हे याज्ञसेनी, हे अग्निगर्भा, तुम एक विल-क्षण नारी थी
पर इतिहासों के पृष्टो पर, बस ताड़ना की अधिकारी थी
ना जन्म लिया देखा बचपन, ना देखा नन्हा सा क्रंदन
अद्भुत यज्ञ था शुचि अनल ,युवति बन तुमने लिया जन्म
फिर लक्ष्य प्राप्ति हेतु तुमने, था किया खुद को आहुति सखी
क्या मन में उपजी नहीं व्यथा, क्या क्षोभ जरा भी नहीं हुआ
जिसको था प्रेम किया मन से,ना उसको पाया पूर्ण रूप
कैसे तुमने सह ली पीड़ा ,क्या है रहस्य तुम क्यों अनूप
हे सखी तुम स्वयं नारी हो, तुम मेरे मन को जानोगी
एक बात मैं कहती हूँ तुमसे, तुम निश्चित उसको मानेगी
अग्नि की गोद से जन्मी मैं, एक लक्ष्य पिता का साथ लिए
मैं याज्ञसेनी आयी जग में , दायित्वों का संताप लिए
विदूषी थी जाना था मैंने, किस कारण जग में आई थी
लज्जित कर दे जो कल्पना को ,वो रूप शिखा भी पायी थी
पर थी नारी ही मैं भी तो, इस मन पे मेरा कहा बल था
जो दिखा सदा ही इस जग को, माया थी वो बस एक छल था
था पंच-पति को वरन किया , मैं कहलाती हूँ पांचाली
पीड़ा से फिर भी कभी कभी, पाती थी खुद को बस खाली
एक समर हुआ कुरुभूमि में , सौ समर थे मैंने खुद से लडे
हर समर में मैं जय हो पायी ,थे सखा रूप मैं कृष्णा खड़े।
सौभाग्य मेरा दुर्भाग्य बना, वो बाजी थी एक चौसर की
दुर्योधन मन तो प्रतीक्षित था ,कई समय से ऐसे अवसर की
जो पंच पति परमेश्वर थे ,जो योद्धा थे प्रलयंकारी
वो झुका के मस्तक बैठे थे, स्तब्ध थी कुरुसभा सारी
वो पार्थ कि जिनके बाणो में , साक्षात् यम की दावाग्नि थी
निर्वीर्य बने वो बैठे थे, लज्जित होती अर्धांगनी थी
उस कुरुसभा मैं खड़ी थी मैं, कुलवधू थी मैं उस कुरुकुल की
सारे मेरे थे स्वजन वहां ,फिर भी भय से मैं आकुल थी
हो दग्ध वासना से खुद की ,दुर्योधन मन उन्मादित था
मेरी इस क्षीण दशा को देख, हर दुष्ट हृदय आह्लादित था
जब दुशासन के हाथ बढ़े , हरने को मेरा चीर सखी
वह रोष ,क्रोध, अपमान, व्यथा ,थी चरम परिध पे पीर सखी
जग से हारी ,प्रेम से हारी ,पर भावना को संवरण किया
उन अश्रुसिक्त नैनो को भींच, मैंने माधव का स्मरण किया
ये अभ्यंकर हे दया निधि, आओ मन मैं आहवान किया
उस श्याम सलोनी मूरत का ,अश्रुजल से आचमन किया
उसके आगे की गाथा का है, बस इतना ही सार सखी
परमेश्वर गर है साथ तेरे ,निश्चित है तम की हार सखी
पर छिन्न भिन्न था हृदय मेरा, इतने थे मन मैं शूल गड़े
हर समर मैं मैं जय हो पायी, थे सखा रूप मैं कृष्णा खड़े
जब जब दुविधा मैं मन था मेरा ,या दम्भी कुछ आचरण था मेरा
के-शव को सम्मुख पाती थी, हर वेदना बस टल जाती थी
वो पार्थ सारथि थे रण में ,और निश्चित विजय कराई थी
मैंने जीवन की सीख सभी, फिर योगेश्वर से पायी थी
जो राधा के प्रियतम थे सांवरे ,सौभाग्य रुक्मणि पायी थी
मैं मन से कृष्ण को अर्पण थी, और कृष्णा मैं कहलायी थी
वो अचल अजेय वो आदि देव, वो थे मेरे संग मैं सदैव
मेरे नीर में थे, मेरी पीर में थे , मेरे केशो में, मेरे चीर में थे
जब जब जग ने अपमान किया , मेरे सखा ने मुझ को थाम लिया
मेरे नयनो के हर इक अश्रु को, मोहन ने खुद का मान लिया
वो माधव जो अपने मुख मैं त्रैलोक्य समाया करते थे
वो सहचर बन संग थे मेरे ,रूठू तो मनाया करते थे
वो मुरली धर जिनकी धुन सुन, सुध बुध गोपिया खोती थी
वो मेरे पथ के प्रदर्शक थे ,निशदिन गोष्ठिया होती थी
वो मार्ग भी थे ,वो लक्ष्य भी थे, वो लक्ष्य प्राप्ति का साधन भी
वो पूजा भी, परमेश्वर भी ,वो नर भी ,वो नारायन भी
मेरे क्रोध में थे, मेरे बोध में थे, मेरी दुविधा में ,आमोद में थे
हर शोध का वो परिणाम भी थे ,और हर परिणाम के शोध में थे
मेरे हर प्रण में , जीवन रण में , कृष्णा के साथ थे कृष्ण लडे
हर समर में मैं जय हो पायी, थे सखा रूप मैं कृष्णा खड़े
साभार :
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