“आर्यसमाज की विद्वत परम्परा के समुज्जवल रत्न डॉ. भवानीलाल भारतीय”

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Published on : 26 Feb, 19 04:02

   महान् वेदादि शास्त्रज्ञ, देशभक्त एवं समाजोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा संस्थापित आर्यसमाज तथा परोपकारिणी सभा, यह दो संस्थायें आज भी सजीवता के साथ देश-विदेश में सनातन वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार और वैदिक सिद्धान्तों पर निरन्तर साहित्य की रचनाओं के द्वारा प्रशस्त कार्य कर रही हैं। महान् ऋषिभक्त पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दर्शनानन्द और महात्मा नारायण स्वामी जी से लेकर डॉ. भवानीलाल भारतीय जी, आचार्य एवं अध्यक्ष, दयानन्द अनुसंधान पीठ, पंजाब विश्व विद्यालय, चण्डीगढ़ तक शताधिक विद्वान् लेखक, उपदेशक, शास्त्रार्थ-महारथी और भजनोपदेशक आर्यसमाज में विगत सवा सौ वर्षों के भीतर विश्व में प्रचारित किये हैं। वर्तमान में भी अनेक विद्वान् वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में यत्नशील हैं। डॉ. भारतीय जी ने 1991 ई0 में आर्य लेखक कोश लिखकर प्रकाशित किया, जिसमें 1172 आर्यसमाज के विद्वान् लेखकों, उपदेशकों, कवियों, शास्त्रार्थकर्ताओं आदि के परिचयों और विवरणों का सुन्दर संग्रह किया गया है। यह आर्यसमाज की विद्वत्परम्परा को जानने के लिए अतीव महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति है। इस ग्रन्थ के आरम्भ में पुरोवाक् नाम से जो भूमिका भारतीय जी ने लिखी है, उसमें इस संग्रह हेतु उनके महान् परिश्रम और आर्यसमाज के प्रति समर्पण की भावनाओं को देखा जा सकता है। आर्यसमाज के प्रति उनकी निष्ठा और लगन भी देखी जा सकती है। इसी प्रकार का उनके द्वारा विरचित एक अन्य पृथुकाय ग्रन्थ – “नव जागरण के पुरोधा - स्वामी दयानन्द सरस्वती” भी है, जो ऋषि दयानन्द निर्वाण शताब्दी 1984 ई0 में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त डॉ0 भारतीय जी के अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकों की एक बड़ी सूची है, जिसको वैदिक पथ (मासिक, हिण्डोन सिटी) के चार मास पूर्व के अंकों में डॉ0 ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी के सम्पादकीय लेख में देखा जा सकता है। लगभग 70-80 पुस्तकों और डेढ़ हजार लेखों के रचनाकार के रूप में भारतीय जी आर्यसमाज के इतिहास की एक विभूति के रूप में चिरकाल तक यशःशरीर से जीवित रहेंगे। कहा भी गया है, ‘‘कीर्तिरक्षरसम्बद्धा चिरं तिष्ठति भूतले”।

 

                डॉ0 सत्यकेतु विद्यालंकार द्वारा सात भागों में जो आर्यसमाज का इतिहास प्रकाशित किया गया है, उसके अनेक भागों की रचना में भी डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी का महत्वपूर्ण योगदान और सहयोग रहा है। इसी प्रकार यदि कहा जाये कि भारतीय जी की लेखनी का कोई भी ग्रन्थ आर्यसमाज और वैदिक धर्म के परिचय से विलग नहीं है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी। (वर्तमान विद्वान् आर्य लेखकों में आर्यसमाज के इतिहास के बारे में इसी प्रकार के जानकार प्रो0 राजेन्द्र जिज्ञासु जी भी देखे जा सकते हैं।)

 

