“वेद सर्वोत्तम एवं वैदिक धर्म मानवमात्र के लिये श्रेष्ठतम धर्म”

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Published on : 27 Dec, 18 08:12

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“वेद सर्वोत्तम एवं वैदिक धर्म मानवमात्र के लिये श्रेष्ठतम धर्म” वैदिक धर्म वेद व उसकी शिक्षाओं पर आधारित मत है। वेदों की रचना कैसे हुई? इसके विषय में देश-विदेश के सामान्य व्यक्तियों सहित विद्वानों को भी ज्ञान नहीं है। वह सोचते हैं कि जिस प्रकार से ईसाई मत, इस्लाम मत और अन्य मतों के धर्म ग्रन्थों की रचना व आविर्भाव हुआ है, उसी प्रकार से वेदों की रचना भी मनुष्यों, विद्वानों व ऋषियों ने की होगी। महर्षि दयानन्द (1825-1883) से पूर्व वेदों की उत्पत्ति के विषय में देश विदेश के मनीषियों को भी भी सही व यथार्थ ज्ञान नहीं था। महर्षि दयानन्द ने अनेक विषयों के साथ वेदोत्पत्ति पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करने के साथ इस विषय का गहराई से अध्ययन किया और उससे जो तथ्य उनके सामने आये उससे यह ज्ञात हुआ कि वेदों का ज्ञान अमैथुनी सृष्टि में ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा को उत्पन्न कर उनकी आत्माओं में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया था। प्रश्न होता है कि क्या ऐसा होना सम्भव है। यदि सम्भव है तो फिर इस ज्ञान की परीक्षा कर यह ईश्वरीय है वा नहीं, इसका निर्णय किया जा सकता है। वेदों की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा सम्भव है या नहीं इस पर विचार करते हैं।

हम जो विशाल अनन्त सीमाओं वाला संसार या ब्रह्माण्ड देखते हैं वह मनुष्यों द्वारा की गई रचना नहीं है। ऐसा कोई वैज्ञानिक व मनुष्य नहीं हुआ जिसने कभी दावा किया हो कि यह संसार किसी मनुष्य ने रचा हो। मनुष्य के अतिरिक्त ज्ञानवान सत्ता संसार में दूसरी दिखाई नहीं देती। दिखाई न देना और उसका होना या न होना अलग-अलग प्रश्न है। हवा व आकाश दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व होता है। लकड़ियों व कोयलों में अग्नि छुपी होती है परन्तु वह दिखाई नहीं देती। हमारे शरीर में आत्मा है परन्तु हम भौतिक शरीर व उसकी भौतिक इन्द्रियों को ही देखते है। इसमें निहित आत्मा के दर्शन कभी किसी ने नहीं किये हैं। यदि शरीर में आत्मा है और वह दिखाई नहीं देती तथा शरीर व इसकी क्रियाओं को देखकर हम आत्मा को स्वीकार कर सकते हैं तो फिर कोई कारण नहीं है कि हम इस संसार की रचना और इसमें विद्यमान विभिन्न नियम व गुणों को देखकर इसके रचयिता व पालक ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार दे। यदि हम ऐसा करते है ंतो यह हमारी अयोग्यता की कहलायगी। महर्षि दयानन्द ने इस चुनौती को स्वीकार किया था और वह वेद एवं वैदिक साहित्य को पढ़कर, विद्वानों से शंका समाधान कर और अपने योग से प्राप्त विलक्षण बौद्धिक एवं आत्मिक क्षमता से समाधि में सृष्टि में विद्यमान सर्वव्यापक, सच्चिदानन्द, सृष्टि की रचयिता शक्ति को जान पायें थे।

