पुरातत्व संपदा का धनी- बारां

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Published on : 08 Apr, 19 06:04

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

पुरातत्व संपदा का धनी- बारां

कोटा |    बारां जिला पुरातत्व की दृष्टि से राजस्थान में अपना विशेष स्थान रखता है। कृष्ण विलास, अटरू, छीपाबड़ौद, अतां, रामगढ, सीताबाड़ी, शाहबाद, शेरगढ आदि स्थलों पर पुरामहत्व की दृष्टि से तीसरी शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी के अवशेष किले, मदिंरो, मस्जिद, छतरियों के रूप मे बडे़ पैमाने पर मिलते हैं। जिले को पुरातत्व का भंडार कहा जाये तो अतिश्योक्ति नही होगी। प्राकृतिक दृष्टि से वन एवं नदियो्र की संपदा जिले का श्रृगांर करती हैं। वनों एवं पहाड़ो के मध्य खूबसूरत प्राकृतिक देह एवं खो बने हैं। शेरगढ का दुर्ग जल दुर्ग का बेहतरीन उदाहरण है। यहॉ उत्पादित चावल एवं धनिये की महक पूरे देश में प्रसिद्व है।

        माना जाता है कि बारां की स्थापना 14वीं-15वीं शताब्दी में सोलंकी राजपूतों द्वारा की गई । उस समय इसमें 12 गांव आते थे इसलिए यह नगर बांरा कहलाया। रियासत के समय बांरा कोटा राज्य की निजामत थी । वर्ष 1975 में राजस्व प्रशासन के पुनर्गठन के समय बांरा को उपखण्ड़ बनाया गया । आगे चलकर 10 अप्रैल 1991 को कोटा से अलग कर बांरा नाम से नया जिला बनाया गया और इसमें बांरा सहित किशनगंज, शाहबाद ,अंता, छबड़ा, छीपाबड़ोद, मांगरोल, अटरू तहसीलें शामिल की गईं।बांरा जिला राज्य के दक्षिणी पूर्वी भाग में 24.24’ से 25.25’ उत्तरी अक्षांश एवं 76़.12 से 77.26’पूर्वी देशान्तरो के मध्य स्थित हैं ।जिले का क्षेत्रफल 6992 वर्ग कि0मी है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक जिले की कुल जनसंख्या 12,13,921 है। परवन,पार्वती एवं कालीसिंध प्रमुख नदियां हैं।

  शाहबाद तहसील में जिलें की सबसे ऊॅची पर्वत चोटिंया हैं। काफी बड़ा भू-भाग वन क्षेत्र है। जिले का तापमान गर्मियों में 46 डिग्री सेन्टीग्रेट तक पहुॅच जाता है। यहॉ औसत वर्षा 60 सेन्टीमीटर होती है। वन्य जीवों की दृष्टि 30 जुलाई 1983 को ‘शेरगढ़ अभयारण्य ’ घोषित किया गया । करीब 98.70 वर्ग कि0मी में फैले अभ्यारण्य में बघेरा, रीछ, लोमड़ी, चीतल, सांभर, चिंकारा, नेवले, खरगोश, जंगली सूअर आदि जीव जन्तु पाये जाते हैं। सोरसन राज्य पक्षी गोडावण के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है। अमलसरा एवं नियाणा तालाबां पर प्रवासी पक्षी देखे जा सकते हैं।

     बांरा शहर में बूंदी की राजमाता रायकुंवर बाई द्वारा संवत 1537 में बनवाया गया श्री कल्याणराय जी का मंदिर अंचल श्रद्धा का केन्द्र है। चौमुखा बाजार में स्थित सांवला जी का कलात्मक मंदिर कोटा के महाराव भीमसिंह प्रथम ने संवत 1766 में बनवाया था । डोल तालाब के समीप स्थित प्यारेलाल जी का मंदिर निज मंदिर है। मंदिर में लक्ष्मण जी,चारभुजा जी,राम -जानकी एवं भरत की प्रतिमाए हैं। यहां रामानंदी सम्प्रदाय के गुदड़ी पंथ की पीठ रही है। भूतेश्वर ,रघुनाथजी,सत्यनारायण जी मंदिरां सहित नगर में करीब 200 मंदिर हैं। प्राचीन 17 वीं सदी का जोड़ला जैन मंदिर सहित नगर के पूर्व में स्थित दिगम्बर जैन क्षेत्र नसिया जी सिद्ध क्षेत्र माना जाता है। यह नगर 19 वीं सदी में एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था।