                मेरा डॉ. भवानीलाल भारतीय जी से, उनके आर्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से, यों तो 1960 के दशक से नामतः परिचय होता रहा किन्तु जब 1968 ई0 में उनकी पी-एच0डी0 शोध-प्रबन्ध वाली पुस्तक ‘‘ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की संस्कृत साहित्य को देन” प्रकाशित हुई, और उन्होंने उस पुस्तक की एक प्रति मुझे भेजी तब से शनैः शनैः उनसे मैत्री एवं परिचय बढ़ता गया और तदनन्तर अनेक बार आर्य-सम्मेलनों आदि में उनसे प्रत्यक्ष मिलने का मुझे सौभाग्य हुआ। उनकी विद्वत्ता, शालीनता, वक्तृता, व्यवहार-कुशलता तथा विनम्रता उन्हें सबका प्रिय मित्र बना लेती थी। वस्तुतः उक्त पुस्तक के पृष्ठ 128-129 पर मेरी ‘सिद्धान्त शतकम्’ शीर्षक से वैदिक सिद्धान्तों पर श्लोकबद्ध रचना, जो कि गुरुकुल-पत्रिका के 2021 विक्रमी श्रावण, आश्विन के अंकों में धारावाहिक रूप से छपी थी, उसका सटीक संक्षिप्त उल्लेख किया गया था। इस कारण भारतीय जी ने ससम्मान अपनी पुस्तक को मेरे पास भेजा था। इससे अपना लेखन कार्य आगे बढ़ाने के लिए मैं प्रोत्साहित तो हुआ ही, साथ ही एतदर्थ साभार भारतीय जी को धन्यवाद दिया। बाद में यह ‘सिद्धान्त-शतकम्’ पुस्तक महामहोपाध्याय पं0 युधिष्ठिर मीमांसक एवं विद्यावारिधि आचार्य विजयपाल जी के प्रकाशकीय वक्तव्य के साथ संस्कृत-हिन्दी व्याख्या सहित श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ से प्रकाशित हुई। 

 

                डॉ0 भवानीलाल भारतीय एवं स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती के सम्मिलित प्रयासों से 1990-91 ई0 के आस-पास आर्य लेखक परिषद् का राजस्थान के आद्योगिक नगर कोटा में गठन किया गया। इसके अध्यक्ष डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी चुने गये। उप प्रधान दो लेखक थे। मन्त्री श्री वेदप्रिय शास्त्री और कोषाध्यक्ष डॉ0 रामकृष्ण आर्य हुए। कार्यकारिणी में डॉ0 ज्वलन्त कुमार शास्त्री, डॉ0 रघुवीर वेदालंकार और इन पंक्त्यिं के लेखक सहित डॉ0 कुशलदेव शास्त्री, आदि 5-7 लेखक थे। सबके नाम इस समय स्मरण नहीं आ रहे हैं। परिषद के प्रत्येक सदस्य से सदस्यता का शुल्क अढ़ाई सौ रुपये मात्र आजीवन भर के लिए नियत किये गये। दो-तीन वर्षों के भीतर आर्य लेखक परिषद् की सदस्य संख्या ढाई सौ से ऊपर चली गई और वर्ष में एक या दो बार विशेष सम्मेलनों और बैठकों का आयोजन भी होता रहा। इसी बीच ‘‘आर्यसमाज प्रहरी” नाम से एक मासिक पंत्रिका भी प्रकाशित होने लगी जिसमें परिषद् के लेखकों के लेख छपा करते थे। इस पत्रिका के सम्पादक श्री आदित्य मुनि जी (पूर्व सम्पादक, आर्यसेवक) को नियुक्त किया गया। आरम्भ में पत्रिका आर्य सिद्धान्तों पर अच्छे लेख छापती रही किन्तु कुछ काल पश्चात् श्री आदित्य मुनि (पूर्व नाम आदित्यपाल सिंह) जी अपने सम्पादकीय लेखों में वेदों को अपौरुषेय न मानकर विभिन्न ऋषियों की और ऋषि दयानन्द की मान्यता के विपरीत पौरुषेय ग्रन्थ के रूप में दर्शाने लगे। यह उनकी मान्यता ई0 उपेन्द्रराव जी जो भोपाल में अभियन्त्रण विभाग में उनके सह अध्किरी रहे, उनके प्रभाववश परिवर्तित हुई, ऐसा लगता है। अस्तु, इस मान्यता का अधिकांश परिषद के सदस्यों के द्वारा प्रबल विरोध हुआ। फलतः आर्यसमाज प्रहरी पत्रिका छपना बन्द हो गई।

 