कोई भी रचना तभी सम्भव होती है जब उसकी रचना करने वाला हो। रचयिता को उस रचना को करने का ज्ञान तथा जिन पदार्थों से रचना होती है वह भी उपलब्ध होने चाहिये। इस सृष्टि का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि इसमें एक परम-सूक्ष्म, चेतन, ज्ञानवान, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, अनन्त, अविनाशी, नित्य, सभी अनादि-एकदेशी-अल्पज्ञ अनन्त जीवात्माओं की माता व पिता के समान रक्षा करने वाली एक सत्ता, जिसे हम ईश्वर, परमेश्वर, सर्वेश्वर आदि कहते हैं, विद्यमान है। वह सत्ता सर्वज्ञ होने तथा अनादि व नित्य होने से अनेक बार सृष्टि की रचना करने से सृष्टि रचना व इसके पालन का ज्ञान रखती है। जगत में विद्यमान सत्व, रज और तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति से इस सृष्टि की रचना वह सत्ता करती है। इसका विस्तार से अध्ययन दर्शन ग्रन्थों के द्वारा किया जा सकता है। अतः ऋषि दयानन्द, वेद, दर्शन और हमारी मानवीय बुद्धि इस बात को विवेचना, तर्क, चिन्तन एवं अनेक प्रमाणों से इस सृष्टि की रचना को ईश्वर के द्वारा होना स्वीकार करते हैं। यही सत्य है और इसके विपरीत सभी मान्यतायें सत्य के विपरीत होने से असत्य हैं। ईश्वर ज्ञानवान एवं सर्वशक्मिन सत्ता है, अतः उससे ऋषियों की उत्पत्ति एवं ऋषियों व मनुष्य आदि प्राणियों को ज्ञान देने की मान्यता सम्भव होने से सत्य है। वेदों में जो ज्ञान है वह सृष्टि के आदि काल से है। अन्य मत व पन्थ के ग्रन्थों की तरह से वेदों का ज्ञान कुछ हजार या कुछ सौ वर्ष पुराना नहीं है अपितु यह उतना ही प्राचीन है जितनी हमारी यह सृष्टि है अर्थात् वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ से विद्यमान है और यह गुरु-शिष्य परम्परा से चला आ रहा है। ईश्वर परमसूक्ष्म व सर्वव्यापक होने से सर्वार्न्यामी है और सर्वत्र एक रस है। अतः वह सर्वत्र प्राणियों को प्रेरणा द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

वेदों का अध्ययन करना वर्तमान में सरल है। चारों वेदों के महर्षि दयानन्द सहित उनके अनेक अनुयायियों के भाष्य उपलब्ध हैं। इनका अध्ययन कर वेदों में निहित ज्ञान को जाना व समझा जा सकता है। वेदों के इस ज्ञान को स्वामी दयानन्द जी ने बहुत सरल व सुबोध शैली में अपने अमर ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” तथा ’’ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका” में प्रस्तुत किया है। इसका अध्ययन कर सुष्टि की उत्पत्ति, ईश्वर के अस्तित्व, वेदों की उत्पत्ति एवं वेदों के महत्व तथा वेदों पर आधारित वैदिक धर्म का अध्ययन कर अपनी सभी शंकाओं का समाधान किया जा सकता है।

वैदिक धर्म का महत्व यह है कि यह किसी मनुष्य व छोटे-बड़े विद्वान से उत्पन्न व प्रादूर्भूत न होकर इस सृष्टि के बनाने और पालन करने वाली सत्ता ईश्वर से आविर्भूत है। वेदों में मनुष्य जीवन को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने का सभी प्रकार का मौलिक ज्ञान उपलब्ध है। वेदों की कोई शिक्षा ज्ञान व विज्ञान के विरुद्ध नहीं है जैसी अनेक मत-मतान्तरों में पायी जाती हैं। वेदों की भाषा भी संसार की सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है। इसमें सभी वर्ण, स्वर व अक्षर आदि उपलब्ध हैं और इसमें सभी प्रकार की ध्वनियों के लिये एक अक्षण निर्धारित है जबकि अन्य भाषाओं के अक्षरों व वर्णों में एक अक्षर में अनेक ध्वनियों का सम्मिश्रण व समावेश पाया जाता है। देवनागरी भाषा में सभी भाषाओं को लिखा जा सकता है परन्तु अन्य भाषाओं में वेद के सभी मन्त्रों व अन्य भाषाओं के साहित्य को नहीं लिखा जा सकता। वेदों की भाषा का व्याकरण भी संसार में सर्वोत्कृष्ट है, ऐसा विद्वान मानते हैं। नासा ने भी कहा है कि कम्प्युटर के लिये सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत ही है। वेदों का अध्ययन कर मनुष्य विज्ञान की किसी भी विधा में अध्ययन कर अपनी इच्छित वस्तु का विकास कर सकता है जैसा कि आधुनिक युग में हमारे यूरोप आदि के वैज्ञानिकों ने किया है। वेद ईश्वर के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करते हैं। महर्षि दयानन्द के अनेक ग्रन्थों सहित वेद भाष्य, दर्शन व उपनिषद आदि में भी ईश्वर का यथार्थ स्वरूप उपलब्ध होता है। आत्मा का स्वरूप, ज्ञान व इसकी उन्नति के उपाय, ज्ञानोपार्जन व ईश्वर साक्षात्कार आदि का ज्ञान भी वेद एवं दर्शनों का अध्ययन कर प्राप्त किया जा सकता है।

