मछलियों समुद्री जीव जन्तुओं को स्वाभाविक रूप से तैरना आता है। दूसरी ओर मनुष्य हंसता है, रोता है, माता का दुग्धपान करता है, अपने शरीर की स्वाभाविक क्रियायें करता हैं। सभी योनियों में स्वाभाविक क्रियायें कुछ कुछ भिन्न प्रतीत होती है। इससे यह प्रतीत होता है कि भिन्न भिन्न योनियों में स्वाभाविक ज्ञान में कुछ-कुछ अन्तर है। ऐसा प्रतीत होता है कि भिन्न-भिन्न योनियों में आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान में कुछ भाग ईश्वर प्रदत्त होता है।

हमारा इस पृथिवी पर जन्म हुआ है। माता के गर्भ में हमारा शरीर बना है। हमारे शरीर में एक चेतन अनादि, अविनाशी, नित्य, अल्पज्ञ एवं अल्प शक्ति से युक्त जीवात्मा है। इसके ज्ञान कर्म की सीमा भी अल्प ही है। यह पौरुषेय कार्य ही कर सकता है। अपौरुषेय कार्य इसकी सामर्थ्य से बाहर हैं। यह सृष्टि अपोरुषेय है। इसे मनुष्य नहीं बना सकते। मनुष्यों की उत्पत्ति से पूर्व सूर्य, चन्द्र, प्रृथिवी, ग्रह, उपग्रह एवं समस्त ब्रह्माण्ड की आवश्यकता होती है। उससे पूर्व मनुष्य का जन्म नहीं हो सकता। इस अवधि में यह अनादि अमर जीवात्मा कहां रहता है? इसका हम कुछ अनुमान कर सकते हैं। यह ज्ञात होता है कि आत्मा प्रलयावस्था में आकाश में रहता है। इसे अपने स्वरूप का बोध नहीं होता। एक प्रकार की निद्रा सुषुप्ति की अवस्था रहती है। निद्रा में सुख दुःख होते हैं परन्तु सुषुप्ति अवस्था में शारीरिक दुःख भी नहीं रहता। ऐसी ही अवस्था जीव की प्रलय सृष्टि के बनने से पूर्व होती है। उस अवस्था में जीव की रक्षा कौन करता है? ईश्वर ही तब भी हमारे साथ रहता है। उस अवस्था में भी उसे प्रत्येक जीव के अतीत के कर्मों आदि का पूर्ण ज्ञान होता है। जीवों की वह अवस्था जो दुःख रहित होती है, वह परमात्मा की ही देन है। ईश्वर के पुरुषार्थ से सृष्टि बनती है। भौतिक सृष्टि बनने के बाद अमैथुनी सृष्टि ईश्वर ही करता है। इस अमैथुनी सृष्टि में जीवात्माओं का उनके प्रलय से पूर्व के जन्म जीवनों के अभुक्त कर्मानुसार सुख दुःख भोगने के लिए मनुष्य योनि में जन्म होता है। उसके बाद मैथुनी सृष्टि आरम्भ होती है। इन दोनों अमैथुनी मैथुनी सृष्टि में मनुष्यों अन्य प्राणियों का जन्म परमात्मा के द्वारा ही होता है। जीवात्मा को जन्म देना ईश्वर का जीवों पर कोई छोटा उपकार नहीं है। इसके लिये सभी जीवात्मायें ईश्वर की चिरऋणी हैं। जन्म के बाद मानव शिशु अन्य प्राणियों को पालन करने के लिए माता-पिता आदि चाहियें। यह व्यवस्था भी हमारा ईश्वर ही करता है।

सृष्टि में हमारे भोजन एवं अन्य सभी प्रकार के साधन उपलब्ध हैं। हमें बीज बोना पड़ता है फसल की निराई-गुडाई आदि करनी होती है। ऐसा करके हमें कई गुना अन्न वा खाद्य सामग्री प्राप्त हो जाती है। हमें जीवित रहने के लिये श्वास लेना और छोड़ना पड़ता है। इसके लिये वायु की आवश्यकता होती है। परमात्मा ने पूरी पृथिवी के चारों ओर वातावरण बना रखा है जहां वायु प्रचुरता से कई किलोमीटर ऊंचाई तक उपलब्ध है। हम आसानी से सांस ले पाते हैं। जल भी सर्वत्र उपलब्ध है। मकान बनाने की सामग्री भी उपलब्ध है। कोई पदार्थ ऐसा नहीं जिसकी मनुष्य पशु आदि प्राणियों को आवश्यकता हो और वह प्रकृति में उपलब्ध हो। हमारा जीवन सुख चैन से बीतता है। यह सब परमात्मा के कारण ही सम्भव हुआ है। उसी परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान दिया है। उस ज्ञान से ही हमारे पूर्वज ईश्वर जीवात्मा सहित इस सृष्टि, अपने कर्तव्य अकर्तव्यों को जान पाये थे। आज भी वेदों का ज्ञान सबसे उत्तम, सर्वश्रेष्ठ एवं प्रासंगिक हैं। सभी मत-मतानतरों में अविद्या की बातें हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में इसका दिग्दर्शन कराया है। भिन्न-भिन्न मत वाले लोग अपने हित अहित के कारण अविद्या को छोड़ने और वेद की हितकारी बातों को अपनाने के लिए तत्पर नहीं है। यह स्थिति समस्त मनुष्य समुदाय के लिये हितकर सुखदायक नहीं है। अतः आर्यसमाज द्वारा वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार की नितान्त आवश्यकता है। जिस प्रकार दुष्ट लोग अपने इष्ट कार्यों को करते हैं उसी प्रकार उससे भी अधिक सज्जन लोगों को सज्जनता के श्रेष्ठ कार्य वेदों को पढ़ना-पढ़ाना और सुनना सुनाना सहित सत्य का ग्रहण और असत्य त्याग करना चाहिये। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि भी करनी चाहिये। ईश्वर आत्मा के स्वरुप एवं गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर प्रतिदिन प्रातः सायं ईश्वर की उपासना भी करनी चाहिये। नहीं करेंगे तो हम ईश्वर के प्रति कृतघ्न होंगे जिसका परिणाम दुःख रूप में हमें भविष्य आगामी जन्मों में भोगना होगा।

ईश्वर हमारे सभी पूर्वजन्मों, वर्तमान जन्म तथा भविष्य के जन्मों का भी एकमात्र साथी हैं। पूर्वजन्मों के हमारे सभी साथी छूट चुके हैं और वर्तमान के साथी कुछ समय बाद मृत्यु होने पर छूट जायेंगे परन्तु एक परमात्मा ही भविष्य के सभी जन्मों में हमारा साथी रहेगा और हमें हमारे कर्मानुसार शुभ कर्मों का सुख बुरे कर्मों का फल दुःख प्रदान करता रहेगा। हमें अपने ज्ञान विवेक से ईश्वर की कृपाओं को स्मरण करना चाहिये और वेदविरुद्ध आचरण को छोड़ देना चाहिये। इसी में हमारा कल्याण है। ईश्वर हर क्षण हमारे साथ है। हमें ओ३म् नाम का जप, गायत्री जप, सन्ध्या-उपासना सहित अग्निहोत्र यज्ञ एवं परोपकार के वह सभी कार्य करने चाहिये जिनका उल्लेख वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों में मिलता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।


साभार :


© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.