                आर्य लेखक परिषद् का लेखा जोखा समर्पित कार्यकर्त्ता मुख्यतः श्रीवरुण मुनि जी (पूर्व नाम डॉ. रामकृष्ण आर्य) और श्री वेदप्रिय शास्त्री जी लगभग दस वर्षों तक सम्हालते रहे। सन् 1993 में आर्य लेखक परिषद् का आयोजन आर्यसमाज, अल्मोड़ा में किया गया। उस समय मैं आर्यसमाज का मन्त्री था और अपने साथियों श्री पूरनसिंह, प्रधान (वर्तमान में 101 वर्ष की आयु), श्री रामगोपाल सिंह, आदि के सहयोग से 2-3 दिन का यह उत्सव सोल्लास सम्पन्न हुआ। इसमें दुर्घटनावश श्री वरुण मुनि तो नहीं आ पाये थे, किन्तु श्री वेदप्रिय शास्त्री एक दिन पूर्व ही पहुंच चुके थे। लगभग 30 आर्य विद्वान् उस अवसर पर अल्मोड़ा के अधिवेशन में पहुंचे थे, जिनमें स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, डॉ. भवानीलाल भारतीय, डॉ. प्रशान्त कुमार वेदालंकार, डॉ. रघुवीर वेदालंकार (दोनों विद्वान सपत्नीक), डॉ. कुशल देव शास्त्री, डॉ. स्वामी गुरुकुलानन्द सरस्वती, डॉ. सुमेधामित्र वेदालंकार, आचार्या प्रियम्वदा वेदभारती, श्री जीवानन्द नैनवाल, डॉ. विक्रमदेव जी (चण्डीगढ़) आदि नाम स्मृतिपटल पर हैं। इस अवसर पर आर्यसमाज द्वारा इन पंक्तियों के लेखक के सम्पादकत्व में ‘‘अदिति” नाम से एक स्मारिका प्रकाशित की गई, जिसमें आर्यसमाज, अल्मोड़ा के 90 वर्षीय इतिहास के साथ कुछ लेख भी छपे हैं। इस पत्रिका का विमोचन स्व0 भैरवदत्त पाण्डे, आई.सी.एस. (भूतपूर्व राज्यपाल, पंश्चिम बंगाल और पंजाब) जी के कर कमलों से हुआ था। परिषद् के इस अधिवेशन में डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी ने ऋषि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज को लक्ष्य कर जो भावपूर्ण भाषण दिया, उससे श्रोतागण गदगद हो गये थे और नवागन्तुकों को आर्यसमाज के विषय में बहुत जानकारी प्राप्त हुई।

 

                लगभग 12-14 वर्ष पूर्व आर्य लेखक परिषद् के नये चुनाव के अवसर पर स्व0 श्री वरुण मुनि जी के प्रस्ताव से मुझे परिषद् का अध्यक्ष, डॉ0 रघुवीर वेदालंकार जी को उपाध्यक्ष और डॉ0 कुशलदेव शास्त्री को मंत्री नियुक्त किया गया। किन्तु तदनन्तर अधिवेशन के लिए सदस्यों के रहन-सहन की व्यवस्था कोटा से बाहर न हो पाने से परिषद् का कार्य आगे नहीं बढ़ पाया। कुछ दिनों बाद पहले डॉ0 कुशलदेव शास्त्री और बाद में वरुण मुनि जी के निधन होने पर आर्य लेखक परिषद् का सारा कार्य अवरुद्ध सा हो गया। अब सुना है श्री वेदप्रिय शास्त्री जी के पुनः प्रयासों से दिल्ली में आर्य लेखक परिषद् नये रुप से कार्य करने लगी है, जो शुभ संकेत है।

 

                डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी से दो-तीन मास पूर्व उनके स्वास्थ्य के बारे में मैंने पूछा था, तब वह कुछ ठीक थे। अकस्मात उनका 90 वर्ष की आयु में 12 सितम्बर, 2018 को निधन हो गया। इससे सम्पूर्ण आर्यसमाजों में शोक छा गया। पुराने आर्य विद्वानों का एक युग चला गया। दिवंगत आत्मा को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है। ईश्वर करे डॉ0 भारतीय के सदृश और पुराने उच्च कोटि के विद्वानों के अनुरूप आगे भी उत्तमोत्तम वैदिक धर्म प्रचारक, लेखक, विद्वान गुरुकुलों से सुशिक्षित होकर इस ऋषि वाटिका आर्यसमाज को संसार में निरन्तर सींचते हुये समृद्ध बनाते रहें। इत्योम् शम्। 

 

प्रस्तुतकर्ता-मनमोहन कुमार आर्य

देहरादून-248001


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