“परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ ऋषियों के हृदयों में वेदों का ज्ञान दिया थाः आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री”

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Published on : 19 Mar, 19 04:03

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ ऋषियों के हृदयों में वेदों का ज्ञान दिया थाः आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री”

आर्यसमाज धामावाला देहरादून ऋषि दयानन्द के करकमलों से स्थापित आर्यसमाज है। ऋषि दयानन्द अपने जीवनकाल में दो बार देहरादून पधारे थे। उन्होंने यहां धर्मोपदेश दिये थे और विधर्मियों से धर्म चर्चायें भी की थी। देहरादून के एक रईस के दो पुत्र ईसाई स्कूल यूसीएनआई में पढ़ते थे। आज भी यह स्कूल संचालित है। इन युवकों ने अपने शिक्षकों के प्रभाव में आकर ईसाई बनने का निर्णय कर लिया था। देहरादून निवासी ऋषिभक्त पं0 कृपाराम व उनके साथी इस बात से संतप्त थे। उन्होंने ऋषि दयानन्द जी को इसकी जानकारी दी थी और उन्हें देहरादून आकर इन युवकों को समझाने का अनुरोध किया था। ऋषि ने अपनी पहली यात्रा में इन युवकों से भेंट कर उन्हें वेद और वैदिक धर्म की विशेषताओं एवं ईसाईमत की युक्तिहीन असत्य व असंगत बातों का उल्लेख कर वैदिक धर्म पर स्थिर बने रहने में सफलता प्राप्त की थी। इससे ईसाई पादरी व अंग्रेज अधिकारी किस सीमा तक नाराज हुए होंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने देहरादून में एक जन्मना मुसलमान मोहम्मद उमर को, जिसके पूर्वज वैदिक धर्मी थे, उनके अनुरोध पर परिवार सहित आर्य धर्म में दीक्षित भी किया था और उसका नाम अलखधारी रखा था। ऋषि दयानन्द के आगमन के समय यहां दादू पन्थी मत के आचार्य स्वामी महानन्द सरस्वती का आश्रम ‘‘महानन्द आश्रम” था। यह आचार्य ऋषि दयानन्द से सन् 1867 के हरिद्वार-कुम्भ में उनसे मिले थे और वहां इन्होंने ऋषि दयानन्द के पास चार वेदों के दर्शन भी किये थे। वह ऋषि के उपदेशों से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। ऋषि के देहरादून आने पर इन्होंने आर्यधर्म को अपनाया और अपने मठ को आर्यसमाज मन्दिर का रूप दिया। इसी मन्दिर में मोहम्मद उमर जी की शुद्धि की जाने का अनुमान हम करते है।

 

                आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के सत्संग में दिनांक 17-3-2019 को प्रातः 8.30 बजे से यज्ञ हुआ। यज्ञ के बाद आर्यसमाज धामावाला द्वारा संचालित श्रीमद् श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम की कन्याओं ने भजन प्रस्तुत किये। आर्यसमाज के पुरोहित श्री विद्यापति जी आर्यसमाज के भजनों को बहुत मधुर स्वर में संगीत के नियमों में बांधकर प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करते हैं जिनसे श्रोता झूमने लगते हैं। इस अवसर पर उनका भी एक भजन हुआ। इसके पश्चात बाल-वनिता-आश्रम के 7-8 वर्ष के एक छोटे बालक श्री आकाश ने सामूहिक प्रार्थना कराई। इस बालक ने जिस आत्म-विश्वास से सामूहिक प्रार्थना कराई, वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। उन्होंने प्रार्थना के आरम्भ में गायत्री मन्त्र का पाठ किया और उसके बाद उसका पद्यानुवाद गाकर प्रस्तुत किया। गायत्री मन्त्र के बाद उन्होंने सर्वे भवन्तु सुखिनः श्लोक का पाठ किया। बालक आकाश ने हिन्दी भाषा में प्रार्थना की। प्रार्थना की कुछ पंक्तियां थी कि सूर्य व चन्द्रमा ईश्वर के बनाये नियमों में बन्धें हैं। हम भी वेदों में ईश्वर द्वारा कहे गये नियमों का पालन करें। हम सभी प्राणियों के प्रति स्वात्मवत् व्यवहार करें। हमारा जीवन त्यागमय हो और हम परोपकार व सेवा करते हुए समाज में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को साकार करें। ईश्वर हमारी प्रार्थना को स्वीकार करे।