     जिले में चावल,सरसो,गेहॅू तथा धनिये की अच्छी पैदावार होती हैं। यहां की मण्ड़ी प्रदेश की बड़ी मंडि़यां में शुमार है। जिला बनने के बाद यहां औद्योगिक क्षेत्र विकसित किया गया। कलेक्ट्रेट (मिनी सचिवालय) न्यायालय कार्यालय शहर के बाद कोटा मार्ग पर बनाये गये। रेलवे स्टेशन से जाने वाली शहर की सड़क को चौड़ा किया गया । रेल लाईन पर ओवर ब्रिज बनाये गये। बारां शहर निरंतर विकास की ओर अग्रसर है। वर्तमान में करीब 60 तेल मिलें एवं चावल मिलें तथा स्टील,लोहा एवं पीतल के बर्तन बनाने की लगभग 150 इकाइयां कार्यरत हैं। बारां के समीप मांगरोल में खादी हस्तशिल्प का कार्य प्रसिद्व है।

      सांस्कृतिक दृष्टि से बांरा में भाद्र माह की शुक्ल पक्ष एकादशी अर्थात जलझूलनी एकादशी को भव्य शोभा यात्रा एवं डोल मेले का आयोजन जिले का सबसे बड़ा मेला है। मंदिरों में पन्द्रह दिन पहले देव विमान सजाने की तैयारी शुरू हो जाती हैं। डोल यात्रा में करीब 52 मंदिरां की श्रृंगारित देव विमान झांकियां शामिल होती है। श्रीजी के विमान को दर्जन भर व्यक्ति कंधे पर उठाकर चलते है। चौमुखा चौक पर रघुनाथ जी एवं श्रीजी विमानों का ‘‘मिलन’’एव ‘‘नमन’’होता है। डोल तलाब पर विमानां को पंक्तिब़द्ध रखकर जलवा पूजन किया जाता है। बांरा का डोल मेला राजस्थान में प्रसिद्ध है।कला संस्कृति की दृष्टि से डोल मेले के साथ किशनगंज में होली पर फूल डोल उत्सव की निराली शान है। इसमें विभिन्न प्रकार के स्वांग आकर्षण का केन्द्र होते हैं। सीताबाड़ी में ज्येष्ठ माह में आयोजित पन्द्रह दिवसीय मेला,‘सहरिया आदिवासियों का कुंभ’ कहा जाता है। छबड़ा के चाचोंड़ा गांव में कंजर बालाओ का ‘चकरी नृत्य’ तथा शाहबाद में सहरियों का’ शंकरा नृत्य’ ने आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाली है। कंजर बालाआें का नृत्य चमत्कृत करता है। वहीं सहरियों के नृत्य में आदिवासियां के अनूठे स्वांग मोहने वाले होते हैं। सोरसन में शिवरात्रि को ब्रम्हाणी माता मेले के साथ गधां का मेला भरता है। अटरू नामक स्थान पर आयोजित होने वाली ‘ढाई कड़ी की धनुष लीला एवं पाटुन्दा की रामलीला प्रसिद्व है। अटरू के पिप्लोद  गांव में बड़े दिन पर किस्मस मेला आयोजित किया जाता है। इसाई बाहुल्य पिप्लोद गांव में जिले का एक मात्र चर्च है। सभी पर्व जिले मे उत्साह पूर्वक मनाये जाते हैं। मांड़ना एवं सांझी प्रमुख लोक कलाएं हैं।

     आवागमन की दृष्टि से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 27 (पिंड़वाडा - शिवपुरी ) बांरा से गुजरता है। कोटा -बीना रेलवे लाईन पर प्रमुख स्टेशन है। बस सेवा द्वारा मध्य प्रदेश राज्य तथा राजस्थान के प्रमुख शहरो से जुड़ा है।   बांरा कोटा से 72 कि.मी. दूर राश्ट्रीय राजमार्ग 27 पर स्थित बांरा जिला मुख्यालय है। पश्चिम-मध्य रेल्वे मण्डल की कोटा-बीना रेलवे लाईन पर स्थित बांरा प्रमुख रेलवे  स्टेशन है। 

     किसी समय बारां की बसावट परकोटे के भीतर थी परन्तु आज इसकी बसावट ने व्यापक विस्तार तो किया है। रियासत के समय बांरा कोटा राज्य की निजामत थी। वर्ष 1975 में राजस्व प्रशासन के पुनर्गठन के समय बांरा को उपखण्ड बनाया गया। आगे चलकर 10 अप्रेल 1991 को कोटा से अलग कर बांरा नाम से नया जिला बनाया गया और इसमें बांरा सहित किशनगंज, शाहबाद अंता, छबड़ा, छीपाबड़ोद, मांगरोल, अटरू तहसीलें शामिल की गई।            

