संसार के सभी पापों का कारण प्रदुषित मन है : डॉ. रघुवीर वेदालंकार’

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Published on : 20 Dec, 18 07:12

संसार के सभी पापों का कारण प्रदुषित मन है : डॉ. रघुवीर वेदालंकार’ गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली का 87 वां वार्षिकोत्सव एवं 39 वां चतुर्वेद पारायण यज्ञ रविवार दिनांक 16-12-2018 को सोल्लास सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर यज्ञ की पूर्णाहुति हुई और साथ विद्वानों के प्रवचन एवं कुछ विद्वानों का सम्मान भी हुआ। हम कुछ विद्वानों के प्रवचनों को इससे पहले 2 किश्तों में प्रस्तुत कर चुके हैं। यहां शेष विद्वानों के प्रवचन प्रस्तुत कर रहे हैं।

शीर्ष वैदिक विद्वान डा. रघुवीर वेदालंकार जी का सम्बोधनः

डा. रघुवीर वेदालंकार जी ने कहा कि इस चतुर्वेद पारायण यज्ञ में यज्ञ करने वाले तथा प्रवचन करने वाले सभी विद्वान तथा श्रोता भाग्यशाली हैं। गुरुकुल में वैदिक व्याकरण के ग्रन्थों का मुख्यतः पठन-पाठन होता है। आचार्य रघुवीर जी ने वायु प्रदुषण की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हमारी दृष्टि बाह्य प्रदुषण तक ही सीमित है। हमारा अन्तर अर्थात् शरीर का भीतरी भाग जिसमें हमारा मन, बुद्धि व आत्मा आदि अवयव हैं, वह भी प्रदुषित हैं। विद्वान वक्ता ने कहा कि हमारा मन भी वैचारिक प्रदुषण से ग्रस्त है। इस प्रदुषण को दूर करने का हमारे पास कोई समाधान नहीं है। संसार में जो पाप हो रहे हैं उसका कारण प्रदुषित मन ही है। हमारी शिक्षा भी प्रदुषित है। हमारी शिक्षा में छात्रों पर संस्कार डालने तथा उनके जीवन का सुधार करने की शिक्षा सम्मिलित नहीं है।

आचार्य रघुवीर वेदालंकार जी ने कहा कि मानसिक प्रदुषण को दूर करने की आवश्यकता है। गुरुकुल का उद्देश्य शिक्षा व संस्कारों द्वारा छात्रों का मानसिक प्रदुषण को दूर कर उन्हें सच्चा मनुष्य बनाया जाना है। गुरुकुल जैसी संस्थाओं की हमें रक्षा करनी चाहिये जिससे गुरुकुल यम, नियमों सहित संस्कारों की शिक्षा देकर मनुष्य अन्तः व बाह्य प्रदुषण दूर कर सकें। गुरुकुलों को बच्चों को दिव्य गुणों से विभूषित करना चाहिये। हमारा कर्तव्य है कि हम गुरुकुलों को तन, मन व धन से बढ़ायें।


डा. धर्मेन्द्र कुमार शास्त्री का सम्बोधन :

डा. धर्मेन्द्र कुमार शास्त्री जी ने कहा कि यज्ञों की परम्परा सृष्टि के आरम्भ से चल रही है। विद्वान वक्ता ने यज्ञ के समर्थन में अनेक महत्वपूर्ण बातें कहीं। उन्होंने ऋषि उद्दालक तथा महाराज जनक का सवांद भी प्रस्तुत किया। महाराजा जनक ने उनसे पूछा था कि यज्ञ की आत्मा व प्राण क्या है? ऋषि ने इसका उत्तर देते हुए कहा था कि ‘स्वाहा’ यज्ञ की आत्मा है। ‘इदन्न न मम्’ यज्ञ का प्राण है। अपने व्याख्यान को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि यज्ञ की ही तरह हमारे सत्कर्मों की सुगन्धि भी देश व समाज में फैलनी चाहिये।