 

                सामूहिक प्रार्थना के बाद आर्यसमाज के विद्वान पुरोहित पं0 विद्यापति शास्त्री जी ने सत्यार्थप्रकाश के त्रयोदश समुल्लास का पाठ किया। पुरोहित जी ने सत्यार्थप्रकाश पढ़कर बताया कि ईसाईयों का ईश्वर भेड़ों की भेंट स्वीकार करता है। इससे ज्ञात होता है कि उनका ईश्वर मांसाहारी है। उसे भूख भी लगती है और इस प्रकार उसमें मानसिक विकार भी उत्पन्न होता है। बाईबिल में यह भी आता है कि ईश्वर मनुष्य एवं पशु-पक्षियों के व्यवहार से परेशान हो गया और उसने इन्हें नष्ट करने का विचार किया। ईश्वर प्राणियों को बनाकर पश्चाताप भी किया। ऋषि दयानन्द ने अपने वेदों के ज्ञान और ईश्वर के सत्यस्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव संबंधी ज्ञान के आधार पर ईश्वर विषयक इस प्रकार की बातों की सत्यता को चुनौती दी है। वह लिखते हैंं कि यह व्यवहार ईश्वर में घटना सम्भव नहीं है। बाईबिल पुस्तक की बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि यह पुस्तक ईश्वर का बनाया तो क्या किसी विद्वान द्वारा बनाया हुआ भी नहीं है। पुस्तक की बातों का अध्ययन करने से यह भी जानकारी मिलती है कि ईश्वर भविष्य की उन बातों का ज्ञान नहीं रखता जो कि ईश्वर कहे व माने जाने के कारण उसको होनी चाहिये। बाईबिल पढ़कर यह नहीं कहा जा सकता कि ईश्वर सर्वज्ञादि गुणों से युक्त है। पुरोहित श्री विद्यापति जी ने परमात्मा को आनन्दस्वरूप बताया और कहा कि शरीर रहित होने के कारण उसे भूख नहीं लगती और न ही उसे किसी प्रकार के भोजन की ही आवश्यकता है। पुरोहित जी ने सत्यार्थप्रकाश पढ़कर यह भी बताया कि बाईबिल में बहुत सी असम्भव बातें लिखी हैं जो कि विद्वान व वैज्ञानिक स्वीकार नहीं कर सकते।

 

                सत्यार्थप्रकाश पाठ के बाद आर्यसमाज के 84 वर्षीय सदस्य श्री ओम् प्रकाश नागिया जी ने एक कविता का पाठ किया। उन्होंने जो पंक्तियां कहीं उनमें से कुछ हैं, अब मैं बूढा होने लगा हूं। पहले जैसी फूर्ती नहीं है मेरे बदन में। दो कदम चलने पर भी थकने लगता हूं। आंखों से दिखना भी कम हो गया है। भूख भी नहीं लगती। शरीर साथ नहीं देता पर मनोबल से उसे धोने में लगा हूं। अपने किये कामों की माफी तो मांग नहीं सकता पर उन पर पछतावा करने लगा हूं। सब मेहरबान रहें ऐसी कामना करने लगा हूं। वक्त मेरे पास कम है। जाना तो है सबको पर बिस्तर पर पड़ने की सम्भावना से डरने लगा हूं। लोगों ने श्री नागिया जी की कविता की पंक्तियों और उसमें निहित सच्चाईयों को बहुत पसन्द किया। एक प्रकार से उन्होंने जो कहा वह वास्तविकता है।

 