 शाहबाद का किला      

         बांरा जिला मुख्यालय से करीब 82 कि.मी. दूर स्थित षाहबाद का किला आज खण्डर होकर अपने वैभवशाली अतीत की कहानी सुनाता है। यह दुर्ग राज्य के ही नहीं भारत के सुदृढ दुर्गों में माना जाता है। प्राकृतिक स्थिति रणथम्भौर के दुर्ग के समान है। बताया जाता है कि चौहान राजा मुघुटमणी राज ने 1521 ई. में इसका निर्माण षुरू करवाया था। ऊँचे पर्वत पर बने दुर्ग के दो तरफ “कुण्ड खो” नामक पानी का चष्मा है जो प्राकृतिक खाई का कार्य करता है। तीसरी ओर एक तालाब है। चौथी ओर पहाड़ी मार्ग दुर्ग तक जाता है। खण्डहर होकर भी दुर्ग का परकोटा काफी सुरक्षित स्थित में है। यहां करीब 10 भग्न मंदिर, बाणदखाना, बावड़ी आदि बने हैं। बताते हैं कि किलेकी बुर्जो पर 18 तोंपे रहती थी। ज्ञात होता है जब यहां किला बनाया गया करीब 60 हजार की व्यवस्थित बसावट हो गई थी। षाहबाद का का नाम षेरषाह या ओरंगजेब का दिया माना जाता है। मुगल साक्ष्य से पता चलता है कि यहां का राजा मुगलों का मनसबदार था।     

        चौहान  शासक इन्द्रमन के समय राजसी भवसन “ बादल महल” का निर्माण कराया गया। इसके अवषेश आज भी देखें जा सकते हैं। यह महल भवन निर्माण एवं पाशाण कारीगरी का उत्कृषट नमूना है। विशाल द्वार एवं अलंकृत है। दरवाजे के साथ एक ऊँचे चबूतरे पर दोनों ओर बड़ी-बड़ी पाशाण प्रतिमाऐं स्थापित थी। यह एक पंख युक्त हाथी की उड़ती हुंई प्रतिमांए जो अपनी सूंड एवं चारों पैरों में पांच छोटे-छोटे हाथी लेकर उड़ रहे हैं। यह दोनों प्रतिमाऐं आज भी कोटा कलेक्ट्रेट परिसर में जिला कलेक्टर कार्यालय भवन में नीचे लगी हुई है। स्थानीय लोग इस विचित्र प्रतिमाओं को “ अलल पंख” कहते हैं।

जामा मस्जिद      

       शाहबाद बागर के मध्य स्थित जामा मस्जिद की निर्माण कला देखते ही बनती है। यह राजस्थान की बड़ी मस्जिदों में गिनी जाती है। मस्जिद की 150 फीट ऊँची मीनारें देखते ही बनती हैं। मीनारों के ऊपर आकर्शक छतरियां बनाई गई हैं।      शाहबाद में औसती एवं तपसी बावडि़यां, राव उम्मेदसिंह द्वारा निर्मित थानेदार ठाकुर नाथुसिंह की छत्तरी तथा कल्याणराय मंदिर दर्षनीय है। फाल्गुन माह में यहां रामेष्वर मेले क क्षेत्र में काफी महत्व है।.

कपिल धारा      

     नाहरगढ़ ग्राम किशनगंज से कुछ ही दूरी पर स्थित कपिल धारा एक धार्मिक महल का प्राकृतिक स्थल है। कार्तिक पूर्णिमा को यहां मेला भरता है। भगवान कपिल के तपोबल से गंगा की धारा उत्पन्न होने के कारण इसे कपिल धारा कहा जाता है। यहां पर्वत पर स्थित गौमुख से कपिल धारा गिरती है। षिवकुण्ड में भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित है। इस कुण्ड में पर्वत के झरने का पानी आता है। दर्षकों को षिव कुण्ड तक लगभग पचास फीट ऊपर चढना पड़ता है। षिव कुण्ड के समीप ही षिव मंदिर है।

