“वेदों में अग्निहोत्र का विधान इसका ईश्वरप्रोक्त होने का प्रमाण”

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Published on : 28 Apr, 19 06:04

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“वेदों में अग्निहोत्र का विधान इसका ईश्वरप्रोक्त होने का प्रमाण”

वेदों का आविर्भाव सृष्टि के आरम्भ में हुआ था। अन्य सभी मत-मतान्तर विगत लगभग 2500 वर्ष व उसके बाद प्रचलित हुए हैं। मत-मतान्तरों के आविर्भाव पर जब हम विचार करते हैं तो उसका कारण अविद्या सिद्ध होता है। महाभारत काल के बाद समस्त संसार में ज्ञान-विज्ञान का लोप होकर अविद्या तिमिर का प्रसार हुआ जिससे लोग अवैदिक व अज्ञानपूर्ण कार्य करने लगे। अविद्या के कारण अन्धविश्वास बढ़ते गये जिससे मनुष्य को सामान्य जीवन व्यतीत करने में असुविधा होने लगी। इस समस्या के समाधान के लिये तत्कालीन पुरुषों, चिन्तक व विचारकों ने अपनी-अपनी मति व बुद्धि के अनुसार उनको उपलब्ध ज्ञान का प्रचार करने का प्रयास किया जिसने बाद में मत-मतान्तर का रूप ग्रहण कर लिया। सभी मतों की पुस्तकों की परीक्षा करने पर एक सामान्य बात दृष्टिगोचर होती है कि वेद व ऋषियों के ग्रन्थों के अतिरिक्त महाभारत काल के बाद ऐसा कोई मत उत्पन्न नहीं हुआ जिसमें अविद्या न हो। यदि इन मतों में अविद्या न होती तो किसी को भी कोई कष्ट व परेशानी न होती। अविद्या के कारण ही इन मतों व इनसे भिन्न मतों के मानने वालों के बीच समस्यायें उत्पन्न होती गईं। लोगों को इन समस्याओं का मूल कारण पता नहीं चला। नये-नये लोग उत्पन्न होते गये और नये-नये मतों का प्रचलन होता रहा। कुछ मतों में कट्टरता के कारण उनमें अधिक मतों व उनकी अधिक शाख्चाओं का आविर्भाव वा प्रचलन नहीं हुआ तथापि सभी मतों की कुछ शाखायें अविद्या व अन्य कारणों से उत्पन्न हुईं और आज तक ज्ञान व विज्ञान की वृद्धि होने पर भी उनमें परस्पर सौहार्द व मेलजोल स्थापित नहीं हो सका है। महाभारत के बाद जो मत अस्तित्व में आये, उनमें से किसी में अग्निहोत्र देव-यज्ञ का विधान व उल्लेख नहीं है। इसका कारण उन मतों का मनुष्यों से उत्पन्न होना जो स्वभाव व प्रकृति से अल्पज्ञ होते हैं, होना है। अल्पज्ञ का अर्थ एकदेशी आत्मा होता है जो सर्वव्यापक सर्वज्ञ परमात्मा के समान निर्भ्रान्त ज्ञान को कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। ईश्वर भी इस व्यवस्था को बदल नहीं सकता है। यह भी तथ्य है कि ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में एक ही बार चार ऋषियों को उत्पन्न कर उन्हें एक-एक वेद का ज्ञान देता है। उसके बाद प्रलय पर्यन्त वह किसी मनुष्य या विद्वान को ज्ञान नहीं देता।

अग्निहोत्र करने की आज्ञा वेदों में की गई है। वेद परम पिता ईश्वर का ज्ञान है। मनुष्यों का यह सामर्थ्य नहीं कि वह वेदों की रचना कर सकें। मनुष्य अनेक प्रकार की रचनायें करने में समर्थ है। उसने कम्प्यूटर, वायुयान, रेलगाड़ी, बडे-बड़े भवन, जलयान, मोबाइल फोन, टीवी आदि नाना प्रकार के जटिल कार्यों को करके दिखाया है। इतना होने पर भी मनुष्य वा वैज्ञानिक मनुष्य की आंख, नाक, कान, अंगुली, इन्द्रियां, मन व बुद्धि आदि मानव शरीर के अंग-प्रत्यंगों को कभी नहीं बना सकते। इसी प्रकार वेद ज्ञान की उत्पत्ति भी मनुष्य कदापि नहीं कर सकते। मनुष्यों ने अनेक मत चलायें हैं परन्तु वह सभी अविद्या से युक्त हैं और विष सम्पृक्त अन्न के समान त्याज्य हैं। परमात्मा की कृति निर्दोष होती है। वेद में कही सभी बातें वा मान्यतायें सत्य एवं सृष्टि क्रम सहित विज्ञान के भी अनुकूल हैं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने ज्ञान दिया था। वेद वही ज्ञान है। वेदों में अग्निहोत्र की आज्ञा होने से सभी मनुष्यों का कर्तव्य हैं कि वह दैनिक यज्ञ किया करें। जो नहीं करते वह ईश्वर की आज्ञा तोड़ने के दोषी होते हैं। प्राचीन काल में सभी लोग यज्ञ किया करते थे। यहां तक कि राम व कृष्ण जी भी यज्ञ किया करते थे। इसके प्रमाण रामायण एवं महाभारत में उपलब्ध होते हैं। यज्ञ क्यों किया जाता है और इससे क्या लाभ होते हैं, इसके लिये महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि में जो कहा है, उसे हम प्रस्तुत करते हैं।

महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि अग्नि वा परमेश्वर के लिए, जल, और पवन की शुद्धि, वा ईश्वर की आज्ञा पालन के अर्थ होत्र-जो हवन, अर्थात् दान करते हैं, उसे “अग्निहोत्र” कहते हैं। केशर, कस्तूरी आदि सुगन्ध, घृत-दुग्ध आदि पुष्ट, गुड़-शर्करा आदि मिष्ट तथा सोमलतादि रोगनाशक ओषधि, जो ये चार प्रकार के बुद्धि वृद्धि, शूरता, धीरता, बल और आरोग्य करनेवाले गुणों से युक्त पदार्थ हैं, उनका होम करने से पवन और वर्षा-जल की शुद्धि करके शुद्ध पवन और जल के योग से पृथिवी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उससे सब जीवों को परम सुख होता है। इस कारण उस अग्निहोत्र कर्म करनेवाले मनुष्यों को भी जीवों का उपकार करने से अत्यन्त सुख का लाभ होता है तथा ईश्वर भी उन मनुष्यों पर प्रसन्न होता है। ऐसे-ऐसे प्रयोजनों के अर्थ अग्निहोत्रादि का करना अत्यन्त उचित है।

यज्ञ करने से मनुष्यों को अनेक लाभ होते हैं। ईश्वर की आज्ञा का पालन करने से हम पाप करने से बचते हैं तथा यज्ञ के रूप में जिसे ऋषि दयानन्द महायज्ञ कहा है, हम पुण्य के भागी होते है। यज्ञ से वर्षा जल व वायु की शुद्धि होने से मनुष्यों की अनेक प्रकार के साध्य व असाध्य रोगों से रक्षा होती है। वह स्वस्थ रहने से दीर्घायु एवं बलवान होते हैं। रोगरहित, स्वस्थ तथा बलवान मनुष्य अधिक सुखी होता है। यह सबसे मुख्य लाभ यज्ञ करने से मनुष्यों को मिलता है। मनुष्य का परजन्म भी यज्ञ करने से सुधरता है। यज्ञ ईश्वर वा मोक्ष प्राप्ति में भी अग्निहोत्र यज्ञ सहायक है। यज्ञ से किसी का अपकार नहीं होता अपितु सभी जीवों वा मनुष्य आदि प्राणियों को अनेक प्रकार के लाभ यज्ञ से होते हैं। यज्ञ करने पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती है। वर्षा का जल खेतों वा कृषि कार्यों के उत्तम खाद का काम करता है। वर्षा जल से उत्पन्न अन्न की गुणवत्ता श्रेष्ठ होती है। यज्ञ करने से मनुष्य का आत्मा पवित्र भावों से युक्त होता है। यज्ञ से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना भी होती है जिसका लाभ ईश्वर से मनोवांछित सुख प्राप्ति के रूप में होता है। यज्ञ का एक लाभ यह भी होता है कि इससे निवास स्थान वा गृह का वायु गर्म होकर हल्का हो जाता है और रोशनदान, खिड़की व दरवाजों से बाहर चला जाता है। इससे जो अवकाश उत्पन्न होता है उसमें बाहर का शुद्ध वायु शीतल होने से भारी होता है वह घर के भीतर आता है। यज्ञ करने से रोग कृमि मरते व दूर भागते हैं। हमारा अनुभव है कि जिस परिवार में यज्ञ होता है और जहां देशी गाय के दूध का सेवन किया जाता है वहां घर व परिवार के सदस्यों में रोग बहुत कम होते हैं। अभाव दूर होते हैं तथा समृद्धि आती है। बच्चे शुद्ध व पवित्र बुद्धि वाले होते हैं और शिक्षा व विद्या की दृष्टि से वह अन्यों से अधिक उन्नत होते हैं। ऐसे अनेक लाभ यज्ञ वा अग्निहोत्र को करने से होते हैं।

हमारा यह अनुमान व मत है कि यदि वेद ईश्वर ज्ञान न होता तो उसमें ईश्वर के सत्यस्वरूप, जीवात्मा के स्वरूप व यज्ञ आदि का सत्य-सत्य वर्णन होना सम्भव नहीं था। ईश्वर, जीव, प्रकृति, यज्ञ व हमारे अन्य कर्तव्यों का ज्ञान कराने के कारण वेद हमारा परम धर्म है। हमें वेदों का स्वाध्याय करने के साथ दूसरों को वेदों को सुनाना चाहिये। हम जितना वेदों को जानते हैं उससे अधिक जानने का प्रयत्न करना चाहिये और जितना हम जान पाते हैं उतना दूसरों को भी बताना व पढ़ाना चाहिये। इससे हमें व अन्यों को लाभ होगा। जीवात्मा की सबसे बड़ी उपलब्धि सत्य ज्ञान की प्राप्ति ही होती है। धन की प्राप्ति व इसका लाभ तब तक ही होता है जब तक हम स्वस्थ रहते हैं। उसके बाद वृद्धावस्था व मृत्यु के बाद मनुष्य का ज्ञान, उसके संस्कार तथा कर्म पूंजी ही परलोक में सहायक होती है। हम जितना यज्ञ करेंगे उससे हमारे शुभ कर्मों का संचय बढ़ेगा और हम परजन्म में मोक्ष को न भी प्राप्त करें परन्तु श्रेष्ठ मनुष्य वा देवयोनि सहित अनेक प्रकार के सुखों को अवश्य प्राप्त होंगे, यह सुनिश्चित है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि हम कभी वेद विरुद्ध जड़-मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष आदि अवैदिक कृत्यों को न करें और न ही इनमें विश्वास रखें अन्यथा हम अपने भविष्य के सुखों को कम व नष्ट करेंगे। ओ३म् शम्।


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