                आर्यसमाज के आज के सत्संग में आर्य विद्वान आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री, असदपुर-सरसावा-सहारनपुर का उपदेश हुआ। उन्होंने कहा कि हमें परमात्मा का ज्ञान वेद प्राप्त है। वेद परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है, इसके पक्ष में ऋषि दयानन्द ने अनेक तर्क दिये हैं। हमें यह बात तब समझ में आती है जब हम तर्कशील वा विचारशील होते हैं। विद्वान वक्ता ने पुनः कहा कि वेद ईश्वरकृत हैं। उन्होंने कहा कि पुस्तक रूप में जो वेद उपलब्ध हैं वह ईश्वरकृत नहीं है। उसमें लिखे मन्त्र ईश्वर से ऋषियों को प्राप्त हुए थे परन्तु पुस्तक ऋषियों व मनुष्यों द्वारा समय-समय पर बनाया हुआ है। परमात्मा ने ऋषियों के हृदय में वेदों का ज्ञान दिया था। ऋषियों ने अपनी वाणी से बोल कर अन्य ऋषियों व मनुष्यों को वेदों का ज्ञान कराया। इस कारण वेदों का एक नाम श्रुति भी पड़ा है। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री ने कहा कि संसार में सब मानते हैं कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। उन्होंने यह भी कहा कि ईश्वर ने चारों वेदों का ज्ञान एक ही समय में दिया था, आगे पीछे नहीं। शास्त्री जी ने कहा कि संसार में मत-मतान्तरों की अनेक पुस्तकें हैं जिन्हें उनके अनुयायी ईश्वर प्रदत्त ज्ञान मानते हैं परन्तु यह बात असत्य एवं तर्क की कसौटी पर सत्य सिद्ध नहीं होती। उन्होंने बताया कि सृष्टि रचना के आरम्भ में आविर्भूत वेदों का ज्ञान ही केवल ईश्वरीय ज्ञान है। उन्होंने कहा कि वेदों में किसी प्रकार की, भाषा व ज्ञान विषयक, न्यूनता नहीं है अतः परमात्मा को बाद में बाइबिल व कुरआन आदि ग्रन्थों के रूप में ज्ञान देने की आवश्यकता नहीं थी। यदि मत-मतान्तरों की बातों को स्वीकार कर लिया जाये तो यह मानना होगा कि ईश्वर के ज्ञान में वृद्धि व ह्रास होता रहता है जबकि यह बात पूर्णतया निराधार व असत्य है। विद्वान वक्ता ने मत-मतान्तरों के आचार्यों से प्रश्न किया कि वह बतायें कि वेदों में कहां व क्या अपूर्णता है और उनके मत में कौन सी बात वेदों से अतिरिक्त व प्रामाणिक हैं। आचार्य वीरेन्द्र जी ने यह भी कहा कि वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में ही दिया गया और यही ज्ञान प्रलय अवस्था तक सृष्टि व अन्य लोक लोकान्तरों में विद्यमान रहेगा। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने बताया कि सभी मत पुस्तकों में सृष्टि कर्म एवं विज्ञान के विरुद्ध असत्य बातें हैं। उन्होंने कहा कि परमात्मा ऐसा नहीं करता कि वह किश्तों में मनुष्यों को ज्ञान दे। वह मनुष्यों के लिए आवश्यक समस्त ज्ञान को एक ही बार वा एक साथ, सृष्टि के आरम्भ में, देता है। आचार्य जी ने कहा कि वेदों का सारा ज्ञान बुद्धिपूर्वक है जबकि अन्य मत की पुस्तकें इस मान्यता को पूरा नहीं करती। इस कारण वेद से इतर मत-पुस्तकें आद्यान्त बुद्धिपूर्वक न होने से ईश्वरीय ज्ञान नहीं है।

 

                आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि ईश्वर सुख व आनन्द से पूर्ण है। ईश्वर की प्रार्थना, उपासना वा नमाज आदि पढ़ने से ईश्वर प्रसन्न नहीं होता। यदि यह बात स्वीकार कर लें कि ईश्वर हमारी उपासना आदि से प्रसन्न होता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर में परिवर्तन होता है अर्थात् हमारी उपासना से पूर्व वह प्रसन्न नहीं था। जिस वस्तु में परिवर्तन होता है वह नाशवान होती है। ईश्वर अपरिवर्तनीय है। यह मानना होगा कि ईश्वर में हमारे किसी कार्य से सुख व दुःख अथवा प्रसन्नता व क्लेश आदि की उत्पत्ति नहीं होती। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव सदैव एक समान रहते हैं। आचार्य जी ने कहा कि मत-मतान्तरों एवं उनकी पुस्तकों ने मनुष्यों में भ्रम की उत्पत्ति की है। आरम्भ में वैदिक धर्म में यज्ञ आदि में जो हिंसा आदि हुई व उसके बाद बौद्ध व जैन मत की मान्यतायें व सिद्धान्त सामने आये उससे लोगों में भ्रम फैला है। इसका कारण उन मतों के आचार्यों द्वारा यथार्थ रूप में वेदों को न जानने के कारण हुआ। श्री वीरेन्द्र शास्त्री ने कहा कि यदि मत-मतान्तरों की मान्यताओं के अनुसार सृष्टि के आदि काल के बाद परमात्मा की ओर से उनकी मत पुस्तकों के रूप में ज्ञान आता है तो इसका अर्थ है कि उससे पूर्व उत्पन्न मनुष्यो के साथ परमात्मा ने अन्याय किया है। ऐसा मानना उचित नहीं है। यह मनुष्यों की अल्पज्ञता व अज्ञानता की सोच है न की परमात्मा ऐसा करता है। मत की पुस्तकों में अनेकों गलतियां एवं अज्ञानता से युक्त बातें हैं। मत मतान्तरों की पुस्तकों को ईश्वरीय ज्ञान इसलिये भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि सभी मत-पन्थ के ग्रन्थों की भाषा एक नहीं अपितु अलग-अलग है। क्या परमात्मा बहुभाषी है या उसकी अपनी कोई निज भाषा भी है? विचार करने पर ईश्वर की अपनी निज भाषा वेदभाषा ही सिद्ध होती है जिसमें वेदों के मन्त्र रचे हैं। परमात्मा कभी गलती नहीं करता है। ऐसा ही वेदों के निर्भ्रान्त ज्ञान को पढ़कर विदित होता है। धर्म की चर्चा आरम्भ कर आचार्य जी ने कहा कि धर्म वह है जो ईश्वर प्रदत्त है। इससे इतर जो मनुष्यो के द्वारा बनाये गये मत हैं वह धर्म नहीं अपितु मत, सम्प्रदाय व मजहब आदि कहे जा सकते हैं। परमात्मा कभी परिवर्तन में नहीं आता। इसी कारण उसका बनाया धर्म भी परिवर्तन में नहीं आता। सत्य वह होता जिसे सारी दुनियां के निष्पक्ष विद्वान मानते हों। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री ने कहा कि वेद परमात्मा का कानून वा संविधान है। वेदों में परिवर्तन नहीं होता जबकि मत व सम्प्रदायों के ग्रन्थों में समय समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। आचार्य जी ने यह भी कहा कि वेद को शब्द ब्रह्म कहते हैं। परमात्मा व उसके ज्ञान वेद दोनों की ही शब्द-ब्रह्म संज्ञा है। परमात्मा व वेद दोनों परस्पर पूरक हैं।

 

                आर्य विद्वान श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि मनुष्य की आत्मा जब समाधि अवस्था को प्राप्त होती है तब वह परमात्मा के ज्ञान वेदों को समझने में समर्थ होती है। वेद भाष्य वही मनुष्य कर सकता है जो समाधि अवस्था को प्रापत हो चुका होता है। उन्होंने कहा कि महर्षि दयानन्द समाधि अवस्था को प्राप्त संन्यासी थे और वह यदा कदा कुछ मन्त्रों का अर्थ परमात्मा से समाधि लगाकर प्राप्त किया करते थे। उन्होंने यह भी कहा कि जब तक हम ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखकर उसमें समर्पण भाव नहीं रखेंगे तब तक हम वेदों के रहस्यों एवं ज्ञान को प्राप्त नहीं हो सकेंगे। आचार्य जी ने कहा कि वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी मनुष्यों वा आर्यों का परमधर्म है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हम वेद ज्ञान का श्रवण व अध्ययन नहीं करते तो हमें पाप लगता है। हम सौभाग्यशाली है कि हमें ऋषि दयानन्द जैसा आचार्य मिला। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया है कि जब ऋषि नहीं होंगे उस समय तुम तर्क व विचार करके जो तथ्य व निष्कर्ष प्राप्त हों, उसे ही ऋषियों से प्राप्त ज्ञान मान लेना। उन्होंने श्रोताओं को कहा कि हम सब परमात्मा प्रदत्त वेद पर ऋषि दयानन्द व आर्य विद्वानों का भाष्य पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ायें व आत्मा की उन्नति करें। हम पढ़े हुए ज्ञान को अपने आचरण में अवश्य लायें तभी हमें लाभ होगा।

 

                आर्यसमाज के युवा मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने विद्वान वक्ता आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी का धन्यवाद किया। उन्होंने श्रोताओं से अनुरोध किया कि वह शास्त्री जी के उपदेश पर विचार करें और उसे अपने आचरण का अंग बनायें।