शेरगढ़ का किला    

       बांरा से करीब 65 किमी दूर अटरू तहसील में परवन नदी पर शेरगढ़ दुर्ग राजस्थान में जल दुर्ग का महत्तपूर्ण उदाहरण हैं। दुर्ग के द्वार, मेहल तोपखानें आदि के अवषेशों के साथ लक्ष्मी मंदिर एवं जैन प्रतिमाऐंदेखने को मिलती हैं। शेरगढ़ में बोरखेड़ी दरवाजे की बांयी ओर सीढि़यों नीचे एक ताक में कोशवर्धन नाम से नागवंशी राजा देवदत्त का विक्रम संवत 870 का संस्कृत भाषा का एक लीख उत्कीर्ण है, जिसमें बौद्ध विहार बनाये जाने का जिक्र है। यहां पाये जाने वाले लेखों से पता चलता है कि पूर्व मे किसी ने यहां सोमनाथ महादेव मंदिर बनवाया था। जिसे बाद में मंदिर की सामग्री का उपयोग कर लक्ष्मीनारायण मंदिर बना दिया गया। यहां तीन जैन मंदिर प्रतिमाओं पर 11वीं सदी के लेख उत्कीर्ण है। षेरगढ़ में शेरशाह सूरी द्वारा बनवाई गई दीवार के पत्थर पर भी 11वीं सदी के लेख हैं। यहां पाये गये 1867 वि.सं.  के एक लेख से ज्ञात होता है कि पहले षेरगढ़ का नाम बरसाना था। दुर्ग की प्राचीर एवं बुर्जें अभी भी सुरक्षित स्थिति में है। दुर्ग के पुरातत्व विभाग के संरक्षण में संरक्षित स्मारक बनाया गया है। वर्श 1983 ईं में शेरगढ़ अभ्यारण घोषित किया गया जो 98.71 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में है। यहां मुख्यतः लोमड़ी, चीतल, सांभर, जरख, रीछ एवं बघरा आदि वन्य जीव पाये जाते हैं।

भण्डदेवरा     

     बारां जिला मुख्यालय  से करीब   40 किलोमीटर  दूर किशनगंज तहसील में रामगढ़ की पहाडिय़ों की तलहटी में 10 वीं शताब्दी   में मलयवर्मन द्वारा निर्मित भण्डदेवरा मंदिर स्थित है। 13वीं शताब्दी में मेढ़वंशीय शासकों द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। किन्नर, देवी-देवता, अप्सराएं, गधर्व, युगल मूर्तियां यहां खूबसूरती से कलात्मक रूप में देखने को मिलती हैं। खजुराहो सदृश्य होने से इस मंदिर को राजस्थान का ’मिनी खजुराहो कहा जाता है। रामगढ़ की पहाड़ी पर किशनई माता का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां तक पहुंचने के लिए झाला जालिम सिंह ने 715 सीढिय़ों का निर्माण कराया था।सीताबाड़ी       

      बारां जिला मुख्यालय से करीब 45 किलोमीटर दूर केलवाड़ा के समीप सीताबाड़ी नामक धार्मिक एवं रमणीक स्थल क्षेत्रीय लोगों की आस्था का विशेष केन्द्र है। यहां सीता माता, सूर्य, लक्ष्मण एवं बाल्मिकी के देवालय बने हैं। यहां बने सूर्य मंदिर एवं सूर्य कुण्ड तथा लक्ष्मण मंदिर एवं लक्ष्मण कुण्ड के प्रति श्रृद्धालुओं की विशेष आस्था है, जो इन कुण्डों में स्नान कर दर्शन करते हैं। मान्यता है कि महर्षि बाल्मिकी का यहां आश्रम रहा होगा। यहां सीता ने अपना निवर्सन काल व्यतीत किया। मई-जून में प्रतिवर्ष यहां मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में स्थानीय जनजाति सहरिया विशेष रूप से बड़ी संख्या में भाग लेते हैं, जिस कारण इसे सहरियों का कुम्भ भी कहा जाता है। मेले में सहरिया जनजाति की संस्कृति भी देखने को मिलती है। यहां बने जलकुण्डों में श्रृद्धालु स्नान कर मृतकों की आत्मा की शांति के लिए पिण्डदान करने की रस्म भी निभाते हैं। मेले में मनोरंजन के विविध साधन होते हैं और साथ ही पशु मेला भी आयोजित किया जाता है।

सौरसन संरक्षित क्षेत्र     

      काले हिरणों एवं चिंकारों को झुण्ड में विचरण करते एवं कुलाचें भरते भागते हुये देखना है तो चले आईये सौरसन संरिक्षत क्षेत्र । यह स्थल कोटा-बांरा मार्ग पर पलायथा से अमलसरा के रास्ते पर स्थित है। यह क्षेत्र गोडावण के लिए भी जाना जाता है। यहां भेडिया, लोमड़ी, सियार, जंगल सुअर, जंगली खरगोष एवं लंगूर भी पाये जाते हैं। समीप बहने वाली परवन नदी में मगरमच्छ तथा मैदानी भाग में सर्प, गोह आदि रेंगने वाले जीव भी देखें जा सकते हैं। यहां करीब 100 से अधिक प्रकार के स्थानीय और अप्रवासी पक्षी पाये जाते है। सारस, जांघिल, तीतर, बतख, बटेर तथा इंडियन कोर्सर स्थानीय पक्षियों सहित है, रियर्स, यूरोपीयन सारस, तिल्लतौर आदि प्रवासी पक्षी देखे जाते हैं। उप न संरक्षक (वन्य जीव ) से अनुमति प्राप्त कर उसे देखा जा सकता है।