महर्षि दयानन्द ने सन्ध्या की एक पुस्तक भी लिखी है। सन्ध्या में ईश्वर व इसके गुणों का ज्ञान व ध्यान सहित सभी प्रकार के सत्साहित्य का अध्ययन भी सम्मिलित है। इससे आत्मा की उन्नति सहित बौद्धिक उन्नति दोनों होती हैं। महर्षि दयानन्द ने जो ग्रन्थे लिखे व लिखवायें तथा उनके प्रवचनों का अध्ययन कर उनके ज्ञान की योग्यता व क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है। आज संसार में उपलब्ध धार्मिक व सामाजिक साहित्य को देखकर यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्द से अधिक धार्मिक विद्वान, समाज सुधारक एवं व्याख्यान देने वाला विलक्षण पुरुष अन्य नहीं हुआ है। वेदों के आधार पर ही ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का ध्यान कर आत्मा की उन्नति करने के लिये सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ का विधान किया। यज्ञ करने से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित वायु व जल की शुद्धि एवं भौतिक व आध्यात्मिक प्रदुषण दूर होता है और यज्ञकर्ता मनुष्य के रोग भी दूर होते हैं। वह स्वस्थ व दीर्घायु होता है। वेदों व वैदिक साहित्य में मनुष्य के गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त तक के सभी कर्तव्यों का ऐसा उत्तोत्तम ज्ञान व विधान है जैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। इसी कारण वेदों को संसार का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ एवं वैदिक धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म व मत की संज्ञा दी जा सकती है। कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने इस बात को दबी जुबान से स्वीकार भी किया है। वस्तुतः वेद सर्वोत्तम ज्ञान व इसकी शिक्षायें मनुष्य की उन्नति में सर्वाधिक सहायक है और मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कराने में सहायक हैं।

वैदिक धर्म की एक विशेषता यह भी है कि यह सांसारिक सुखों के भोग को महत्व न देकर त्याग व संयमपूर्ण जीवन को महत्व देता है। इनके अन्य लाभ भी हैं जिन्हें सात्विक निष्पक्ष विद्वान ही समझ सकते हैं। अन्य मतों में सुखों के भोग की विचारधारा पायी जाती हैं। सबसे निकृष्ट कर्म पशु हत्या एवं मांसाहार को अनेक मत बुरा नहीं मानते। वेद जन्मना जातिवाद को न मान कर समस्त सृष्टि के मनुष्यों की एक ही जाति मानते हैं और स्त्री व पुरुष उसकी दो उपजातियां स्वीकार की गई हैं। वेद सब मनुष्यों को समान मानते हैं। उसके अनुसार कोई मनुष्य छोटा और कोई बड़ा नहीं है। वेद के अनुसार धनी व्यक्ति से ज्ञानी व्यक्ति और ज्ञानियों में भी सदाचारी, धर्मात्मा व परोपकारी को बड़ा माना जाता है। विवाह के वैदिक धर्म के नियम अन्य मत-सम्प्रदायों से अच्छे व श्रेष्ठ हैं। विवाह की न्यूनतम आयु कन्या के लिये 16 व अधिक तथायुवक की 25 व इससे अधिक को अच्छा माना जाता है। विवाह में जन्मना जाति को महत्व न देकर गुण, कर्म व स्वभाव को महत्व व वरीयता दी जाती है। वैदिक धर्म की इस व्यवस्था का आज समाज में व्यवहार होता हुआ देखा जा रहा है। विवाह प्रेम विवाह हो या जो माता-पिता निर्धारित करें, वह अपनी सन्तानों के गुण, कर्म व स्वभाव को उचित महत्व देते हैं और इसके अनुरूप गुणों वाले युवक युवती का ही विवाह करते हैं। ईश्वर अनन्त है और उसका ज्ञान भी अनन्त है। वेदों के गुणों की सीमा व्यापक है। वेद से ही मनुष्य जीवन सहित संसार की समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

संसार में देखा जाता है कि वेदेतर सभी मत-मतान्तरों के लोग सत्य को जानने व उसको स्वीकार के लिये इच्छा नहीं रखते। वह अपने-अपने अविद्यायुक्त ग्रन्थों तक ही सीमित है। यदि उन्होंने वेदों को पढ़ा होता तो उन्हें लाभ होता। वह पुनर्जन्म को जानकर अपने कर्मों पर ध्यान देते और अशुभ कर्मों का त्याग करते। आज उनसे सत्य को ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने की आशा नहीं की जा सकती। सत्य एक होता है। उसी सत्याचार का नाम सत्यधर्म, वेदधर्म, मनुष्यधर्म वा धर्म होता है। हमें वैदिक धर्म व अन्य मतों की मान्यताओं का अध्ययन करने पर वैदिक मत व वेद धर्म ही श्रेष्ठ विदित हुआ है। ऋषि दयानन्द का भी पक्षपातरहित निर्णय यही था। वेदों को अपनाकर ही मनुष्य जाति का कल्याण होगा और विश्व में शान्ति होगी। ऐसा नहीं करेंगे तो इससे मनुष्य जीवन सुख व शान्ति को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। इसी के साथ इस लेख्ष को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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