ऋषि दयानन्द भक्त ठाकुर विक्रम सिंह जी का सम्बोधनः

ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के भक्त तथा उदारता से धन दान देने के लिए प्रसिद्ध ठाकुर विक्रम सिंह जी ने कहा कि उनके दादा जी ने ऋषि दयानन्द को देखा था तथा उनके विचारों को सुना भी था। स्वामी दयानन्द जी जिस नगर व स्थान पर प्रचार करने जाते थे वहां के पौराणिकों तथा इतर मत-मतान्तरों के आचार्यों में खलबली मच जाती थी। इस कारण लोग ऋषि दयानन्द जी को कोलाहल स्वामी कहा करते थे। मेरे दादा जी ने ऋषि दयानन्द जी के यज्ञ विषयक उपदेश को सुना था। उस उपदेश में ऋषि दयानन्द जी ने कहा था कि हमारे आर्यावर्त देश के सभी प्राचीन शिरोमणी राजे महाराजे यज्ञ किया करते थे जिससे हमारा देश धन-धान्य एवं सुखों से पूर्ण था। हमें भी अग्निहोत्र-यज्ञ करना चाहिये, जहां यज्ञ आदि कार्यक्रम हों वहां जाना भी चाहिये और विद्वानों के विचारों को सुनकर उनके अनुसार अपना आचरण बनाना चाहिये। हमारा यह भी कर्तव्य है कि हम गुरुकुलों को दान दें जिससे हमारी धर्म व संस्कृति की रक्षा हो सके। ठाकुर विक्रम सिंह जी ने कहा कि आजादी के 70 वर्षों में देश में चारित्रिक गिरावट आई है। महर्षि दयानन्द के अनुसाद वेद पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना परम धर्म है। महर्षि मनु ने भी चरित्र को परम धर्म बताया है। विद्वान वक्ता ने कहा कि हमें चरित्रवान् बनने का प्रयत्न करना चाहिये। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के महाराजा पृथिवीराज चौहान की मजार पर मुसलमानों द्वारा पांच जूते लगाने और मुहम्मद गजनी की मजार पर चादर चढ़ाने का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि हमें इस घटना से शिक्षा लेनी चाहिये और इसका निदान करना चाहिये। उन्होंने कहा कि हम व हमारे आदर्श पृथिवीराज चौहान हैं। हमें अपनी सन्तानों में वीरता के संस्कार डालने चाहिये जिससे हम अपनी धर्म व संस्कृति की रक्षा करने में सफल हो सकेंगे।

श्री वीरपाल, स्नातक गुरुकुल कांगड़ी का सम्बोधनः

ओजस्वी वक्ता एवं विद्वान श्री वीरपाल जी ने कहा कि हमारे गुरुकुल धर्म, संस्कृत, संस्कृति, संस्कार तथा वेदों की परम्पराओं को जीवित रखे हुए हैं। गुरुकुलीय शिक्षा आन्दोलन व धर्म एवं संस्कृति के प्रचार प्रसार में स्वामी प्रणवानन्द जी का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने स्वामी प्रणवानन्द जी के कार्यों की प्रशंसा भी की। आपने कहा कि यदि देश में यज्ञ की परम्परा आरम्भ हो जाये तो देश का कल्याण हो जाये।

डा. आनन्द कुमार जी, आईपीएस का सम्बोधनः

डा. आनन्द कुमार जी, आईपीएस ने कहा कि आर्यसमाज की अपनी राजनीतिक पार्टी होनी चाहिये। उन्होंने कहा कि हमारा संगठन भी सुदृण एवं दोषों से रहित होना चाहिये जिससे हम आर्यसमाज की विचारधारा तथा मान्यताओं को समाज में स्थापित कर सकें। राजनीतिक दल बनाकर उसे देश की राजनीति में प्रमुख स्थान प्राप्त करने में यदि 20-30 वर्ष भी लगें तो लग जाने दीजिये। उन्होंने कहा कि यदि हम संघर्ष करेंगे तो कोई कारण नहीं की हमें सफलता प्राप्त न हो। आपने आर्यसमाज को अपना राजनीतिक मंच स्थापित करने के लिये पुनः प्रेरित किया। डा. आनन्द कुमार जी ने ठाकुर विक्रम सिंह जी द्वारा गठित राष्ट्र निर्माण पार्टी से जुड़ने का आह्वान भी किया।

आर्य विद्वान पं. विश्वपाल ने अपने सम्बोधन में कहा कि जीवन का सार मोक्ष है। यह वेदाचरण करने से मिलता है।


एमिटी यूनिवर्सिटी के डा. अशोक चौहान जी का सम्बोधनः

डा. अशोक चौहान जी ने कहा कि आप आर्यसमाज की विचारधारा और संस्कारों के महत्व को नहीं जान पायेंगे। मैं व मेरा परिवार आर्यसमाज तथा वैदिक सिद्धान्तों के महत्व को समझता है। उन्होंने सभी श्रोताओं को पूर्व विद्वानों के सम्बोधनों पर विचार करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि ईश्वर स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी को लम्बी आयु और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें। उन्होंने बताया कि हमारे परिवार के अनेक सदस्य गुरुकुलों में पढ़े हैं। गुरुकुल और आर्यसमाज में हमें जो संस्कार मिलते हैं उनका हमारे जीवन बहुत महत्व है।

चतुर्वेद पारायण यज्ञ की पूर्णाहुति होने तथा प्रवचनों की श्रृंखला समाप्त होने पर पं. सत्यपाल पथिक जी ने हारमोनियम पर यज्ञ प्रार्थना गाकर सम्पन्न कराई। यज्ञ एवं प्रवचनों के मध्य में गुरुकुल पौंधा के छात्र श्री ईश्वर सिंह रावत, भजनोपदेशक श्री सुखपाल जी आर्य, केरल में कार्यरत गुरुकुल के आचार्य श्री हीरा प्रसाद शास्त्री, गुरुकुल गोमत के आचार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी एवं आर्यसमाज के नेता श्री चतर सिंह नागर, दिल्ली का सम्मान भी किया गया। इनके विषय में हम एक पृथक लेख के द्वारा जानकारी देंगे। कार्यक्रम की समाप्ति पर ऋषि लंकर हुआ। इसके बाद हम दिल्ली से रेल द्वारा चलकर रात्रि 10.00 बजे देहरादून पहुंच गये। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

साभार :


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