ब्रह्माणी माता का मंदिर   

       जिले की अन्ता तहसील में सोरसन गांव में स्थित ब्रह्माणी माता के मंदिर का महत्व इस बात से है कि संभवतः पूरे देश में माता का यह पहला ऐसा मंदिर है, जहां देवी की पीठ पूजी जाती है, जिसका श्रृंगार किया जाता है। चारों ओर ऊंचे परकोटे से घिरा यह शैलाश्रय गुफा मंदिर है। यहां प्रतिदिन देवी की पीठ की पूजा-अर्चना की जाती है। विगत 450 वर्षों के अधिक समय से अखण्ड ज्योत प्रज्जवलित है। मंदिर परिसर में प्राचीन शिव मंदिर एवं गौड़ ब्राह्मणों का सती चबूतरा भी बनाया गया है। मंदिर के समीप सोरसन संरक्षित क्षेत्र हिरन, कृष्ण मृग एवं गोडावन के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है।बिलास (कन्यादेह)      

    किशनगंज पंचायत समिति की पंचायत विलासगढ़ को प्राचीन समय में “कृष्ण विलास” कहा जाता था। यह स्थल भंवरगढ़ से पहली रामपुरिया गांव से करीब चार किलो मीटर दूरीपर है। यह रास्ता पैदल पार करना होता है। कन्यादेह से विलासगृह तक आसपास करीब तीन किलोमीटर क्षेत्र मे ध्वस्त पुरातत्व महत्तव के प्राचीन मंदिरों की श्रृंखला देखी जाती है। विलास नदी के बांई ओर स्थित है, बिलासगढ। डॉ. मथुरालाल शर्मा के मुताबिक यहां भव्य मदिर 10वीं, 11वीं शताब्दी में नष्ट हुये होगें। उनके कथन एवं अन्य प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि 7वीं-8वीं शताब्दी में विलास नगर वैभवशाली नगर रहा होगा। कन्यादेह के नाम से आज स्थल प्रसिद्ध है। यह एक प्राकृतिक एवं रमणिक स्थल है। यहां के मंदिर हिन्दू और जैन धर्म से सम्बंधित है। मुख्य स्मारक छीपों की चांदनी, चारखंभा मंदिर, जैन मंदिर तथा प्रतिमायें हैं। चार कलात्मक खंबों की भव्यता अत्यंत लुभावनी है। यहां एक छोटा सा स्थल संग्रहालय भी बना दिया गया है। इसमें यहां से प्राप्त मूर्तियों एवं कलात्मक प्रस्तर खण्ड रखे गये हैं। कुछ प्रतिमाओं को कोटा एवं झालावाड़ के संग्रहालयों में तथा असपास के मंदिरों में सुरक्षित कर दिया गया है। यहां के स्मारक केन्द्रीय पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित कर दिये गये हैं। ज़िले के अटरू एवं काकुनी में भी पुरातत्व महत्व के मंदिर भग्न स्थिति में मिलतें हैं।

अंता      

   कोटा से 60 किलोमीटर एवं बांरा से 28 किलिमीटर पहले अंता में गोवर्धन जी एवं अनन्त भगवान के मंदिर हैं। अंता से 4 किलोमीटर दूरी पर काली सिंध नदी के किनारे पर स्थित है, नागदा का षिव मंदिर दर्षनीय है। यहां पर शीवरात्रि पर मेला भरता है, अंता के समीप बड़वा से तीसरी षताब्दी के यूप (यज्ञ स्तंभ) पाये गये हैं, जो अब कोटा राजकीय संग्रलाय में सुरक्षित हैं।      .

      अंता का महत्तव सबसे अधिक इससे है कि यहां बनने वाली कण्ठिंया पूरे भारत वर्श में जाती है। आस-पास के करीब 6 गांवों में हिन्दू-मुसलमानों के 125 परिवार कण्ठियां बनाते है। अलसी की एक माला एक तने से बनती है। कुछ समय पूर्व तक प्रतिमाह 15 से 20 बोमे कण्ठियां हरिद्वार जाती थी। प्लास्टिक की मालाओं का प्रचलन बढ़ जाने से अब इनकी आपूर्ति में कमी हो गई है।


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