“ऋषि भक्त महात्मा दयानन्द, वानप्रस्थ का पावन व प्रेरक जीवन”

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Published on : 27 Dec, 18 08:12

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“ऋषि भक्त महात्मा दयानन्द, वानप्रस्थ का पावन व प्रेरक जीवन” हम सन् 1970 के बाद से वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून में जा रहे हैं। हमने वहां आरम्भ से ही देखा है कि महात्मा दयानन्द जी (1912-1989) वहां रहकर उत्सवों के अवसर पर वेद पारायण यज्ञ आदि का संचालन करते थे। स्वामी विद्यानन्द विदेह, स्वामी सत्यपति जी, महात्मा आर्यभिक्षु जी आदि अनेक विद्वानों को हमने यहां अनेक बार सुना। हमारे पास इन दिनों श्री हरि कृष्ण लाल ओबराय जी की लिखी एक पुस्तक ‘जीवन-गाथा महात्मा दयानन्द जी वानप्रस्थ’ है। इसमें ‘श्री महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी के कुछ गुणों का संस्मरण’ नाम से स्वामी सत्यपति परिव्राजक जी, संस्थापक, दर्शन योग महाविद्यालय, आर्य वन विकास क्षेत्र, रोजड, साबरकांठा का दिनांक 8-10-1989 का लिखा एक लेख है जिसकी सामग्री को हम आज इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं। यह पुस्तक वैदिक भक्ति साधन आश्रम, रोहतक से सन् 1990 में प्रकाशित हुई है। तब इसकी 1100 प्रतियां प्रकाशित हुईं थी। लेख में स्वामी सत्यपति जी लिखते हैं कि श्री महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी के साथ मेरा विशेष संबंध रहा है। वैदिक साधन आश्रम, नालापानी, तपोवन (देहरादून, उत्तरप्रदेश) में हम मिलकर विद्या व धर्म का प्रचार करते रहे। महात्मा जी के जीवन में अनेक ऐसे गुण थे जिनको धारण करने से व्यक्ति महान बन सकता है। उन गुणों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जाता है।

1- महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी में ईश्वर के प्रति बहुत विश्वास था और ईश्वर ध्यान में वे समय लगाते थे, गायत्री का जप करते थे और दूसरों को भी गायत्री जप करने की प्रेरणा दते थे।

2- वेदों के पठन-पाठन और प्रचार-प्रसार में उनकी बहुत श्रद्धा थी। प्रायः महात्मा जी के प्रवचन वेदमन्त्रों पर होते थे। वे यह चाहते थे कि वेदों का प्रचार देश-देशान्तर में हो, जिससे समस्त जनसमुदाय वेदमार्ग पर चलकर अपना कल्याण करें।

3- यज्ञ के प्रति महात्मा जी की महती श्रद्धा थी। वे स्वयं यज्ञ करते थे और अन्यों को यज्ञ करने की विशेष प्रेरणा देते थे। यज्ञ के प्रचारार्थ वह दूर-दूर नगरों में जाकर बड़े-बड़े यज्ञ करवाते थे। शरीर के अस्वस्थ होने पर भी यज्ञ करने-करवाने का प्रयत्न सतत करते रहते थे।

4- परोपकार करना वह अपना मुख्य कार्य समझते थे। दूसरों के भले के लिये तन, मन, धन से प्रयास करते थे। परिवार, समाज, देश व विश्व कल्याणर्थ योजना बनाते ही रहते थे और उन योजनाओं को यथाशक्ति क्रियारूप में लाने का प्रयास करते थे।

5- ऋषिकृत ग्रन्थों के पठन-पाठन में उनकी रुचि थी और ऋषिकृत ग्रन्थों के पढ़ने-पढ़ाने वालों को स्वयं सहयोग देते थे तथा अन्यों से दिलाते थे।

6- महात्मा जी यह चाहते थे कि उच्चकोटि के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों का निर्माण किया जाय जिससे वर्ण व्यवस्था की स्थापना हो और समस्त विश्व गुण कर्म के आधार पर ही ब्राह्मणदि वर्णों को स्वीकार करें और जन्ममात्र से किसी को भी ब्राह्मणादि न माने।

7- वे संगठन प्रिय थे। उनका सदा यह प्रयत्न रहता था कि सभी लोग सदा परस्पर मिलकर रहें और विघटन को छोड़ देवें।

8- उनके जीवन में त्याग और तपस्या पर्याप्त थी। सुख-दुःख-हानि-लाभादि अवसरों पर वे धैर्य रखते थे। बड़े-बड़े कष्ट आने पर भी धर्मकार्यों में लगे रहते थे।

9- आर्ष पद्धति से पढ़ने वाले अनेक ब्रह्मचारियों की उन्होंने स्वयं सहायता की और अन्यों से भी करवाई।

10- तपोवन आश्रम को उन्होंने ऊंचा उठाया और वहां पर अनेक प्रकार के शिक्षण शिविर लगवा कर विद्या धर्म की रक्षा और प्रचार किया।

हम समझते हैं कि महात्मा जी के जीवन पर यह एक पूर्ण प्रामाणिक लेख है। महात्मा जी के गुणों को जानकर हमें उन गुणों को धारण करने का प्रयास करना है। तभी इस प्रकार के लेखों की सार्थकता होती है। सम्भवतः इसी भावना से स्वामी सत्यपति जी ने इस लेख को लिखा हो और ग्रन्थ लेखक ने इसी भावना से लेख लिखवाकर पुस्तक की अन्य सामग्री के साथ इसे प्रकाशित किया हो। हम यह भी आवश्यकता अनुभव करते हैं कि महापुरुषों के जीवन चरित्र प्रकाशित होते रहने चाहिये। इस पुस्तक के प्रकाशन को 28 वर्ष बीत चुके हैं अतः इसका नया संस्करण भी प्रकाशित होना चाहिये। वैदिक साधन आश्रम तपोवन अपने उद्देश्यों के अनुरूप तथा अपने पूर्वजों महात्मा आनन्द स्वामी, महात्मा दयानन्द जी आदि के बतायें मार्ग का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ रहा है। स्वामी चित्तेश्वरानन्द तथा आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी इस परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। आश्रम के प्रधान श्री दर्शनकुमार अग्निहोत्री तथा इसके मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा भी आश्रम को गति देने में अपना पूरा पुरुषार्थ लगा रहे हैं। वर्तमान व आने वाला समय चुनौतियों से भरा हुआ है। हमें भावी चुनौतियां का ध्यान रखते हुए आश्रम को सुरक्षित आगे बढ़ाना है। आज तो हम साधना कर सकते हैं परन्तु किन्हीं कारणों से करते नहीं है। हो सकता है कि आने वाले समय में हम साधना करना चाहें परन्तु हमें उसे करने का वातावरण न मिले। परिस्थितियां आज की परिस्थितियों के सर्वथा विपरीत हों। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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