 

                आर्यसमाज धामावाला देहरादून के प्रधान डॉ0 महेश कुमार शर्मा जी ने आज का वेद विचार प्रस्तुत किया। यह विचार था ‘‘वेद ईश्वरीय ज्ञान के अपूर्व भण्डार हैं।” प्रेरक प्रसंग सुनाते हुए डॉ0 शर्मा ने कहा कि महर्षि दयानन्द 30 अप्रैल, 1876 को मुम्बई से रेल द्वारा इन्दौर आये थे। इन्दौर में श्री गणपति सिंह द्वारा ऋषि का स्वागत किया गया था। उन्हें लाल बाग में ठहराया गया था। इन्दौर के राजा रावजी शिवभक्त थे। वह इन्दौर प्रवास में महर्षि दयानन्द से मिलने आते रहते थे और उनके प्रवचन आदि सुनते थे। डॉ0 शर्मा ने ऋषि दयानन्द को उत्कृष्ट वक्ता बताया। उन्होंने कहा कि ऋषि का स्वर उच्च था, उनका मुखमण्डल तेज से युक्त एवं ओजस्वी था। वह मधुर व गम्भीर वाणी बोलते थे जो हृदय में प्रवेश कर जाती थी। उनका भाषण सरल व प्रभावशाली होता था। डॉ0 शर्मा जी ने कहा कि इन्दौर से विदा होते समय रावजी ने स्वामी जी को एक दुशाला भेंट की थी। स्वामी जी ने पहले उनसे दुशाला लेने से मना कर दिया था। स्वामी जी ने उन्हें बताया था कि उनके पास पर्याप्त दुशालायें हैं। आप अपनी दुशाला को किसी ऐसे व्यक्ति को दें जो ठण्ड से पीड़ित हो। स्वामी जी ने कहा था कि यदि मैं सबसे दुशालायें लेता रहूंगा तो यह मेरे लिये एक बड़ा बोझा हो जायेगा। मैं गृहस्थियों के समान हो जाऊंगा। बहुत आग्रह करने पर स्वामी जी ने रावजी की दुशाला को ले लिया। इस अवसर पर रावजी ने स्वामी जी से यह प्रश्न भी किया था कि कुछ लोग उन्हें जो वस्तुयें भेंट करते हैं, क्या वह मूर्तिपूजा नहीं है? स्वामी जी ने उत्तर में कहा था कि इस प्रकार सुपात्रों का जो सम्मान किया जाता है उसे वह मूर्तिपूजा नहीं मानते। मृत व्यक्ति के उद्देश्य से मृतक श्राद्ध जैसी पूजा का वह विरोध करते थे।

 

                आर्यसमाज के प्रधान डॉ0 महेशकुमार शर्मा ने कहा कि आर्यसमाज में लोग ऋषि व आर्य विद्वानों के चित्र लगाते हैं। कुछ लोग इसे मूर्तिपूजा कह सकते हैं परन्तु यह मूर्तिपूजा न होकर उन महापुरुषों के उपकारों का स्मरण एवं उनके प्रति आदर भाव रखना है। स्वामी जी इन्दौर से काशी पधारे थे। रावजी ने स्वामी जी को वेद भाष्य की 50 प्रतियां खरीदनें का वचन दिया था। स्वामी जी इन्दौर से 9 मई, 1876 को काशी पहुंच गये थे। इसके बाद आर्यसमाज के प्रधान डॉ0 महेश कुमार शर्मा जी ने आर्यसमाज को दान में प्राप्त धनराशियों की सूचना दी। अन्तरंग सभा की सूचना सहित उन्होंने सब सदस्यों को होली पर्व की शुभकामनायें भी दीं। इसके अनन्तर उन्होंने नवसम्वतसर एवं आर्यसमाज का स्थापना दिवस मनाये जाने की सूचना भी दी। उन्होंने बताया कि इस अवसर पर वह कर्म-व्यवस्था पर अपना पावर प्वाइण्ट प्रजेन्टेशन देंगे। संगठन सूक्त एवं शान्तिपाठ के साथ सत्संग सम्पन्न हुआ। प्रसाद का वितरण कुछ संमय पूर्व दिवंगत आर्यसमाज के सदस्य श्री कुन्दन सिंह रावत जी की ओर से उनके परिवारजनों द्वारा किया गया। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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